Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahadur Lala Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Jouhari
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________________ मुनि श्री अमोलक ऋषिजी - 42 अनुवादक-बाल प्रह्मचारी खंधे भगति केइमणं च मण जीविका वदंति, वाउजीवाति,एव माइंस सरीररं साहियं सनिधणं, इह भवे एगे भवे तस्स विपनाससि सव्वनासोति, एवं जति मसावाई, तम्हा दाणवा पोसहाणं तव संजम बंभचेर कलाण मादियाणं नथि फलनविय पाणवह, अलिवयणं, नव चोरकंकरणं, परदार सेवणं वा सपरिग्गह पावकम्माई, करणंपि नत्थिकिपि; न नेरइय, तिरिय . मणुयाणं जोणी, नदेवलोकोवा आस्थि नेय अस्थि, सिद्धगमणं, अम्मापियरोवि णत्थि, . नहीं स्पर्शता है, मुकृत दुष्कृत कुच्छ नहीं है, क्यों कि पृथ्वी, पानी, निः वायु, आकाश: इन पांच के मंबंध से शरीर साथ जीव की उत्पत्ति हुई है. पागरूप वायु के योग सहित है. विज्ञान, वेदना, संज्ञा, संस्कार और रूप यों पांच स्कंध की स्थापना में जीव कहाता है, कितनेक मन को ही जीव कहते हैं, कितनेक श्वासोच्छाव लक्षण रूप वायु को जीव कहते हैं. कितनेक इस शरीर को आदि व अंत सहित, कहते हैं. इस से जो यह भव प्रत्यक्ष दीखता है वही भव के आगे कुच्छ नी है. शरीर नाश से सब का नाश होता है, यों मषावाद बोलते हैं. ऐसा होने से दान करना, व्रत करना, पौषध करना, तप करना संयम और ब्रह्मचर्य का पालन करना यह कल्पना के कारन है. इसमें से कुछ भी नहीं है. वैसे प्राणातिपात, मृपावाद, अदत्तादान, पर स्त्री सेवन, और परिग्रह इन के सेवन में पाप भी नहीं लगता है. *प्रकाशक-राजाबहादुर लामा सुखदेवमहाव