Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahadur Lala Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Jouhari
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________________ तुरिय चरिय खोखुब्भमाण संताव निच्चय चलंत चवल चंचल, अत्ताणा असरन पुवकयकम्मसंचयो उदिण्ण वजं वेदिज्जमाण दुहसय विपाक, घुगंतं जलसमूह इड्डिरससायागारवोहारगहिय कम्म पडिबद्ध सत्तकड्डिजमाण निरयतल हुतसणं विसण्ण बहुलं अरति रतिभय विसायसोग मिच्छत्त तत्थे सेलसंकडं, अणादिसंताण कम्मबंधणकिलेस चिखिल्लुस महत्तार, अमरनरतिरियनिरयगतिगमण कुडिल परियत्त घूपता हुवा पानी का समुह हैं. ऋद्धिगर्व. रसगर्व सातागर्व रूप से जलचर जीव विशेषउद्यत हैं. कर्म प्रति का बंध से बंधे हुए प्राणियों तणाते हुए नरक रूप कीचड में खूबे हुए बहुत अरति रनि भय, विषय, शोक . और मिथ्यास्व रूप सांकडे पर्वत है. अनादि कर्म बंध से उत्पन्न हुआ क्लेश रूप कर्दम है. उसे उल्लंघना बडा कठिन होता है. देव मनुष्य, तिथच और नरक इन चारो गति में गमण रूप कुटिल व के प्रवर्तक विस्तीर्ण पानी की वेल है. हिंसा,झूट,चोरी,मैथुन,परिग्रह, आरंभ करना,करान और अनुमोदना और इन से आठ प्रकार के कर्म का संचय करना ऐश महा पातक रूप पानी का अंधेरा है. डूबे हुए पीछा नीकलते हुए प्राप्त करने में दुर्लभ तल है. शारीरिक व मानसिक दुःख से होती हुइ वेदना से परिताप / पाकर उपर नीचे उछलता है. चार गति रूप अंत ऐमा महा रोद्र भयंकर अनंत संसार सागर अस्थिर 10 और अवलम्बन रहित है. ऐसे संसार में रक्षा का स्थान कोई नहीं हैं. चौरातीलक्ष जीवायोनि अज्ञान अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनिश्री अमोलख क्राषिजी+ *प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी*