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स्थायी स्तम्भ : क्र. 16
समयसार के पाठ
— डॉ० सुदीप जैन
प्रस्तुत स्तम्भ में समयसार के पाठों की उन भूलों की ओर ध्यानाकर्षित किया जा रहा है, जो कि आधुनिक सम्पादकों/प्रकाशकों की असावधानी अथवा मूलपाठ न देखने की प्रवृत्ति अथवा मात्र प्रकाशनरुचि से 'मक्षिकास्थाने मक्षिकानिक्षेप : ' की वृत्ति से छपने के कारण 'समयसार' के कतिपय प्रकाशित संस्करणों में आ गयी है । और जिनके कारण परमज्ञानी आचार्य कुन्दकुन्द के 'समयसार' की स्वरूपहानि हो रही है। उनका परिष्कार एवं आचार्य कुन्दकुन्द के शुद्ध मूलपाठों का प्रस्तुतीकरण ही इस स्तम्भ का एकमात्र लक्ष्य है।
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- सम्पादक
'समयसार' के ‘पुण्य-पाप अधिकार' में आगत गाथा - क्रमांक 147 (आ० अमृचन्द्र की टीका के गाथाक्रमानुसार यह क्रमांक है, जयसेनाचार्यकृत टीका के गाथाक्रमानुसार इसका गाथा क्र०154 है) में एक पाठ आता है 'संसग्गिं' । इस पाठ को सभी प्रकाशित संस्करणों में (मात्र कुन्दकुन्द भारती प्रकाशन को छोड़कर) 'संसग्गं' कर दिया गया है; इसमें से अन्त्य ‘ई' वर्ण के स्थान पर अकारादेश कर दिया गया है। यह क्यों हुआ? और इससे क्या ह हुई? – इस चर्चा के पूर्व सर्वप्रथम यह पाठ मूलगाथा में देखें
“तम्हा दु कुसीलेहि य रागं मा काहि मा व संसग्गिं । साधीणो हि विणासो कुसील - संसग्गि - रागेण । । ”
अर्थ:-इसलिये शुभ और अशुभ इन दोनों कुशीलों के साथ राग मत करो तथा संसर्ग भी मत करो; क्योंकि कुशील के साथ संसर्ग और राग करने से स्वाधीन - सुख का विनाश होता है।
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अमृतचन्द्राचार्यकृत ‘आत्मख्याति' टीका: – “कुशील शुशाशुभकर्मभ्यां सह राग-संसर्गौ प्रतिषिद्धी बंधहेतुत्वात् कुशील- मनोरमामनोरम - करेणुकुट्टिनी- राग-संसर्गवत् । "
जयसेनाचार्यकृत 'तात्पर्यवृत्ति' टीका :- "तम्हा दु कुसीलेहि य रागं मा काहि मा व संसग्गिं – तस्मात् कारणात् कुशीलैः कुत्सितैः शुभाशुभकर्मभि: सह चित्तगतरागं मा कुरु, बहिरंगवचन-कायगत-संसर्गं च मा कुरु । ”
यह 'संसग्गि' पद इसके आगे की दो गाथाओं ( गाथा क्रo 148 एवं 149 ) में भी आया
है।
यद्यपि संस्कृत में इसका रूपान्तर 'संसर्ग' दिया है, किन्तु उसे विशेषतः व्याख्यायित करते हुये ‘कुत्सित' अर्थ को स्पष्ट दोनों टीकाकारों ने किया है । जहाँ अमृतचन्द्राचार्य ने इसे 'करेणु-कुट्टिनी के संसर्ग' के रूप में कहा है, वहीं जयसेनाचार्य ने इसे 'बहिरंग
प्राकृतविद्या+अक्तूबर-दिसम्बर '98
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