Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahadur Lala Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Jouhari

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Page 232
________________ नलुभियन्वं, नतुसियव्वं नहसियन्वं, नसईच मइंच तत्थकुजा, पुणराव पाणिदिरण अग्धाइयं गंधाइ, अमणुण्ण पावगाई, किं ते अहिमड आसमड हस्थिमड गोमड-विग-सुणग-सियाल-मणुय-मजार-सिंह-दीविय-मयकुहिय विण? - किमिण बहु दुरभिगंधेसु अण्णसुय एवमाइएसु गंधेसु अमणुण्ण पाबएसु नतेमु स. मणेण नरुसियन्व्वं नहीलियम्वं जाव पणिहियं इंदिएचरेज धम्मं ॥१७॥चउत्थं जिब्भिदि एण साइयरसाणि मणुण्ण भहगाई, किं ते उग्गाहिम विविह पाण भोयण गुलकय खंडकय तेल्ल-घयंकयं, भक्खसु बहु विहेसु लवण रससंजुत्तेसु महु मंस बहु प्पगार नहीं, रक्त होवे नहीं, गृद्ध बने नहीं, पूच्छित होवे नहीं, गुणों से घात करे नहीं, लोभ करे नहीं, तुष्ट होवे नहीं, इसे नहीं, यह अच्छी सुगंध का कथन हुवा. अब दुर्गंध का करते हैं. साप का मृत शरीर, - वैसे ही घोडा, हायी, गाय, बिल्ली, कुत्ता, शगाल, मनुष्य, मार्जार, सिंह, दीपिका का मरा हुवा, दुर्गंध. मय ऐसा मडा की गंध तथा ऐसी अन्य भी अमनोज्ञ दुर्गध आवे तो उन पर रुष्ट होवे नहीं यावत् बन्द्रयों के विषयका रुंधन कर धर्म का आचरण करे॥१७॥चैथी भावना-जिन्हेन्द्रियमे आस्वादन किये हुवे मनोज रस में आसक्त बन नहीं. वैसे रस का स्वरूप कहते हैं-प्रधान विविध प्रकार के पानी, भोजन, गुड का बनाया, सकर का बनाया, तेल का बनाया, घृत का बनाया, वणादि से संयुक्त विविध बास्त्रमचारी मुनि श्री अमोलस ऋापन - *पकाचाक-राजाबहादुर लाला सुखदवमहायजा ज्वालामसादमी*

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