Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahadur Lala Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Jouhari
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________________ भिक्खंगवेसियव्बं, अण्णाए अगड्डिए अट्टे अर्दाणे अधिमणे अकलुणे अविमाई अपरीतंतजोगी, जयण घडण करण चरण चरिय चिणय गुणजोग संपउत्ते भिक्खू भिक्खेसणाए निरए // 6 // इमंच सव्व जग जीव रक्खण दयट्टयाए पाश्यणं भगवया सुकहियं, अझेहियं पेच्चाभावियं, आगमेसि भदंसद्ध नेयाउयं अकडिलं अणुतरंसव्व दुक्खपावाण / विउसमणं तस्स इमाओ पंच षणा करे. अनजान स्वजन संबंधियों को अपनी ओलख देबे नहीं, गृहस्थ के खान पान अथवा स्वजन से संबधियों में गृद्ध बने नहा. जो कोई आहार न देवे उन पर द्वेष कर नही, विषवाद कर नहीं. किसी को दुःख न होवे वैसे रहे प्राप्त हुए संयम की यतना करे और अप्राप्त ज्ञानादिक के लिये उद्यपकरता रहे सदैव करने में आवे ऐसी क्रिया करण के 70 गुन, और चरण-समयानुकूल करने में आवे वैसे चरण 704 गुण आचरता हुबा साध भिक्षा की गवेषणा में रक्त बने इस प्रकार दयाका आराधन करते रहै. // 6 // यह अहिंसा सब जगत् जंतुओं की रक्षा के लिये भगवान श्री महावीर स्वामीने परूपी है. इस से आत्मा का हित होता है. आगे जन्मान्तर में भद्र-कल्याण करने वाली होती है. सब दोष रहित शुद्ध अकुटिल-सरल-सब से प्रशन और सब दुःख का देने वाला प्राणातिपातादि जोपाप है उसे उपशं त बनाने वाली दया ही है यह प्रथम अहिंसारूप महाव्रत है. इस के रक्षणार्थ पांच भावना 10 कही है // 7 // प्रथम भावना-प्रण.ति पात से निवते साधु बैठते चलते साधु के जो गुन है. उन से अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी" * प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*