Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahadur Lala Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Jouhari

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Page 236
________________ बनुवादक-पालनमचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिणी - लुक्खसु बहु विहेसु अण्णेसुय एवमाइएसु फासेसु अमणुण्ण पावगेसु गतेसु समणेणं रुसि-यन्वं महीलियम्वं जनिदियध्वं नगरिहियन्वं नखिसियव्वं न दियध्वं नर्भिदियध्वं नवहे. यव्वं नदुग्गंछावत्तियव्वं लाभाउप्पाएओ,एवं फासिदिए भावणा भावितो भवइ अंरप्पा मण्णुणामण्णुसेस साब्भ दुन्भि रागदोस पणाहयप्पा साहु मणवयण कायगुत्ते संवुडेपेणिहि इंदिए चरिजधम्मं // 19 // एवमिणं संवरस्स दार सम्मं संवरिय होइ सुप्पणिहिय इमेंहिं पचहिंवि कारणेहिं मण वयण काय परिरक्खिएहिं निच्चं आमरणंतंच एस जोगो नेयव्यो धिइमया मतिमया अणासवो अकलुसो अच्छिद्दो अपारसाइ असंकिलिट्टो सुहो, सव्वजिण मणुण्णाओ // एवं पंचमं संवरदारं फसियं पालियं सोहियं तीरियं किट्टियं खराब स्थान व आसन की प्राप्ति होना, कर्कश, कारी, शीत, उष्ण, रूस, इत्यादि बहुत प्रकार के अमनोज्ञ स्पर्श में दोष करना नहीं, हीलना करना नहीं, निंदना नहीं, गहना करना नहीं, खिमना करना न छेदन भेदन करना नहीं, दुगंछा उत्पन्न करना नहीं, यो स्पर्शेन्द्रिय की भावना मे अंतगत्मा को भावता हुवा मनोज. अमनोझ, अच्छे बूरे में साधु रागद्वेष करे नही पन वचन आर काया के योग को गोपकर इन्द्रियों का संवर कर धर्म में विचरें // 19 // यह संघर द्वार सम्यक् प्रकार से संबर ता हुन। उक्त पांच प्रकार से इस की रक्षा करता हुवा सदैव जीवन पर्यंत इस को पसे, यो धूति पाना, मसिप न, अनावी, अकलुशता परिणामी, अछिद्री और सवर द्वार के साधक साधु लिएता। * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी *

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