Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahadur Lala Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Jouhari
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________________ 7 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अबालक कापणा बंधिऊण पाए सुकट्ठिया, खाइयाएंछूढा तत्थ्यविगमणगसियाल कोलमज्जारबंदसंडा * सतुंडपक्खिगण विविह मुइसय विलुत्तगत्ता, कयविहंगा, केइकिमिणाय कुथियदेहा अणि? वयणेहिं सप्पमाणा, सुहकयं जम्मउत्ति पावो तुडेण जणेणे हम्ममाणा, लजावणकायहोति, सयणस्सविय दीहकालं मयासंता // 11 // पुणोय परलोए समावन्ना, नरगेगच्छंति निरभिरामे, अंगार पलित्तककप्प, अच्चत्य सात वेयणा, अरसाउदिण्णसततंदुक्खभय सममिभूए // ततोविउव्वाहिया समाणा पुणो विउपपज्जति पूर्वक मृत्यु पाया हुवा, ऐसे चोर के शरीर को पांव से रस्सी बांध कर खाइ आदि विषम स्थान में डाल , देते हैं. वहां व्याघ्र, श्वान, शृगाल, कोल्हे, मार्जार, विल्ली इत्यादि पशुओं का समुह उस के शरीर का भक्षण करते हैं. उन की हड्डियों वगैरह सड जाती है. उसे देख लोक अनिष्ट वचन कहते हैं कि इस , दुष्ट का ऐसा हाल हुवा मो अच्छा हुवा. उस के दुःख तथा मृत्यु से लोग हर्षित होते हैं, दीर्घ काल पर्यंत / उस नाम को जगत् में लज्जित करते हैं, इस से उन के स्वजनादि बडे दुःखित होते हैं // 11 // यहां से परकर नरक में जाता है वहां नरक स्थान भी मनोहर नहीं होता है, वह स्थान प्रज्वलित आनि समान होता है, *अत्यंन शीत वेदनावाला होता है, वहां उम को असाता वेदनीय कर्ष का उदय होता है, निरंतर टुःख सन्मुख बना रहता है, वहां से मरकर पुनः तिर्यच में उत्पन्न होता है, वहां भी अनुपम वेदना अनुभाता है, प्रकाशक-राजाबहादर लालाखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *