Book Title: Prakrit Vidya 1998 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 90
________________ उपदेश दिया गया है"; क्योंकि गृहस्थ पूर्ण हिंसा का परित्यागी न होकर संकल्पपूर्वक की गई हिंसा का ही त्यागी होता है। अत: हिंसाकार्य छोड़कर जैन गृहस्थ सब प्रकार के कार्यों से आजीविकोपार्जन करते हुए देखे जाते हैं। जैनधर्म का प्रसार:-'हरिवंशपुराण' के अनुसार भगवान् महावीर ने काशी, कौशल, कुसन्ध्य, अस्वष्ट, साल्व, त्रिगर्त, पंचाल, भद्रकार, पटच्चर, मौक, मत्स्य, कनीय, सूरसेन, बृकार्थ, कलिंग, कुरुजांगल, कैकेय, आत्रेय, कम्बोज, बाल्हीक, यवन, सिन्धु, गान्धार, सौवीर, सूर, भीर, दशरूक, वाडवान, भरद्वाज, क्वाथतो और समुद्रवर्ती देश, उत्तर के तार्ण, कार्ण और पृच्छाल नामक देशों में विहार किया था, जैसाकि तीर्थंकर आदिनाथ ने किया था। उनकी धर्मदशना को तत्कालीन प्रमुख राजाओं और जनसाधारण ने सुना। इसप्रकार जैनधर्म का सारे भारत में व्यापक प्रसार हुआ। अनेक राजाओं, राजवंशों, सेनापतियों, मन्त्रियों, श्रेष्ठियों एवं व्यापारियों ने इसे प्रश्रय दिया। महावीर के समय से पश्चात्काल तक श्रेणिक, चेटक, प्रसेनजित्, उदयन, नन्दवंशीय राजा, चन्द्रगुप्त मौर्य, सम्प्रति, कलिंगचक्रवर्ती खारवेल, कलचुरि नरेश, गुजरात के चालुक्य नरेश, राष्ट्रकूट नरेश, दक्षिण के चालुक्य और होयसल राजवंश, गंगवंश, आन्ध्रवंशी राजा, नहपान, गुर्जर प्रतिहार, कदम्ब वंश, विजयनगर के राजा, सेनापति चामुण्डराय, गंगराज, हुल्ल, वस्तुपाल और तेजपाल, भामाशाह तथा राजस्थान के जैन दीवानों के संरक्षण में जैनधर्म खूब फला-फूला। किसी समय दक्षिण में तो जैनधर्म की राजधर्म' जैसी स्थिति रही। __ साहित्य के क्षेत्र पर हम ध्यान दें, तो ज्ञात होता है कि महावीर निर्वाण के 980 वर्ष बाद वलभीनगर में क्षमाश्रमण देवर्द्धिगणि के सान्निध्य में श्वेताम्बर-परम्परा के प्रमाणभूत' आगम-ग्रन्थों का संकलन किया गया। दिगम्बर-परम्परा के सिद्धान्त-ग्रन्थों में 'षट्खण्डागम' के लेखक पुष्पदन्त तथा भूतबति एवं कषाय प्राभृत' के रचयिता आचार्य गुणधर बहुत प्राचीन हुए। इस परम्परा में आचार्य सिद्धसेन, आचार्य कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, पात्रकेशरी, विद्यानन्द, जिनसेन, गुणभद्र, वादीभसिंह, सोमदेवसूरि, प्रभाचन्द्र, वादिराज और अमृतचन्द्र जैसे समर्थ आचार्य हुए। श्वेताम्बर-परम्परा में आचार्य हरिभद्र, मल्लिषेणसूरि, हेमचन्द्र, यशोविजय आदि अनेक आचार्य हुए; जिन्होंने प्रभूत मात्रा में साहित्य-सृजन किया। जैनाचार्यों ने संस्कृत के साथ तत्कालीन समय में प्रचलित प्राकृत, अपभ्रंश, तमिल, कन्नड़, गुजराती, मराठी, राजस्थानी आदि अनेक लोकभाषाओं को अपनाया। कला के क्षेत्र में भी मन्दिरों, मूर्तियों, स्तूपों, चैत्यगृहों और गुहाचित्रों, राजगृह उड़ीसा, बुन्देलखण्ड और मथुरा में प्राप्त मूर्तियों के अतिरिक्त दक्षिण के श्रवणबेलगोला, वेणूर, कारकल, धर्मस्थल आदि स्थानों पर विराजमान भगवान् बाहुबली की प्रतिमायें अपने ढंग की अनूठी हैं। उड़ीसा की हाथी-गुफा के भित्तिचित्र जहाँ ईसवी पूर्व द्वितीय शताब्दी के माने जाते हैं, वहाँ ग्वालियर के पास चट्टानों पर जैनमूर्तियों के नमूने 15वीं सदी तक के उपलब्ध हैं। 9088 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98

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