Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahadur Lala Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Jouhari
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________________ पनी 23 मुक्कंटहास पुक्त बोलबहुले कलकलगा फलफलगा वरणगहिय, गयवर पत्थित, दप्पियः / भडखल परोप्पर प्पलग्ग जुद्धगवित, विउसित वरासि। सतुरिय अभिमुह पहरत, छिन्नकरिकर, बिभंगियकरे, अवइट्ट निसुद्ध भिन्नफालित पालत रुहिर कय भूमिकद्दम, चिक्खिलपहे, कुत्थि दालिय गलित निभेलितंत, फुरफुरतविगल मम्महय विगत, गाढदिन्नप्पहार, मुच्छित रुलत, विन्भल विलावकलुणो, 'ठोकना, रोष में आकर तीव्र शब्द उच्चारना, अर्थ निद्रा में से उठते हुए मनुष्य जैसे रक्त नेत्रों दीखना, वैरभाव से कपिन बनकर शरीर की चेष्टा करना, त्रिवली चडाना, वध की प्रतिज्ञा करना, और अपन जितना बल है सो बताना वगैरह मंग्राम में होरहा हैं. हलके हाथ के प्रहार करने में साधना कराइ हुई जीत के हर्ष से ह स्य करते हुए बहुत सुभट सन्मुख आये, वैरी के आयुध अपने आधिन करके हाथ में धारन किये, अहंकार युक्त सुभट परमार युद्ध करने में सज्ज हुए. म्यान में से तस्व र नीकाली. और सन्मुख आकर प्रहार करने लगे. इस प्रकार के भगनक रौद्र संग्राम में हाथी के सूडाड छेदित किये, भेदित / किये, मनुष्यादि के रुधिर से वहां का मार्ग कर्दम मय बन गया, पेट में से रुधिर का वहना हो रहा किसी के तो आंत वाहिर नीकल रहे हैं. इन्द्रिय व ज्ञान से विकल बने हुए मर्म स्थान में प्रहार लगने से मनि श्री अमोलक काक-रजाबहादुः ल सुबदवसहायनी वाला प्रसादनी* + अनुवादक-बाल ब्रह्म