Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahadur Lala Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Jouhari
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________________ // 11 // एमोमो अबंभस्म फलविवागो इहलोहओ परलोइओ, अप्पसुहो, बहुदुक्खो; महब्धूयओ,बहुग्यप्पगाढो,दारुणो कक्कसोअसाओ वास सहस्सेहिं मुच्चंतीनय अवेदयिता, अस्थि हु माक्खोति॥ एवं मासु नायकुल नंदणो महप्पा जिणो वीरवरनामधिजो कहेसीय, अबंभरस फल विवागं, एयंत अबपि च उत्थंपि सदेव मणया सग्लोगस्स. पत्थाणज्ज, एवं चिरपरिचिय मणुगयं, दुरंत,त्तिबेमि ॥इति चउत्थं अहम्मदारं सम्मत्तं॥ * अनुवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 3 परिभ्रण करने वाले जीव को यह मोहनीय कर्म ही निश्चष्ट करता है. // 1 // इस प्रकार का अब्रह्मकर्म का फछ विपाक इस लोक में आर परलोक में अल्प मुख व बहुत दुःख देने वाला, महाभय का स्थान, वर्ग रूप रज से ग्रस्त, गाढ, दारुण कश विना भोगवे नहीं छूट सके वैसा है. ऐसा अब्रह्मचर्य का फल विपाक ज्ञात कुरनंदन महावीर स्वामी ने कहा है. इस चौथे अब्रह्मचर्य की सदैव / पष्प, मुरलोकने प्रार्थना की है, यह विपरिचित और दूरंत है. यह चौथा अधर्मद्वार संपूर्ण हुवा // 4 // * प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवस हायजी ज्वालाप्रमादजी *