Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahadur Lala Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Jouhari
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________________ 11 अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनिश्री अमोलख ऋषिजी - आवणे अन्नमिय एवमादिमि दग महिय बीय हरिय तसराण असंसत्त अहाकडे फ सुए विवित्ते पसंत उवस्सएहोइ विहरियव्वं अहाकम्म बहुलेय जेसे असित समजि. ओसित्त सोहिय छाण दुमणि लिंपण अणुलिंपणजलण भंडचालणं अंतोबहिंच असंजमो जत्थवटइ संजयाण अट्ठावजेयत्वेहु उवरसए सेतारिसए सुत्तपरिकुटे, एवं विवित्तिवासवसहिं समिइं जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा निच्चअहिगरण करणकरावण पावकमाविरए दत्तमण्णुण्णाय उग्गहरुइ // 7 // बितियं आरामुजाण बखार, कुरिय[धातु]शाला, मंडप, शून्यगृह,स्मशान,पर्वतपर की लयन,दुकान, और भी इस प्रकार के स्थान, सचित्त मृत्तिका बीज हरिकाय युक्त न होवे, गृहस्थने अपने लिये बनाया होवे, फ्रासुक-स्त्री पशु पंडग राहत होते. प्रशस्त-साधु के योग्य होवे, दंश मच्छरादि के उपमर्ग रहित होवे, बैसे स्थान में उस के स्वामी की आज्ञा लेकर विचरे. परंतु जो उपाश्रय साधु के लिये बनाया होचे, बुहारी से झाडा होवे, खडी आदि से शोभित किया, कवेलू आदि से छवाया, पंदनादि से सुगंधित किपा, गोमयादि से लीपा, अग्नि आदि से ऊष्ण किया, और अंदर रखे हुए भंडोपकरण निकाल कर अन्य स्थान रखे हो इत्यादि असंयम की जहां वृद्धि होती होवे तो संयति को वैसे स्थान में रहना नहीं, इस प्रकार के आगम निषिध स्थानक छोडकर निदोष उपाश्रय मे रहे. समाधि युक्त. भाव से आत्मा को भावता हुवा सदैव अधिकरण * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी /