Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahadur Lala Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Jouhari
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________________ - जेविपन / चाउरंत चवट्टी, वासुदेवा, बलदेवा, भंडलिग, इरसरा, तलवा, सेगावइ, इब्भाट्ठी, रिट्ठीया, पुरोहिया, कुमारा, दंडणायगा, माडविया, सत्यवाहा, कोडविया, अमच्चा, एएअण्णेय एवमदी परिगहं संचिणंति, अणंत, असरण, दुरंतं, अधुवं, अणिचं, असासयं, पावकम्मनेमं, अविकिरियव्वं, विणासमूलं, वहबंध, परिकिलेस बहुलं, मणंत सकिलेस करणं, ते तं धण कणगरयणं निचयं, पडिता, 124 अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक अषिजा भूमि में चारों दिशा के अंत करनेवाले चक्रवर्ती भरत क्षेत्र का स्वामी वासुदेव, बलदेव, अर्थ भरत क्षेत्र के स्वाी, मंडलिक राजा-एकादि देश का स्वामी, ईश्वर-युवराज, तस्वर-कोतवाल, नापाते. इन्भ, श्रेष्ठि-द्रव्य के पुंज कर इस्ति कोढके इत ने द्रव्य वाले, रिष्टि-राष्ट्र की चिंता करने वाले. पुरोहित, कुप र, दंड नामक-न्यायाधिश, माविक-सिमाडिये, मार्थवाही-साथ चलनेवाले, काटुम्बिक-कुटुम्ब के अधिकारी. अमात्य-प्रधान बगैरह परिग्रह का संचय करते हैं, वह उन को तारनेवाला नहीं होता है. परंतु दुःखदायी होता है. क्यों कि वह अधृत, अनिश्चल, और अशाश्वत है. पाप कर्म का मूल कारन है. जिन के वृदय रूप नेत्र जान रूप अंजन से खल गय वे ही जीव इस का त्याग करते हैं. यह परिग्रह विनाश का मूल है. वध, बंधन और क्लेश का स्थानक है, परस्पर से चला आवे वैमा क्लेश कराने वाला है. *यह धन सुवर्ग और रत्न का समुह बड़े 2 पण्डितों के मन को भी मलिन बनाता है. यह संसार में * प्रकाशक-राजाबहादुर लालासुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी*