Book Title: Prakrit Vidya 1998 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 18
________________ ‘णमोकार मंत्र' में लोए' एवं 'सव्व' पदों की विशेषता -मुनिश्री कनकोज्ज्वलनन्दि ‘णमोकार महामंत्र' का जैनसमाज के प्रत्येक व्यक्तित्व से जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त अविरल सम्बन्ध रहता है। बच्चा जब जन्म लेता है, तो हम उसके कानों में सर्वप्रथम 'णमोकार मंत्र' ही सुनाते हैं तथा जब अन्त समय आता है, तब भी णमोकार मंत्र' ही कान में सुनाते हैं। इसके अतिरिक्त प्रतिदिन देवदर्शन, सामायिक आदि धार्मिक क्रियाओं में, सुबह उठते समय एवं रात्रि में सोते समय प्रत्येक श्रावक-श्राविका, आबालवृद्ध इसका स्मरण व जप करते हैं। यही नहीं, यह महामंत्र किसी भी अवस्था में जपने योग्य, सुनाने योग्य माना गया है, इसीलिए कहा जाता है "अपवित्र: पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा। य: स्मरेत् परमात्मानं स बाह्याभ्यन्तरे शुचि: ।।" संभवत: इसीलिए मरणासन्न कुत्ते को जीवंधर स्वामी ने णमोकार मंत्र' सुनाया, अंजनचोर ने भी इसका जाप किया और भी अनेकों वृत्तान्त इसके माहात्म्य से भरे पड़े हैं। यह महामंत्र वैसे तो अनादिनिधन महामंत्र माना जाता है, किन्तु वर्तमान परम्परा में इसे 'छक्खंडागमसुत्त' (षट्खण्डागमसूत्र) के आदिप्रणेता आचार्य पुष्पदन्त के द्वारा निर्मित माना जाता है। इसकी पुष्टि स्वयं धवलाकार आचार्य वीरसेन स्वामी ने 'निबद्ध मंगल' कहकर की है। इस महामंत्र अरिहंत आदि पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है। इसका मूल शुद्धपाठ निम्नानुसार है "णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं ।।" इसमें चार परमेष्ठियों के पदों के साथ तो नमस्कारवाची णमो' पद का ही प्रयोग हुआ है, किन्तु पंचम परमेष्ठी वाचक साहूणं' पद के साथ णमो' के अतिरिक्त लोए' एवं 'सव्व' पदों का भी प्रयोग हुआ है। धवलाकार आचार्य वीरसेन स्वामी इनके बारे में लिखते हैं "सर्वनमस्कारेष्वत्रतनसर्वलोकशब्दावन्तदीपकत्वादध्याहर्तव्यौ सकलक्षेत्रगतत्रिकालगोचररार्हदादि-देवताप्रणमनार्थम् ।” अर्थ:-इस पंचपरमेष्ठी नमस्कार मंत्र में जो 'सर्व' और 'लोक' ('सव्व' और 'लोए') पद हैं, वे 'अन्तदीपक' हैं; अत: सम्पूर्ण क्षेत्रों में रहनेवाले त्रिकालवर्ती अरिहंत आदि परमेष्ठियों को नमस्कार करने के लिए उन्हें प्रत्येक नमस्करात्मक पद के साथ (णमो लोए सव्व अरिहंताणं, णमो लोए सव्व सिद्धाणं....इत्यादि प्रकार से) जोड़ लेना 0016 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98

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