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ਪੀਰ ਕਿਵੀ
वर्ष 10, अंक 3-4,
ISSN No. 0971-796 X
(संयुक्तांक) पूर्णार्ध्य
अक्तूबर - मार्च 1998-99 ईο
स्वनामधन्य, समताभावी, समर्पित समाजसेवी, यशःपुञ्ज, अध्यात्मवेत्ता साहूश्री अशोक कुमार जी जैन
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आवरण पृष्ठ के बारे में
स्वनामधन्य साहू अशोक कुमार जी जैन
का संक्षिप्त जीवनवृत्त माता-पिता : स्व० श्रीमती रमारानी जैन एवं स्व० साहू श्री शान्ति प्रसाद जी जैन जन्म-तिथि : 05 मार्च 1934 ई० शिक्षा : कलकत्ता विश्वविद्यालय। स्वभाव : शांत, उदार, मृदुभाषी, क्षमाभावी, गंभीर विचारक एवं सुयोग्य नेतृत्व
गुण-सम्पन्न । विश्वविख्यात श्रेष्ठी एवं भारतीय उद्योग-व्यापार जगत् के विशिष्ट व्यक्तित्व होते हुये भी निरभिमानता एवं निश्छलता आपके व्यक्तित्व की अद्भुत विशेषता थी। सीमित एवं विनम्र शब्दों में स्पष्टत: अपनी बात अभिव्यक्त करने की आश्चर्यकारी क्षमता
आप में थी। कार्य : भारतीय उद्योग एवं व्यापार-जगत् के साथ-साथ लोकतन्त्र के चतुर्थ
स्तम्भ पत्रकारिता के क्षेत्र में सुप्रतिष्ठित 'टाइम्स प्रकाशन-समूह' के चेयरमैन आप रहे। भारतीय ज्ञानपीठ' जैसी यशस्वी संस्था आपके नेतृत्व में नये क्षितिजों को छू सकी। बैकिंग के क्षेत्र में 'टाइम्स बैंक' की स्थापना कर आपने निजी बैंकिंग-सेवा के क्षेत्र में एक मील के पत्थर' की भाँति नये आयाम विकसित किये। समाज की प्रमुख संस्थाओं के आप संरक्षक, अध्यक्ष आदि प्रमुख पदों पर रहे तथा अनेकों यश:पुंज कार्य आपके नेतृत्व में सम्पन्न हुये। विशेषत: सम्मेदशिखर जी क्षेत्र में हुये युगान्तरकारी कार्य आपके कुशल नेतृत्व
एवं पैनी सूझबूझ से ही संभव हो सके हैं। सद्य-भावना : जीवनभर अनेकों यशस्वी कार्यों को करने के बाद अब आप दि० जैन
तीर्थों, विशेषत: सम्मेदशिखर जी के लिए आप तन-मन-धन से समर्पित थे। साथ ही दिगम्बर जैन आगमग्रंथों की भाषा एवं भारत की प्राचीनतम जनभाषा 'शौरसेनी प्राकृत' के व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए भी कृतसंकल्प थे। श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ (मानित विश्वविद्यालय) नई दिल्ली-110016 में प्राकृतभाषा विभाग के लिए स्वतंत्र भवन बनवाकर देने के लिए बेहद प्रयत्नशील थे; ताकि नयी पीढ़ी इस भाषा को पढ़ सके। वे इस भाषा के विद्वानों को सम्मानित व प्रोत्साहित करने के लिए भी कई योजनाओं का प्रवर्तन करना चाहते थे।
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श्रुतपीठ
।। जयदु सुद-देवदा।।
प्राकृत-विद्या
PRAKRIT-VIDYA
Pagad-Vijja
पागद-विज्जा
शौरसेनी, प्राकृत एवं सांस्कृतिक मूल्यों की त्रैमासिकी शोध-पत्रिका The quarterly Research Journal of Shaurseni, Prakrit & Cultural Values वीरसंवत् 2525 अक्तूबर-दिसम्बर 1998 ई० वर्ष 10 अंक 3 Veersamvat 2525 October-December 1998 Year 10 Issue 3
आचार्य कुन्दकुन्द समाधि-संवत् 2012
मानद प्रधान सम्पादक प्रो० (डॉ०) राजाराम जैन निदेशक, कुन्दकुन्द भारती जैन शोध संस्थान
Hon. Chief Editor PROF. (DR.)RAJARAMJAIN Director, KKR Jain Research Institute
मानद सम्पादक Hon.Editor डॉ० सुदीप जैन DR.SUDEEP JAIN एम.ए. (प्राकृत), पी-एच.डी. MA (Pmvrity, Ph.D
Publisher
प्रकाशक . श्री सुरेश चन्द्र जैन मंत्री श्री कुन्दकुन्द भारती ट्रस्ट
SURESH CHANDRA JAIN Secretary Shri Kundkund Bharti Trust
★ वार्षिक सदस्यता शुल्क - पचास रुपये (भारत) 6.05 (डालर) भारत के बाहर ★ एक अंक - पन्द्रह रुपये (भारत) 1.5 5 (डालर) भारत के बाहर
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डॉ० देवेन्द्र कुमार शास्त्री प्रो० ( डॉ० ) प्रेमसुमन जैन डॉ० उदयचन्द्र जैन
सम्पादक- मण्डल
पं० जयकुमार जैन उपाध्ये,
एम०ए० (प्राकृत) डॉ० वीरसागर जैन
प्रबन्ध सम्पादक
पं० महावीर शास्त्री
श्री कुन्दकुन्द भारती (प्राकृत भवन) 18-बी, स्पेशल इन्स्टीट्यूशनल एरिया, नई दिल्ली-110067 फोन (011)6564510 फैक्स (011) 6856286
Kundkund Bharti (Prakrit Bhawan) 18-B, Spl. Institutional Area New Delhi-110067 Phone (91-11)6564510 Fax (91-11) 6856286
“नामाख्यातोपसर्गेषु, निपातेषु च संस्कृता । प्राकृती शौरसेनी च, भाषा यत्र त्रयी स्मृता ।। "
- (आचार्य रविषेण, पद्मपुराण', 24 / 11 )
अर्थः–नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपातों में संस्कृत, प्राकृत और शौरसेनी - ये तीन भाषायें थी ।
-
(i) प्रकृतिः शौरसेनी।। 10/2।।
अस्या: पैशाच्या: प्रकृति: शौरसेनी । स्थितायां शौरसेन्यां पैशाची-लक्षणं प्रवर्तयितव्यम् । (ii) प्रकृतिः शौरसेनी।। 11 /2।।
अस्याः मागध्या: प्रकृतिः शौरसेनीति वेदितव्यम्।
( वररुचिकृत 'प्राकृतप्रकाश' से)
(i) शेषं शौरसेनीवत् ।। 8/4/302।। मागध्यां यदुक्तं, ततोऽन्यच्छौरसेनीवद् द्रष्टव्यम्।
(ii) शेषं शौरसेनीवत् ।। 8/4/323।।
पैशाच्यां यदुक्तं, ततोऽन्यच्छेषं पैशाच्यां शौरसेनीवद् भवति ।
(iii) शौरसेनीवत् ।। 8/4/446।।
अपभ्रंशे प्रायः शौरसेनीवत् कार्यं भवति ।
अपभ्रंश-भाषायां प्रायः शौरसेनी - भाषा - तुल्यं कार्यं जायते; शौरसेनी-भाषायाः ये नियमाः सन्ति, तेषां प्रवृत्तिरपभ्रंशभाषायामपि जायते ।
(हिमचन्द्रकृत 'प्राकृतव्याकरण' से)
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'सर्वास्वेह हि शुद्धासु जातिषु द्विजसत्तमाः।
शौरसेनी समाश्रित्य भाषा काव्येषु योजयेत् ।।' -(वही) अर्थ: हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो ! सभी शुद्ध जातिवाले लोगों के लिए शौरसेनी प्राकृतभाषा का आश्रय लेकर ही काव्यों में भाषा का प्रयोग करना चाहिये।
शौरसेनी प्राकृत "शौरसेनी प्राकृतभाषा का क्षेत्र कृष्ण-सम्प्रदाय का क्षेत्र रहा है। इसी प्राकृतभाषा में प्राचीन आभीरों के गीतों की मधुर अभिव्यंजना हुई, जिनमें सर्वत्र कृष्ण कथापुरुष रहे हैं और यह परम्परा ब्रजभाषा-काव्यकाल तक अक्षुण्णरूप से प्रवाहित होती आ रही है।"
-डॉ० सुरेन्द्रनाथ दीक्षित
(भरत और भारतीय नाट्यकला, पृष्ठ 75) ___ भक्तिकालीन हिंदी काव्य की प्रमुख भाषा 'ब्रजभाषा' है। इसके अनेक कारण हैं। परम्परा से यहाँ की बोली शौरसेनी 'मध्यदेश' की काव्य-भाषा रही है। ब्रजभाषा आधुनिक आर्यभाषाकाल में उसी शौरसेनी का रूप थी। इसमें सूरदास जैसे महान् लोकप्रिय कवि ने रचना की और वह कृष्ण-भक्ति के केन्द्र 'ब्रज' की बोली थी, जिससे यह कृष्ण-भक्ति की भाषा बन गई।" -विश्वनाथ त्रिपाठी
(हिंदी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ० 18) _ "मथुरा जैन आचार्यों की प्रवृत्तियों का प्रमुख केन्द्र रहा है, अतएव उनकी रचनाओं में शौरसेनी-प्रमुखता आना स्वाभाविक है। श्वेतांबरीय आगमग्रन्थों की अर्धमागधी
और दिगम्बरीय आगमग्रन्थों की शौरसेनी में यही बडा अन्तर कहा जा सकता है कि 'अर्धमागधी' में रचित आगमों में एकरूपता नहीं देखी जाती, जबकी 'शौरसेनी' में रचितभाषा की एकरूपता समग्रभाव से दृष्टिगोचर होती है।" -डॉ.जगदीशचंद्र जैन
' (प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ0 30-31) "प्राकृत बोलियों में बोलचाल की भाषायें व्यवहार में लाई जाती है, उनमें सबसे प्रथम स्थान शौरसेनी का है। जैसा कि उसका नाम स्वयं बताता है, इस प्राकृत के मूल में शूरसेन के मूल में बोली जानेवाली भाषा है। इस शूरसेन की राजधानी मथुरा थी। -आर. पिशल (कम्पेरिटिव ग्रामर ऑफ प्राकृत लैंग्वेज, प्रवेश 30-31)
प्राकृतभाषा के प्रयोक्ता “मथुरा के आस-पास का प्रदेश 'शूरसेन' नाम से प्रसिद्ध था और उस देश की भाषा 'शौरसेनी' कहलाती थी। उक्त उल्लेख से इस भाषा की प्राचीनता अरिष्टनेमि से भी पूर्ववर्ती काल तक पहुँचती है।" – (मघवा शताब्दी महोत्सव व्यवस्था समिति, सरदारशहर (राज०) द्वारा प्रकाशित संस्कृत प्राकृत व्याकरण एवं कोश की परम्परा' नामक पुस्तक से साभार उद्धृत)
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अनुक्रम
पृष्ठ सं०
लेखक डॉ० सुदीप जैन
आचार्य विद्यानन्द मुनि
क्र. शीर्षक 1. सम्पादकीय : 'अशोक' जी शोक-रहित थे 2. दिगम्बर जैन श्रावकों एवं विद्वानों को त्यागियों/
श्रमणों की समीक्षा का पूर्ण अधिकार है । 3. णमोकार मंत्र' में 'लोए' एवं 'सव्व' पदों
की विशेषता 4. गृहस्थों को भी धर्मोपदेश का अधिकार 5. एक: शरणं शुद्धोपयोग 6. तीर्थंकर की दिव्यध्वनि की भाषा 7. यापनीय : एक विचारणीय बिन्दु 8. सम्राट् खारवेल की अध्यात्मदृष्टि 9. धरसेन की एक कृति : जोणिपाहुड 10. कातन्त्र व्याकरण एवं उसकी दो वृत्तियाँ 11. आचार्य कुन्दकुन्द का आत्मवाद 12. प्रेरक व्यक्तित्व : डॉ० हुकमचंद भारिल्ल 13. भारतीय शिक्षण व्यवस्था एवं जैन विद्वान् 14. गुरु-वन्दना 15. समयसार के पाठ : क्रमांक 16 16. जैनदर्शन के प्रतीक पुरावशेष 17. आचार्यश्री के संकलन से..... 18. जल-गालन की विधि तथा महत्ता 19. प्राकृत तथा अपभ्रंश काव्य और संगीत '20. जैनधर्म और अन्तिम तीर्थंकर महावीर 21. गुणों का भंडार लौंग 22. केला औषधि भी है 23. अभिमत 24. पुस्तक-समीक्षा 25. समाचार-दर्शन 26. इस अंक के लेखक-लेखिकाएँ
मुनि कनकोज्ज्वल नंदि पं० माणिकचंद्र कौन्देय डॉ० सुदीप जैन पं० नाथूलाल शास्त्री डॉ० सुदीप जैन श्रीमती रंजना जैन आचार्य नगराज डॉ० रामसागर मिश्र डॉ० महेन्द्र सागर प्रचंडिया श्रीमती ममता जैन श्रीमती अमिता जैन डॉ० कपूरचंद जैन डॉ० सुदीप जैन डॉ० कस्तूरचन्द्र 'सुमन'
डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री
डॉ० रमेशचन्द्र जैन
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(सम्पादकीय
'अशोक जी शोक-रहित थे
-डॉ० सुदीप जैन “जातस्य मरणं धुवं” —यह एक ध्रुव सत्य है। कोई भी जीव हो, संसार में जिसने देहधारण कर जन्म लिया है, उसका देहवियोग (मरण) होना अवश्यंभावी है। संसार में जीवन को सुरुचिपूर्ण एवं कलात्मक बनाने, उसे आदर्श एवं समुन्नत बनाने के लिये तो सभी प्रयत्न करते हैं; किन्तु उसे पूरी गरिमा से जीकर अत्यंत गरिमापूर्ण रीति से नश्वर शरीर का त्याग करने की कला विरले जीव ही जानते हैं। परिपूर्ण समताभाव, शांत परिणाम एवं प्रसन्नचित्त से जीर्ण काय-कुटीर को यमराज (मृत्यु) के हाथों में सौंपकर आत्मोद्धार के पथ पर अग्रसर होने का गौरव मिल पाना मनुष्यभव में अत्यन्त दुर्लभ है।
ऐसा सौभाग्य उसे ही मिलता है, जो अविरलरूप से यावज्जीवन 'सत्' यानी अच्छाई या भलाई के कार्यों, धर्मप्रभावना एवं आत्महित के मार्ग पर निरन्तर अग्रसर रहा हो। अर्थात् जिसने जीवनभर मात्र 'सत्' का ही लेखा-जोखा (चिंतन-मनन-प्रवर्तन) किया हो; वही ऐसे आदर्श 'मृत्यु-महोत्सव' को प्राप्त कर सकता है। इसीलिए इस आदर्श देहत्यागविधि को ज्ञानियों ‘सल्लेखना' कहा है। जीवन में कदाचित् राग-द्वेष के प्रसंग कितने ही बने, किन्तु विवेकीजन 'प्राण-प्रयाण बेला' में मात्र 'सत्' का ही लेखा-जोखा (चिंतनमनन-प्रवर्तन) करते हैं; इसीलिए इसकी 'सल्लेखना' संज्ञा अन्वर्थकी है। शास्त्रीय शब्दावलि में सम्यक्रूप से 'काय' (शरीर) और 'कषायों' को कृश करना ही सल्लेखना है।
चूँकि ऐसा आदर्श देहत्याग निश्चितरूप से आगामी भव में सुगति (श्रेष्ठ गति) की प्राप्ति का प्रतीक है, अत: जैन आम्नाय में प्रतिदिन भावना की जाती है कि-"बोहिलाहो, सुगदिगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होदु मज्झं” अर्थात् 'हे भगवन् ! मुझे बोधि (रत्नत्रय – सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र) की प्राप्ति हो, सुगति में गमन हो (ताकि वीतरागी देव-शास्त्र-गुरु का एवं आत्मतत्त्व का समागम निरन्तर बना रहे) एवं समाधिपूर्वक मरण हो (अर्थात् मरण के समय किसी पर व्यक्ति या परपदार्थ की मोह/ममता में अटककर मेरा चित्त संक्लेश को प्राप्त न हो, मैं मरण से भयभीत होकर भोगोच्छिष्ट भौतिक पदार्थों की कामना में आकुलित न होऊँ, वीतरागी देव-गुरु-धर्म में एवं आत्महित में मेरा उपयोग निरन्तर एकाग्र बना रहे) तथा अन्तत: हमें जिनेन्द्रपरमात्मा के समान वीतरागता आदि गुणों की प्राप्ति हो।' ।
जैन संस्कृति में “जीवेम शरदः शतम्” (अर्थात् मैं सौ वर्षों तक जीऊँ) की भावना नहीं करते हैं, क्योंकि इसमें जीवन के प्रति लालसा है; दूसरों को “जीवेद् शरदः शतम्"
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(सौ वर्षों तक जीओ) का आशीर्वाद देना अलग बात है तथा अपने लिए याचना करना अलग बात है। जैनदर्शन में तो भावना करते हैं—“लाखों वर्षों तक जीऊँ या मृत्यु आज ही आ जावे।" आत्मविश्वास से भरपूर सज्जन व्यक्ति ही ऐसी भावना कर सकता है।
चूँकि प्राय: संसारी मोही प्राणियों से घिरे रहने पर छद्मस्थ प्राणी का मन भी मोह-ममता से ग्रस्त हो सकता है, इसीलिए किसी विवेकी पुरुष ने कहा है कि-"मरनो भलौ विदेश को, जहाँ न अपना कोय ।" अर्थात् ऐसे स्थान पर प्राणप्रयाण-बेला में चले जाना चाहिये, जहाँ शरीर एवं इससे सम्बन्धित पदार्थों में मोहभाव जागृत करनेवाला कोई न हो। तभी व्यक्ति अपने परिणामों को एकाग्र कर 'मृत्यु-महोत्सव' को चरितार्थ कर सकता है। इस बारे में आचार्य देवनन्दि जी लिखते हैं
"गुरुमूले यतिनिचिते, चैत्य-सिद्धान्त-वार्धिसद्घोषे। मम भवतु जन्म-जन्मनि, सन्यसन-समन्वितं मरणम् ।।"
-(समाधिभक्ति, 4, पृष्ठ 184) अर्थ:-हे परमात्मन् ! मुनि-समुदाय से वेष्टित गुरु के पादमूल में, तीर्थंकर की प्रतिमा के समीप अथवा जहाँ पर तत्त्वज्ञान-सिद्धान्त के समुद्र के समान गंभीर शब्द हो रहे हों ऐसे स्थान में मेरा जन्म-जन्मान्तर में सन्यास-सहित मरणोत्सव हो। इसी तथ्य को कलिकालसर्वज्ञ आचार्य समन्तभद्र ने भी लिखा है
“अन्तक्रियाधिकरणं तप:फलं सकलदर्शिन: स्तुवते । तस्माद् यावद् विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यम् ।।"
-(रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 5/123) अर्थ:-मृत्यु के समय क्रिया को सुधारना अर्थात् करना ही तप (धर्म) का सुफल है। सभी दार्शनिक एवं विवेकी विचारक इसीप्रकार शांति से मरण चाहते हैं। इसलिए जहाँ तक संभव हो सके 'समाधिमरण' (परमात्म-स्मरण) करने का प्रयत्न करना चाहिये।
अज्ञानी एवं मोही जीव मरण से भयभीत रहते हैं। इसीलिए कहा गया है कि "णत्थि भयं मरणसमं"। किन्तु आत्मतत्त्व के ध्रुव-नित्य या शाश्वत स्वरूप को पहिचानने वाले शरीर की ममता में नहीं पड़ते हैं। वे जानते हैं कि 'यह तो नाशवान् है, और मैं अविनाशी हूँ; अत: हमारा संयोग स्थायी हो ही नहीं सकता है।' अत: इसे तो प्रसन्नतापूर्वक "वासांसि जीर्णानि यथा विहाय....” की उक्ति को चरितार्थ करते हुये फटे-पुराने जीर्ण वस्त्र की भाँति बदल लेने में ही विवेकशीलता की परख है। ज्ञानियों ने कहा भी है कि"मृत्यु केवल प्रशंसनीय ही नहीं है, अपितु वह निश्चय से शाश्वत कल्याण को भी उत्पन्न करनेवाली होती है।” परन्तु यह स्थिति तभी बनती है, जब देह-वियोग की अनिवार्यता को परखकर विवेकी जीवन देहात्म-भेदविज्ञान को अपनाता हुआ आत्मस्थ
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होने की समाधि-साधना प्राप्त करने की ओर सुनिश्चितरूप से अग्रसर हो जाता है। भारतीय-परम्परा में माना गया है कि 'जब तक आयुकर्म है, तभी तक शरीर का संयोग है, तथा इसके क्षीण होते ही शरीर का वियोग अर्थात् मरण अवश्यंभावी है।' इसीलिए युगप्रधान आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने लिखा है कि
“आउक्खयेण मरणं....” – ( समयसार 8 / 12, पृ० 248 )
अर्थात् आयुकर्म के क्षय होने से 'मरण' होता है।
इसे ही अन्यत्र 'वयकुण्ठ' भी कहा गया है। इसका अर्थ है कि- 'वय' अर्थात् आयुकर्म कुंठित (क्षीण) हो गया।
इसी तथ्य को पंडितप्रवर आशाधरसूरि ने लिखा है—
“पात्रे तैलं यथा हि प्रदीपस्य स्थितिकारणम् ।
तथा देहे देहिनो यन्मुक्तं तेनायुषा यजे । ।”
अर्थात् जैसे दीपक में तेल रहने पर ही 'दीपक' की स्थिति रहती है अर्थात् वह जलता रहता है, उसीप्रकार आयुकर्म के रहते ही शरीरसंयोग बना रहता है । इसीलिए जो आयुकर्म से रहित हैं, ऐसे सिद्ध भगवन्तों की निम्नानुसार स्तुति की जाती है - “ॐ ह्रीं आयु:कर्मरहिताय श्रीसिद्धाधिपतये नमः । । ”
'जीवन' और 'मरण' के सन्दर्भ में जैनदर्शन में अत्यन्त वैज्ञानिक एवं व्यावहारिक चिंतन प्रस्तुत किया है। उसके अनुसार जब तक शरीर में समागत व्याधि आदि का उपचार संभव हो, तब तक उसका उपचार आदि करके निदान करने की चेष्टा करो; तथा जब कोई सात्त्विक साधन संभव न हो, तब देह से सर्वविध ममत्व त्याग करके आत्मा एवं परमात्मा के चिंतन - ध्यान में चित्त को एकाग्र कर लेना चाहिये । यही सल्लेखना की विधि' है—
“उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निष्प्रतीकारे ।
धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः । । ”
अर्थ:-घोर एवं अनिवार्य उपसर्ग, दुर्भिक्ष, वृद्धावस्था एवं रोग की स्थिति आ जाये एवं इनका कोई प्रतीकार (निदान) संभव न हो, तो धर्मसाधन के लिए सल्लेखनापूर्वक शरीर छोड़ देने की ज्ञानियों ने प्रेरणा दी है ।
इसी बात की पुष्टि आचार्य उमास्वामी ने भी दी है—
“मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता” (तत्त्वार्थसूत्र, 7/22)
भारतीय परम्परा की इसी "योगोनान्तेन तनुत्यजाम्” की आदर्शविधि को स्वनामधन्य धर्मप्राण, तीर्थभक्त, जिनधर्मप्रभावक श्रीमान् साहू अशोक कुमार जी जैन ने अपने जीवन में चरितार्थ करके बताया। वे जब तक जिये, एक आदर्श श्रावक की भाँति धर्मप्रभावना करते हुये समाज एवं राष्ट्रहित में समर्पित होकर रहे तथा अन्त में जब शरीर का वियोग
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अवश्यंभावी दिखा, तो वे पूर्णत: निर्ममत्व को अंगीकार कर प्राय: आत्मस्थ हो गये। चतुर्विध दान के संकल्प की पूर्ति उन्होंने की, गुरुजनों की भक्तिपूर्वक उनका मंगल आशीष प्राप्त किया एवं आत्महित का चिंतन करते हुये वे “प्राणप्रयाण-बेलायां न हि लोके प्रतिक्रिया" के आदर्श को चरितार्थ करते हुये सद्गति को प्राप्त हुये।।
उनके हृदय में वीतरागी देव-शास्त्र-गुरु के प्रति जो अगाध भक्ति थी एवं जैसी उत्कृष्ट अध्यात्मभावना थी, उसका साक्षी मैं भी स्वयं रहा हूँ। दिल्ली में अनेकों प्रसंगों में अनेकों बार उन्होंने मुझे आत्मीयतापूर्वक सबहुमान धर्मचर्चा के लिए बुलाया एवं ज्ञानगरिमा से ओतप्रोत सूक्ष्म चर्चा उन्होंने की। ऐसे ही प्रसंग में उन्होंने बड़ी आत्मीयतापूर्वक मुझे बताया कि “उनकी सहधर्मिणी धर्मानुरागिणी इन्दु जैन की आचार्य कुन्दकुन्द-विरचित 'समयसार' ग्रंथ में अच्छी रुचि है तथा उन्हीं की प्रेरणा से मैं प्रतिदिन 'समयसार' का स्वाध्याय करने लगा हूँ। इससे मुझे जैन-अध्यात्म की गहराई का कुछ बोध हो सका है।" यही नहीं, शरीर के अंत समय को निकट जानकर उन्होंने धर्मानुरागी पं० नीरज जैन सतना वालों को अपने पास मात्र इसीलिए रखा कि उन्हें अंत समय में लौकिक चर्चा सुनाई न पड़े, बल्कि धर्म और अध्यात्म के स्वर ही उनके कानों में गुंजायमान रहें।
“अब हम अमर भये न मरेंगे।
तन-कारण मिथ्यात्व दियो तज।। क्यों कर देह धरेंगे...?"
धर्मानुरागी श्री हरिचरण वर्मा जब दशलक्षणपर्व में यह भजन मधुर कंठ से गाते थे, तब साहू अशोक कुमार जी आनंद से झूम जाते थे। इससे उनकी आध्यात्मिक दृष्टि की स्पष्ट झलक मिलती थी। ___ 'प्राकृतविद्या' पत्रिका को भी उनका अपार अनुराग एवं प्रोत्साहन प्राप्त रहा है। उन्हीं की प्रेरणा एवं सहयोग से यह आज अपना यह आकार ले सकी है। वे सदैव कहा करते थे कि “यह तो साक्षात् 'शास्त्र' है, इसे मैं कार में या आफिस में चलते-फिरते नहीं, अपितु विधिवत् स्वाध्यायकक्ष में बैठकर पढ़ता एवं मनन करता हूँ।" ।
वे संसार से अत्यन्त अनासक्त हो चले थे। उनका जीवन सादगी और विनम्रता का पर्यायवाची रहा है। अपने हित की भावना उनमें अत्यन्त उत्कृष्टता को प्राप्त थी। कभी जब ड्राईवर नहीं भी होता था, तो वे सुबह-सुबह स्वयं कार चलाते हुये 'कुन्दकुन्द भारती' आते और घंटों पूज्य आचार्यश्री के पास बैठकर उनसे अपनी तत्त्वपिपासा को शांत करते। सामाजिक एवं धार्मिक मुद्दों पर तो वे अनिवार्यत: पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज से परामर्श लेकर ही तदनुसार कार्य करते थे। शाश्वत तीर्थधाम सम्मेदशिखर जी के प्रति उनकी निष्ठा एवं समर्पण की वृत्ति तो उगे हुये सूर्य की भाँति सर्वविदित है।
उनके सम्पूर्ण जीवन में एवं विशेषत: अंतिम समय में उनके ज्येष्ठ पुत्र धर्मानुरागी श्री समीर जैन एवं सुपुत्री धर्मानुरागिणी नन्दिता जी ने जो समर्पित सेवा की है, वैसी
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सामान्यत: कोई कर नहीं सकता है। क्योंकि वे भली-भाँति भारतीय संस्कृति के इस मंत्र को जानते हैं कि 'भले ही जीवन में पैसों से सब कुछ खरीदा जा सकता है, किन्तु माता-पिता का मोल पैसों से नहीं चुकाया जा सकता। सारे जीवन उनकी सेवा करें, तो भी उनसे उऋण नहीं हो सकते हैं।' क्योंकि माता-पिता सारे जीवन जो वात्सल्य एवं कष्ट-सहिष्णुता से शिशु का लालन-पालन कर उसे राष्ट्र का योग्य नागरिक बनाते हैं; उसका प्रतिदान किसी भी भौतिक सामग्री के द्वारा संभव नहीं है। उसके लिए तो समर्पित सेवाभाव से उनकी आज्ञा का पालन किया जाए तथा विनम्र होकर उनकी यावज्जीवन सेवा की जाए - यही एकमात्र उपाय है। इस बात को संभवत: अपने पिता के सुसंस्कारों से समन्वित उनकी संतति भली-भाँति जानती थी, अत: अपने विनम्र एवं समर्पित सेवाभाव से उन्होंने इस तथ्य को साक्षात् करके दिखाया है।
यद्यपि इस समाज को इस शताब्दी में स्वनामधन्य श्रेष्ठिवर्य माणिकचंद जी पानाचंद जी बम्बई, लाला जम्बूप्रसाद जी सहारनपुर वालों, सेठ निर्मल कुमार जैन आरा, राजा लक्ष्मणदास जी मथुरावालों, सर सेठ हुकुमचंद जी इन्दौर वालों आदि का भी प्रभावी नेतृत्व मिला है और उसमें इसने नये क्षितिजों को स्पर्श किया। फिर ‘साहू जैन परिवार' में आदरणीय साहू शांतिप्रसाद जी जैन, साहू श्रेयांस प्रसाद जी जैन का दूरदर्शी नेतृत्व मिला, जिसमें नये आयाम मिले। इन सबके गुणों को अपने में समाहित कर, उसमें अपार सौम्यता, प्रशान्तभाव, सूक्ष्मदर्शिता, अपार वैदुष्य एवं उदारचेतस् भावना का अपूर्व सम्मिश्रण कर एक अनुपम व्यक्तित्व समाज को 'नेता' के रूप में मिला, और वे थे साहू अशोक कुमार जी जैन। . उनके व्यक्तित्व एवं कार्यों की जीवन्तता के परिप्रेक्ष्य में 'थे' का प्रयोग मात्र शरीर के लिए ही लागू होता है, गुणों व यश:काय व्यक्तित्व के लिए नहीं।
आज जब वे सशरीर नेतृत्व के लिए हमारे मध्य नहीं हैं, तो सम्पूर्ण समाज की जिम्मेवारी और अधिक बढ़ जाती है। समाज को एक सर्वमान्य प्रभावी नेतृत्व की अपेक्षा होती है। नीतिवचन हैं
“अनायकं तु नष्टव्यं, नष्टव्यं बहुनायकम् ।
त्रिनायकन्तु नष्टव्यं न नष्ट एकनायकम् ।।" - अर्थात् जिस समुदाय का कोई नायक (नेता) नहीं होता, वह समाज नष्ट हो जाती है। जिसके दो-तीन या बहुत नेता होते हैं, वह भी नष्ट हो जाती है। मात्र एक नेतृत्ववाली समाज की प्रगतिशील एवं सुरक्षित रहती है। ___ संपूर्ण इतिहास इस शाश्वत तथ्य का मुखर साक्षी रहा है। जब कभी भी जिस किसी देश या समाज में अनायकत्व या बहुनायकत्व आया है, वह सुनिश्चितरूप से अवनति को प्राप्त हुआ है। इस तथ्य को आज हम साहू 'अशोक' जी के 'शोकरहित' हो जाने की
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स्थिति में गंभीरता से विचार करें तथा उनके संकल्पों, भावनाओं एवं प्रवर्तित कार्यों को पूर्णत्व की ओर ले जाते हुये उनकी स्मृति को और भी अनेक मांगलिक कार्यों के प्रवर्तन के द्वारा अक्षुण्ण रखें – ऐसी भावना है।
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'यमाय नमो अस्तु मृत्यवे' – (ऋग्वेद, 10/165/4)
इंदु जी की अध्यात्मदृष्टि
एक बार महाराष्ट्र प्रान्त से दिगम्बर जैन महिलाओं का एक समूह कुन्दकुन्द भारती में दर्शनार्थ आया। उसकी कुछ महिलायें अच्छी विदुषी भी थीं तथा उनकी कुछ तात्त्विक जिज्ञासायें भी थीं। पूज्य आचार्यश्री से चर्चा - समाधान के उपरान्त वे आदरणीया धर्मानुरागी इन्दु जी (सहधर्मिणी साहू अशोक जैन जी) से भी मिलीं, जो कि संयोगवश उस समय कुन्दकुन्द भारती में आयीं हुईं थीं। चूँकि इन्दु जी अच्छी अध्यात्मरुचि - सम्पन्न जिज्ञासुवृत्ति की स्वाध्यायी महिला हैं तथा 'समयसार' के सूक्ष्म अध्ययन में आपकी विशेष रुचि / प्रवृत्ति रहती है । अत: इंदु जी ने उन महिलाओं से पूछा कि “क्या आप दुःखी हैं?" तो वे बोलीं कि "हाँ! हम दु:खी हैं। संसार में अनेकविध दुःख हमें भोगने पड़ते हैं।” यह सुनकर इंदु जी ने स्मित हास्यपूर्वक उत्तर दिया कि "आप दुःखी हैं यह कथन 'व्यवहार' का है। संयोगी दृष्टि से हमें ऐसा लगता है। यदि हम शुद्ध - बुद्ध आत्मस्वभाव की दृष्टि से देखें, तो आत्मा में दुःख है ही नहीं । "
इंदु जी का यह समाधान सुनकर वे महिलायें दंग रह गयीं तथा उनकी सूक्ष्म आध्यात्मिक दृष्टि को नमन करके आगे चलीं गयीं ।
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स्वाध्याय
'सज्झाय' – ( बोधपाहुड, 44, पृ0208)
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वाचना- —शिष्याणां व्युत्पत्तिनिमित्तं स्वाध्यायध्यानयुक्ताः। स्वाध्याय प्रञ्चप्रकार:, शास्त्रार्थकथनं, पृच्छना-अनुयोगकरणं, अनुप्रेक्षा – पठितस्य व्याकृत्य च शास्त्रस्य पुनश्चेतसि चिंतनं', आम्नाय : –शुद्धपठनं, धर्मोपदेशः महापुराणादि-शास्त्रस्य मुनीनां श्रावकादीनामग्रतो व्याख्यानविधानम्।” – ( बोधपाहुड टीका )
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स्वायाय पाँच प्रकार का होता है— (1) वाचना, (2) पृच्छना, (3) अनुप्रेक्षा, (4) आम्नाय (5) धर्मोपदेश । शिष्यों की व्युत्पत्ति के लिये शास्त्र के अर्थ का कथन करना वाचना है। अज्ञात वस्तु को समझने के लिये अथवा ज्ञात वस्तु को दृढ़ करने के लिये प्रश्न पूछना पृच्छना है । पठित अथवा व्यासयात शास्त्र का चित्त में पुन: पुन: चिंतन करना अनुप्रेक्षा है। शुद्ध पाठ करना आम्नाय है और मुनियों तथा श्रावकों के आगे महापुराणादि शास्त्रों का व्याख्यान करना धर्मोपदेश है ।
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दिगम्बर जैन श्रावकों एवं विद्वानों को त्यागियों/श्रमणों की समीक्षा का पूर्ण अधिकार है
-आचार्य विद्यानन्द मुनि सामान्यत: यह समझा जाता है कि परिग्रह-त्याग करनेवाले व्यक्ति गृहस्थों के आचरण पर कुछ भी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं; किन्तु गृहस्थ उस त्यागीवर्ग (मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक आदि) के बारे में कुछ भी प्रतिक्रिया नहीं दे सकता है, भले ही वे कैसा ही व्यवहार करते रहें? वह तो मात्र उनकी भक्ति-विनय ही कर सकता है। किन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। आगम के आलोक में यदि हम विचार करें, तो हम पाते हैं कि त्यागीवर्ग को गृहस्थों पर टिप्पणी एवं प्रतिक्रियास्वरूप वचन कहने का कोई अधिकार नहीं है; जबकि गृहस्थों एवं विद्वानों को यदि त्यागीवर्ग शास्त्र की मर्यादा के विरुद्ध या लोकमर्यादा के विरुद्ध आचरण करता है, तो उसकी समीक्षा करने का पूर्ण अधिकार है। क्योंकि उसका सीधा प्रभाव समाज पर पड़ता है। इतर समाज, प्रशासन एवं युवापीढ़ी की प्रतिक्रियाओं को समाज को सहना पड़ता है; इसीलिए समाज के जिम्मेदार गृहस्थजन एवं विद्वान् त्यागीवर्ग को ऐसे किसी भी आचरण के लिए मर्यादापूर्वक स्पष्ट निवेदन भी कर सकता है और आवश्यकतानुसार अपनी प्रतिक्रिया भी दे सकता है।
यहाँ यह प्रश्न संभव है कि यदि गृहस्थों एवं विद्वानों को यह अधिकार है, तो त्यागीवर्ग को क्यों नहीं है? – इसका उत्तर यही है कि त्यागीवर्ग शांतभाव से गृहस्थों को सन्मार्ग का उपदेश दे सकते हैं, उन्हें आत्महितकारी वचनामृतों से तृप्त कर सकते हैं; किन्तु उनके किसी भी कषाययुक्त-वचन या कार्य पर अपनी प्रतिक्रिया नहीं दे सकते हैं। क्योंकि आर्ष-वचन है- “यस्मिन् वाच: प्रविशन्ति कूपे प्राप्ता: शिला इव।
न वक्तार पुनर्यान्ति स कैवल्याश्रमे वसेत् ।।" अर्थ: जो अपने प्रति कहे गये कठोर दुर्वचनों को अथवा प्रशंसायुक्त वचनों को सुनकर खेद या हर्ष व्यक्त नहीं करते हैं। जैसेकि गहरे कुयें में फेंका गया पत्थर लौटकर वापस नहीं आता है; इसीप्रकार जो वक्ता की अच्छी या बुरी (प्रशंसा या निंदा) की वाणी पर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं देते हैं; उन्हें ही मोक्षपथ के पथिक या कैवल्य-आश्रम में रहने के अधिकारी 'मुनि' कहा गया है।
वस्तुत: जो दिगम्बर जैन-संघों की शास्त्रोक्त व्यवस्था रही है, आज हमारा त्यागीवर्ग उससे अनभिज्ञ होता जा रहा है। आगम-ग्रन्थों के अनुसार पहिले मुनिसंघ में अनेक कार्यों के एवं अनेक विषयों के विशेषज्ञ अलग-अलग व्यक्ति होते थे; जो अपनी विशेषता के कारण संघ को निरापदरूप से धर्मप्रभावना एवं आत्मसाधना के मार्ग पर अग्रसरित रखते
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थे। इनमें से कुछ का परिचय यहाँ विचारार्थ प्रस्तुत है
1. प्रवर्तकाचार्य:-प्रत्येक संघ में प्रमुख आचार्य के अतिरिक्त एक 'प्रवर्तक-आचार्य' भी होते थे, जो दैवसिक क्रियाओं एवं व्यवस्थाओं के विशेषज्ञ होते थे। इनके बारे में कहा गया है—“संघ प्रवर्तयतीति प्रवर्तक:” – (मूलाचारवृत्ति, 4/155)। ये प्रवर्तकाचार्य दिन में संघ का संचालन करते थे। __2. प्रज्ञाश्रमण:-सूर्यास्त के उपरान्त रात्रिकालीन क्रियाओं एवं व्यवस्थाओं के विशेषज्ञ श्रमण को 'प्रज्ञाश्रमण' कहा जाता था। पंडितप्रवर आशाधर-विरचित 'अनगारधर्मामृत' (4/268) के अनुसार ये सूर्यास्त होने से सूर्योदय होने तक संघ की समस्त क्रियाओं के दिशानिर्देशक होते थे। इनके निर्देश के विरुद्ध कोई भी रात्रिकालीन क्रिया 'संघ' में नहीं होती थी।
3. सांवत्सरिक क्षपणक:-ये ज्योतिष, सामुद्रिक, खगोल, भूगोल, पर्यावरण आदि विद्याओं के विशेषज्ञ होते थे तथा विभिन्न लक्षणों एवं नक्षत्रगणना, मुहूर्त-विचार आदि के द्वारा यह बतलाते थे कि किस दिशा में, कब 'संघ' का निवास, विहार आदि होना चाहिये। कहाँ दुर्भिक्ष, महामारी, प्राकृतिक आपदा (बाढ़, सूखा, भूस्खलन, उल्कापात, विद्युत्पात, अग्निकांड, हिमपात, अतिवृष्टि आदि) या राजकीय प्रकोप आदि की संभावना है? – उसे ये अपनी प्रति के द्वारा प्रामाणिकरूप से जानकर उस देश में संघ को जाने से रोकते एवं अनुकूल देश-काल में विहार करने का निर्देश देते थे। इससे संघ भी निरापद रहता था तथा धर्म की प्रभावना भी भरपूर होती थी। ये इस बारे में सीधे आचार्य (संघपति) को सलाह देते थे।
4. उपाध्याय:- इन्हें 'अध्यापक', 'शिक्षक' आदि संज्ञायें भी दी गयी हैं। पंच परमेष्ठियों में इन्हें चौथे क्रम में स्मरण किया जाता है। मुनिसंघ में ये नवदीक्षितों एवं दीक्षार्थियों को विधिवत् शिक्षण/प्रशिक्षण देते हैं। इनके प्रशिक्षण के परिणामस्वरूप ही संघ में आचार-व्यवस्था शास्त्रसम्मत बनी रहती है। तथा स्वाध्याय' रूपी परम तप की साधना इन्हीं के योगदान के फलस्वरूप होती है। ज्ञानाराधना एवं तप:साधना की उत्कृष्ण परम्परा एवं धर्मध्यान के संस्कार की नियमितता संघ में प्रमुखत: इन्हीं की देन होती है। आज मुनिसंघों में इनकी प्राय: अनुपस्थिति होने से दीक्षा' तो हो जाती है, किंतु 'शिक्षा' के अभाव में न तो तत्त्वज्ञान होता है और न ही आचार-व्यवस्था की बारीकियाँ पता होती हैं। यहाँ तक कि 'प्रतिक्रमण' नित्य करते हुये भी उसका ठीक अर्थ एवं मूल-शुद्ध प्रक्रिया का भी बोध प्राय: श्रमणों को नहीं है। इसीलिए वे कभी जलूसबाजी, कभी नारेबाजी, कभी प्रतियोगितायें एवं बच्चों के कार्यक्रम कराने जैसे कार्यों में समय बिताते हैं। तत्त्वाभ्यास के अभाव में सूक्ष्म चिंतन भी हो नहीं पाता है तथा क्रिया की शुद्ध विधि एवं उसका वास्तविक अर्थ भी पता न होने से मात्र रूढ़ि से ही क्रियायें हो रहीं हैं। आध्यात्मिक चेतना तो
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लुप्तप्राय: है। मात्र क्रियाकाण्ड तक सीमित रह जाने का तथा दिशाविहीन श्रामण्य येन-केन-प्रकारेण निभाने की विवशता का मूल कारण संघ में विधिवत् उपाध्याय' की उपस्थिति न होना ही है। पहिले इनके कारण श्रमणों को ज्ञानाराधना से फुर्सत ही नहीं होती थी। ये भाषा, आगम, लोक एवं शिक्षापद्धति के अधिकारी विद्वान् होते हैं।
5. मनोज्ञ मुनि:-जो वाणी के प्रयोग के असाधारण विशेषज्ञ होते थे, अर्थात् कब, कहाँ, कैसे वचन, कितनी मर्यादा में बोलने हैं - यह सब जो भलीभाँति जानते थे एवं तदनुसारी ही प्रयोग करते थे; उन्हें मनोज्ञ मुनि' कहा जाता था। किसी भी परिस्थिति-विशेष में या सामान्यजन को संबोधित करने का दायित्व इन्हीं का होता था। इनका निर्धारण भी आचार्य 'संघ' की सुरक्षा एवं व्यापक धर्मप्रभावना के निमित्त ही करते थे। क्योंकि
"पूयावयणं हिदभासणं मिदभासणं च महुरं च।
सुत्ताणुवीचिवयणं अणिठुरमकक्कसं वयणं ।।" - (मूलाचार, 377) अर्थ:-पूज्यवचन, हितवचन, मितवचन, मधुरवचन, सूत्रानुसारी अनुवीचिवचन, निष्ठुरता और कर्कशता से रहित वचन बोलना ही महामुनियों को शोभा देता है। यह उनकी वाचिक विनय' है।
इसीलिए वाग्व्यवहार के लिए संघ में 'मनोज्ञ मुनि' ही विशेषत: अधिकृत होते थे। मैं अपने जीवन के कुछ प्रसंगों को मात्र चिंतनार्थ यहाँ प्रस्तुत करना चाहता हूँ।
प्रसंग 1- सन् 1952 में जब क्षुल्लक अवस्था में कारकल (कर्नाटक) में था, तब प्रसिद्ध विद्वान् जी० ब्रह्मप्पा आये उन्होंने मुझे एवं सार्वजनिक प्रवचन करने का निवेदन किया। मैं चूँकि तब विशुद्ध ज्ञानाभ्यास के ध्येय से प्रवर्तित था, अत: मैंने विनम्र शब्दों में असमर्थता प्रकट कर दी। तब वे बोले “कि क्या मात्र पेट भरने के लिए ही घर-संसार छोड़ा है और त्यागधर्म अंगीकार किया है?" -मैंने शांतिपूर्वक उनकी बात सुनी तथा अपने लक्ष्य एवं परिस्थिति का विचार करते हुये मौनभाव से स्वाध्याय में निरत हो गया।
प्रसंग 2- मुनिदीक्षा के बाद सन् 1963 में दिल्ली में धर्मानुरागी श्री परसादीलाल पाटनी ने भी समाज में प्रवचन करने के लिए मुझसे अनुरोध किया, तथा मैंने अपनी स्थिति विचार करके असमर्थता व्यक्त की, तो वे भी बोले कि "क्या आप मात्र रोटी के लिए ही नग्न हुये हैं, गूंगे है। समाज के प्रति कोई दायित्व नहीं है?" तब भी मैंने शास्त्र की मर्यादा विचारते हुये सहज शांत-भाव से उनके कठोरवचनों की उपेक्षा कर दी तथा कोई प्रतिक्रिया का विकल्प तक नहीं आया।
प्रसंग 3–सन् 1964 ई० में राजस्थान की राजधानी जयपुर नगर में प्रथम चातुर्मास हुआ। वहाँ मैं अपने गुरु पूज्य आचार्य देशभूषण जी के साथ था। वहाँ पर मैं धर्मानुरागी विद्वान् पं० चैनसुखदास जी के अनुरोध पर आदर्शनगर-स्थित मुल्तानी-समाज के मंदिर में प्रवचन किया एवं इसी समाज के एक व्यक्ति के घर विधिपूर्वक आहार लिया।
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चूँकि उस समय के पुरातनपंथियों ने मुल्तानी-समाज की एक तरह से उपेक्षा कर रखी थी, अत: मेरे इस कदम की समाज में तीव्र प्रतिक्रिया हुई तथा उन लोगों ने कहा कि “हम इन्हें पुराने शहर में प्रवेश नहीं करने देंगे एवं इनके पीछी-कमण्डलु छीन लेंगे।" हमारे गुरु महाराज (आचार्य देशभूषण जी) ने भी स्थानीय समाज के अतिविरोध के कारण मेरे ऊपर संघ में आने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। तब मैंने सहज शांतभाव से पं० चैनसुखदास जी के निवेदन पर पं० टोडरमल जी वाले मंदिर में चातुर्मास किया। इस सब घटनाक्रम से धर्मानुरागी विद्वान् पं० इन्द्रलाल शास्त्री भी बहुत दुःखी हुये एवं उन्होंने मुझसे कहा कि “महाराज जी ! आप इन बातों की परवाह न करें एवं अपनी धर्मप्रभावना जारी रखें। जनता में आपके प्रवचनों का बहुत प्रभाव हो रहा है।" तब मैंने उनके प्रशंसावचनों को भी समताभाव से सुना और स्वाध्याय में लीन हो गया।
न केवल मेरे साथ, अपितु अन्य धर्मात्मा महापुरुषों के साथ भी ऐसे अनेकों प्रसंग बने हैं; जिनमें उन्होंने असाधारण धैर्य, साम्यभाव एवं गंभीरता का परिचय दिया है। उनमें से दो प्रसंग यहाँ प्रस्तुत करता हूँ-परमपूज्य आचार्य शांतिसागर जी से जब कुछ इतरसमाज के लोगों के जिनमन्दिर प्रवेश का मुद्दा आया तथा आचार्यश्री ने यथानाम मुद्रा में शास्त्रोक्त रीति से समाधान दिया; तो एक सज्जन क्रोध से आगबबूला हो गये और बोले कि “इन्हें तो गोली मार देनी चाहिये।" पूज्य आचार्यश्री ने सदा की भाँति शांतभाव व निश्छल स्मित-हास्यपूर्वक उन्हें भी “सद्धर्मवृद्धि” का मंगल आशीर्वाद दिया। ___ महान् धर्मप्रभावक एवं शिक्षाप्रसारक क्षुल्लक गणेश प्रसाद जी वर्णी जब दिल्ली में आये हुये थे तथा अपनी उदारवादी विचारधारा से उन्होंने कुछ कहा; तो एक परम्परावादी मुंबई निवासी श्री निरजनलाल जैन ने उन्हें पीछी-कमण्डलु छीन लेने की धमकी दी। तो वे अत्यन्त सरल निश्छल मुस्कानपूर्वक शांतभाव से बोले कि “भैया ! मेरे पीछी-कमण्डलु तो तुम भले ही छीन सकते हो, परन्तु मेरे हृदय में अरिहंत परमात्मा व वीतराग जैनधर्म के प्रति अनन्य श्रद्धा है, वह क्या तुम छीन सकते हो? मेरा संबल ये पीछीकमण्डलु नहीं हैं, अपितु वह श्रद्धा है।"
आज के इस विषम वातावरण में तो सज्जनों एवं साधुवृत्ति अपरिग्रही अहिंसकजनों का तो जगत्, अकारण ही बैरी बना हुआ है। कहा भी है “निष्कारणं वैरिणो जगति।" इसे लौकिक दृष्टान्तपूर्वक आचार्य गुणभद्र ने इसप्रकार समझाया है
“भीतमूर्तिर्गतत्राणा निर्दोषा देहवित्तकाः।
दन्तलग्न-तृणा जन्ति मृगीरन्येषु का कथा?" – (आत्मानुशासन, 29) अर्थ:-जिन हिरणियों का शरीर सदा भय से काँपता रहता है, जिनका वन में कोई रक्षक नहीं है, जो किसी के प्रति अपराध (अनिष्ट) भी नहीं करती हैं, जिनके पास एकमात्र अपने शरीर को छोड़कर दूसरा कोई परिग्रह नहीं है तथा जो अपने दाँतों में
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तिनका लिये है (लोक में दाँतों में तिनका लेकर आना अहिंसकरूप से शरणागत होने का प्रतीक माना जाता है।)-ऐसी हरिणियों का भी घात करने में जब हिंसक लोग नहीं चूकते हैं, तो फिर दूसरे (सापराध) प्राणियों के विषय में क्या कहा जा सकता है?
आज आवश्यकता है कि हम शास्त्र को एवं लोक को दोनों को जानकर अपने पद की मर्यादा के अनुकूल आचरण करें; ताकि धर्म की प्रभावना तो हो, किन्तु किसी भी रूप में वाद-विवाद आदि के निमित्त हम न बनें।
ततः किम्? दत्तं पदं शिरसि विद्विषतां तत: किम्? जाता: श्रिय: सकलकामदुधास्तत: किम्? सन्तर्पिता: प्रणयिनो विभवैस्तत: किम्? कल्पस्थितं तनुभृतां तनुभिस्तत: किम्?
-(अमृताशीति, पद्य 77, पृष्ठ 155) अर्थ:-शत्रुओं/विद्वेषियों के मस्तक पर अपना पैर रख दिया (अर्थात् उन्हें पददलित कर दिया), तो इससे क्या? सम्पूर्ण लोगों के अभिलषित हितकारी फल को देनेवाली सम्पत्तियों दी गयीं, तो इससे क्या? प्रकृष्टतर वैभवों से इष्टजन भलीभाँति तृप्त कर दिये गये, तो इससे क्या? संसारियों के शरीर कल्पान्त-स्थिति हो गये, तो इससे क्या? ___अर्थात् ये लौकिक साधारण लोगों के लिए भले ही उपलब्धि के रूप में लगें, किन्तु आध्यात्मिक सज्जनों पर इन बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वे इन सबको तुच्छ ही जानते हैं। यदि ये कार्य किसी को उपलब्धिरूप प्रतीत हों, तो समझना चाहिए कि वह सामान्य मोही संसारी प्राणी है, आध्यात्मिक उन्नति एवं तत्त्वज्ञान के धरातल पर अभी अपने पदन्यास भी नहीं किया है।
उदासीनता 'हांसी में विषाद बसे, विद्या में विवाद बसे, काया में मरन, गुरु वर्तन में हीनता। शुचि में गिलानी बसे, प्रापति में हानि बसे, जैसे हारि सुन्दरदशा में छवि-हीनता।। रोग बसे भोग में, संयोग में वियोग बसे, गुण में गरब बसे, सेवामाँहि हीनता। और जगरीति जेती गर्भित असाता सेती, साता की सहेली है अकेली उदासीनता।।'
-(समयसार नाटक 11) . अर्थ:-हास-परिहास में विषाद का निवास है, विद्या में विवाद का भय है, काय में मृत्यु भीति है, गुरुता में लघुता से भय है, पवित्रता में पवित्रता नष्ट न हो कहीं—यह ग्लानि बसी हुई है, प्राप्ति में हानि की आशंका है, जय में पराजय का भय है, सौन्दर्य में उसके क्षीण होने का दुःख बसा है, भोगों में रोग बसे हैं, संयोग में वियोग की अन्तर्ध्वनि है, गुणों में गर्व का निवास है और सेवा में हीनता का बोध होता रहता है। इसप्रकार जितनी संसार की रीतियां हैं, वे असाता (दु:ख) से गर्भित हैं, सुखों की सखी तो एकमात्र उदासीनवृत्ति, वैराग्यचर्या है।
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‘णमोकार मंत्र' में लोए' एवं 'सव्व' पदों की विशेषता
-मुनिश्री कनकोज्ज्वलनन्दि ‘णमोकार महामंत्र' का जैनसमाज के प्रत्येक व्यक्तित्व से जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त अविरल सम्बन्ध रहता है। बच्चा जब जन्म लेता है, तो हम उसके कानों में सर्वप्रथम 'णमोकार मंत्र' ही सुनाते हैं तथा जब अन्त समय आता है, तब भी णमोकार मंत्र' ही कान में सुनाते हैं। इसके अतिरिक्त प्रतिदिन देवदर्शन, सामायिक आदि धार्मिक क्रियाओं में, सुबह उठते समय एवं रात्रि में सोते समय प्रत्येक श्रावक-श्राविका, आबालवृद्ध इसका स्मरण व जप करते हैं। यही नहीं, यह महामंत्र किसी भी अवस्था में जपने योग्य, सुनाने योग्य माना गया है, इसीलिए कहा जाता है
"अपवित्र: पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा।
य: स्मरेत् परमात्मानं स बाह्याभ्यन्तरे शुचि: ।।" संभवत: इसीलिए मरणासन्न कुत्ते को जीवंधर स्वामी ने णमोकार मंत्र' सुनाया, अंजनचोर ने भी इसका जाप किया और भी अनेकों वृत्तान्त इसके माहात्म्य से भरे पड़े हैं।
यह महामंत्र वैसे तो अनादिनिधन महामंत्र माना जाता है, किन्तु वर्तमान परम्परा में इसे 'छक्खंडागमसुत्त' (षट्खण्डागमसूत्र) के आदिप्रणेता आचार्य पुष्पदन्त के द्वारा निर्मित माना जाता है। इसकी पुष्टि स्वयं धवलाकार आचार्य वीरसेन स्वामी ने 'निबद्ध मंगल' कहकर की है।
इस महामंत्र अरिहंत आदि पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है। इसका मूल शुद्धपाठ निम्नानुसार है
"णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं ।।" इसमें चार परमेष्ठियों के पदों के साथ तो नमस्कारवाची णमो' पद का ही प्रयोग हुआ है, किन्तु पंचम परमेष्ठी वाचक साहूणं' पद के साथ णमो' के अतिरिक्त लोए' एवं 'सव्व' पदों का भी प्रयोग हुआ है।
धवलाकार आचार्य वीरसेन स्वामी इनके बारे में लिखते हैं
"सर्वनमस्कारेष्वत्रतनसर्वलोकशब्दावन्तदीपकत्वादध्याहर्तव्यौ सकलक्षेत्रगतत्रिकालगोचररार्हदादि-देवताप्रणमनार्थम् ।”
अर्थ:-इस पंचपरमेष्ठी नमस्कार मंत्र में जो 'सर्व' और 'लोक' ('सव्व' और 'लोए') पद हैं, वे 'अन्तदीपक' हैं; अत: सम्पूर्ण क्षेत्रों में रहनेवाले त्रिकालवर्ती अरिहंत आदि परमेष्ठियों को नमस्कार करने के लिए उन्हें प्रत्येक नमस्करात्मक पद के साथ (णमो लोए सव्व अरिहंताणं, णमो लोए सव्व सिद्धाणं....इत्यादि प्रकार से) जोड़ लेना
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चाहिये।
इसमें आगत सव्व' पद की 'साहूणं' पद के साथ विशेष सार्थकता प्रमाणित करने के लिए 'मूलाराधना' में लिखा है
“णिव्वाणसाहगे जोगे सदा जुंजंति साहवो।
समा सब्वेसु भूदेसु तम्हा ते सव्वसाहवो।।" – (गाथा 512) अर्थ:-निर्वाण (मोक्ष) के साधनाभूत मूलगुणों आदि में सर्वकाल अपने आत्मा को जोड़ते हैं और सभी जीवों में समभाव को प्राप्त होते हैं, इसलिए वे ‘सर्वसाधु' (सव्वसाहू) कहलाते हैं।
समता ही आनन्द की क्रीडास्थली है 'समामृतानन्दभरेण पीडिते, भवन्मन: कुड्मलके स्फुटयत्यति । विगाह्य लीलामुदियाय केवलं, स्फटैक विश्वोदरदीपकार्चिषः ।।'
-(आचार्य अमृतचन्द्र, लघुतत्त्वस्फोट, 11, पृष्ठ 51) अर्थ:-(समतामृतभरेण) समतारूपी अमृतजन्य आनंद के भार से (पीडिते) पीडित-युक्त (भवन्मन- कुड्मलके स्फुटयत्यति) आपके मनरूपी कुड्मल-कलीके सर्वथा विकसित हो जाने पर (लीलां विगाह्य) अनन्त आनंद की क्रीडा में प्रवेश करके (स्फुटैक विश्वोदर-दीपकार्चिष: केवलं उदियाय) समस्त विश्व के उदर को स्फुट रूप से प्रकट करनेवाले दीपक की ज्योतिस्वरूप को आपको केवलज्ञान प्रकट हुआ। ____तात्पर्य उसका यही है कि जब समतारूपी अमृत का आनंद आपकी आत्मा में भर गया तब समस्त विश्व को प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान आपको प्राप्त हुआ यही आपकी लीला-क्रीडा (धर्मक्रीडा) है।
वक्ता के गुण 'नानोपाख्यानकुशलो नानाभाषाविशारदः, नाना शास्त्रकलामिज्ञ:स भवेत् कथकाग्रणी। नांगुली-भंजनं कुर्यान्न ध्रुवौ नर्तयेद् ब्रुवन्, नाधिक्षिपेन च हसेन्नात्युच्चैर्न शनैर्वदत् ।।'
-(महापुराण, प्रथम 130/31) अर्थ:-जो नाना प्रकार के उदाहरण द्वारा वस्तुस्वरूप कहने में कुशल है, प्राकृत संस्कृत, अपभ्रंश, अपभ्रंश, प्रादेशिक, हिन्दी आदि भाषाओं में विशारद है एवं अनेक शास्त्र तथा कलाओं में अभिज्ञ है, वह प्रवक्ताओं में अग्रणी होता है। वक्ता को अंगुलियाँ नहीं बजानी चाहिए, बोलते समय भौंहों को नहीं नचाना चाहिए, किसी पर आक्षेप नहीं करना चाहिए, हँसना नहीं चाहिए तथा अति ऊँचा अथवा अति नीचा (धीरे) नहीं बोलना चाहिए। **
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गृहस्थों को भी धर्मोपदेश का अधिकार
-स्व० पं० माणिकचंद्र कौन्देय, न्यायाचार्य गृहस्थ पण्डित भी उपदेश दे सकते हैं। सबका स्रोत सर्वज्ञोक्त से है। उद्भट आचार्यों के बनाये हुये समयसार, कषायप्राभृत, तत्त्वार्थसूत्र, गोम्मटसार, राजवार्तिक आदि महान् ग्रन्थ हैं ही, इनकी यानी धनंजयकवि, विद्वद्वर्य आशाधरजी, टोडरमलजी आदि के बनाये गये द्विसंधान-काव्य, विषापहार स्तोत्र, धर्मामृत, प्रतिष्ठापाठ, मोक्षमार्गप्रकाशक आदि ग्रन्थ भी श्लाघनीय हो रहे हैं। पंचाध्यायी, चारित्रसार, चर्चा-समाधान, चर्चा-शतक, धर्म-प्रश्नोत्तर, मेधावी श्रावकाचार, ज्ञानानन्द श्रावकाचार, दो क्रियाकोश को भी गृहस्थों ने रचा है। जयपुर के विद्वानों ने गोम्मटसार, त्रिलोकसार, सर्वार्थसिद्धि, प्रमेरत्नमाला आदि की प्रामाणिक भाषा-टीकायें लिखी हैं। मुझ छोटे-से गृहस्थ ने भी 'श्लोकवार्तिक' नामक न्यायसिद्धान्त ग्रन्थ की एक लाख तीस हजार श्लोक प्रमाण भाषाटीका लिखी है। श्री देव-शास्त्र-गुरु के प्रसाद से यह शुभोपयोग का कार्य पन्द्रह वर्षों में सम्पन्न हुआ है। ___ तथा अन्य विद्वानों, यथा-पण्डित बनारसीदास जी, भूधरदासजी, द्यानतराय जी, भागचन्द्र जी प्रभृति श्रावक-विद्वानों के बनाये हुये पुराण, भाषापाठ, पूजन, पद्य, विनतियों का संग्रह आदरणीय हो रहे हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि व्यवहार-श्रावक श्रेणिक जी का तो एक चरित्र-ग्रन्थ ही शास्त्रगद्दी पर पढ़ा जाता है। ऐसे सीताचरित्र, रविव्रतकथा, सुगन्धदशमीव्रत-कथायें भी शास्त्र-सभा में वांची जाती हैं। कषायभाव मन्द होय, विशुद्ध-प्रतिभा होय, जिनशासन-प्रभावना का उत्कट-भाव हो; तो संस्कृत, प्राकृत, देशभाषा के ग्रंथों को कोई भी मूल या टीका, स्तुति आदि रूप से लिख सकता है। ऐसे कार्य में लौकिक आराम और तन-धन की चिन्तायें छोड़नी पड़ती हैं। ___ महापण्डित गोपालदास जी बरैया, त्यागी, (पू० आचार्य शांतिसागर दीक्षित) मुनि कुन्थुसागर जी, उदासीन दुलीचन्द्र जी आदि की लेखावलि जैन-जनता के स्वाध्याय में आ रही हैं। सबका साक्षात् परम्परा-सम्बन्ध श्री महावीर भगवान् से है। जैसे कि बिजली की छोटी सी बत्ती कहीं चमक रही होय, उसका सम्बन्ध बड़े बिजलीघर (पावर हाउस) से है ;इसीप्रकार भले ही मध्य में कई लपेट, वेशभूषा पहिन लिये जायें; तद्वत् उक्त प्रमेयों का सम्बन्ध वीरोद्भव द्वादशांग वाणी से जुड़ा रहा है। अप्रामाणिक वाक्यावलि की चर्चा पृथक् है, सर्वत्र आभास पाये जाते हैं। ___ आज भी अनेक गृहस्थ पण्डित उपदेश देते हैं; सभा में कतिपय मुनि, ऐलक, क्षुल्लक, व्रती, त्यागी उदासी श्रावक समझदार श्रोता उपयोग लगाकर सविनय जिनवाणी को सुनते हैं। बाहर वेष के बिना भी अनेक आत्माओं में पवित्रत्व घुस रहा है, जैसे कि सातवें नरक में आठ अन्तर्मुहूर्त तेंतीस सागर तक सम्यग्दर्शन चमकता रह सकता है तथा द्रव्यलिंगी या
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नव ग्रैवेयक में वहिर्वेषी के मिथ्यात्वोदय विद्यमान है। 'भरत नृप घर ही में वैरागी' अन्य भी गृहस्थ विद्वानों की अनेक अमर कृतियाँ हैं। तीर्थंकर-जन्म, मुनिदान, मन्दिर चैत्यालय बनवाना, उत्सव प्रतिष्ठा कराना, संघ निकालना, विद्यालय चलाना आदि कार्यों को गृहस्थ ही कर सकता है। पाँचवें से छठे-सातवें गुणस्थान का मात्र सवाया-ड्योढ़ा अन्तर है। सम्यक्त्व से गुणकार लगाना, नीचे तो शून्य है।
-(साभार उद्धृत, 'धर्म-फल सिद्धान्त', पृष्ठ 199-201)
आत्मज्ञान से निर्वाण-प्राप्ति एष सर्वेषु भूतेषु गूढात्मा न प्रकाशते। दृश्यते त्वया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिमिः ।।
-(कठोपनिषद्, 1, 3, 12) हन्त तेऽहम् प्रवक्ष्यामि गुह्यं सनातनम् । यथा च मरणं प्राप्य आत्मा भवति गौतम।। योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः । सौणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम् ।।
–(कठोपनिषद्, 2, 2, 6-7) अर्थ: अर्थात् प्राणिमात्र में एक अनादि अनन्त सजीव तत्त्व है, जो भौतिक न होने के कारण दिखाई नहीं देता; वही आत्मा है। मरने के पश्चात् यह आत्मा अपने कर्म व ज्ञान की अवस्थानुसार वृक्षों से लेकर संसार की नाना जीव-योनियों में भटकता फिरता है, जब तक कि अपने सर्वोत्कृष्ट चरित्र और ज्ञान द्वारा निर्वाण पद' प्राप्त नहीं कर लेता। 'उपनिषत्' में जो यह उपदेश गौतम को नाम लेकर सुनाया गया है, वह हमें जैनधर्म के अन्तिम तीर्थंकर महावीर के उन उपदेशों का स्मरण कराये बिना नहीं रहता, जो उन्होंने अपने प्रधान शिष्य इन्द्रभूति गौतम' को गौतम नाम से ही संबोधित करके सुनाये थे, और जिन्हें उन्हीं गौतम ने बारह अंगों में निबद्ध किया, जो प्राचीनतम जैन- साहित्य है और 'द्वादशांग आगम' या जैन श्रुतांग' के नाम से प्रचलित पाया जाता है।
-(साभार उद्धृत : डॉ० हीरालाल जैन कृत 'भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान' पृष्ठ 50-51) **
'भिक्षुरेकः सुखी लोके 'वासो बहूनां कलहो, भवेद् वार्ताद्वयोरपि । एक एव चरेत्तस्मात्, कुमार्या इव कंकणम् ।।' ____ अर्थ:-बहुत लोग एक साथ रहते हैं, तो कलह निर्माण होता है और दो रहते हैं, तो वार्तालाप होता है। अत: सन्यासी को एकाकी-एकांत में ही रहना चाहिए; जैसे-कुमारी | कन्या के हाथ का (एक) ही कंकण होता है।
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एकः शरणं शुद्धोपयोगः
-डॉ० सुदीप जैन आचार्य कुन्दकुन्द-प्रणीत ‘पवयणसारो' ग्रन्थ की टीका में जब आचार्य अमृतचन्द्र सूरि यह निर्देश देते हैं कि “एक: शरणं शुद्धोपयोग:"; तो यह वाक्य न केवल आध्यात्मिक चेतना का संवाहक बनता है, अपितु युगीन परिदृश्य को भी अत्यन्त विशदरूप में संकेतित कर देता है। वस्तुत: यह तो कुन्दकुन्दाचार्य के अभिप्राय की स्पष्ट व्याख्यामात्र है; अत: इससे स्पष्ट विदित होता है कि अंतिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु के उपरान्त जब जैनसंघ प्राय: बिखर रहा था तथा जैनश्रमण केवल बाह्याचार में उलझकर रह गये थे; तब आचार्य कुन्दकुन्द ने 'समयसार' जैसे ग्रन्थों की रचना करके उनमें तथा सम्पूर्ण जिनधर्मानुयायियों में आध्यात्मिक चेतना का संचार किया। उन्होंने स्पष्टरूप से कहा कि केवल बाह्य क्रियाकाण्ड से आत्मा का कल्याण संभव नहीं है, अपितु शुद्धात्मानुभूति ही वास्तविक मोक्षमार्ग है।
वस्तुत: यही उनका सच्चा' आचार्यत्व' था। ‘चारित्रसार' में आचार्य का स्वरूप स्पष्ट करते हुये लिखा है- "भव्या आत्महितार्थमाचरन्ति यस्मात स आचार्य:।
अर्थ:-जो भव्यजीवों को आत्महित के लिए सन्मार्ग पर आचरण कराते हैं, वे 'आचार्य' हैं। ___ यह उनका बाह्य-स्वरूप है; उनका अन्तरंग-स्वरूप बताते हुये पंडितप्रवर टोडरमल जी लिखते हैं—“बहुरि जे मुख्यपनें तो निर्विकल्प स्वरूपाचरणविर्षे ही निमग्न हैं.....।" ऐसे आचार्यों को 'भगवती आराधना' की टीका में ‘एकदेशसिद्ध' कहा गया है
“आचार्यादयोऽपि किन्नोपात्तास्तेषामप्येकदेशसिद्धास्ति। अर्थ:—आचार्य आदि का ग्रहण क्यों नहीं किया? क्योंकि वे (आचार्यादि) एकदेशसिद्ध' हैं।
वस्तुत: 'शुद्धात्मा' को जानना ही समय' अर्थात् द्वादशांगी जिनवाणी या सम्पूर्ण शास्त्रों का 'सार' है। इसीलिए शुद्धात्मा को जानने वाले उपयोग अर्थात् 'शुद्धोपयोग' को भी 'समयसार'" संज्ञा आचार्यों ने दी है। आचार्य वसुनन्दि लिखते हैं--
___ "समयसारं द्वादशांग-चतुर्दशपूर्वाणां सारं परमतत्त्वम्" अर्थ:-‘समयसार' ही परमतत्त्व है, वह बारह अंगों और चौदह पूर्वो का 'सार' है।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निश्चयरत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग को भी 'समयसार' कहा गया है, तथा उसमें जो जीव को स्थापित करने में समर्थ होता है, वही 'आचार्य' कहा गया है- “णाणम्मि दंसणम्मि य चरणम्मि च तीसु समयसारेसु।
सक्केदि जो ठवे, गणमथाणं गणधरो सो।।"" अर्थ:-जो स्वयं को तथा साधुसंघ को सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र में तथा इन तीनों
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रूप 'समयसार' (शुद्धात्मा) में स्थापित करने में समर्थ होता है, वह 'गण का धारक' अर्थात् 'आचार्य' है।
तथा जो इस शुद्धात्मतत्त्वरूपी 'समयसार' को नहीं जानते हैं, उन्हें आचार्य देवसेन 'अज्ञानी' एवं 'मूढ' उपाधियों से विभूषित करते हैं
___“सो अण्णाणी मूढो, जो ण याणदे समयसारं।" अर्थ:—वह अज्ञानी एवं मूढ़ है, जो समयसार' को नहीं जानता है।
वस्तुत: संसार में सब कुछ सुलभ है, एकमात्र यथार्थज्ञान या शुद्धात्मानुभूति की प्राप्ति दुर्लभ है। इसी तथ्य को रेखांकित करते हुये कविवर भूधरदास जी लिखते हैं
"धन-कन-कंचन-राजसुख, सबहि सुलभ कर जान।
दुर्लभ है संसार में, एक यथारथ ज्ञान ।।" इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए विशेष क्षयोपशम होना भी अपेक्षित नहीं है। महाज्ञानी आचार्य वीरसेन स्वामी लिखते हैं कि- “ऑग्गहेहावाय-धारणाओ।" ___अर्थात् जो अवग्रह-ईहा-अवाय और धारणा रूप सामान्य मतिज्ञान हैं; वही अपने आपको समझने के लिए पर्याप्त है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी इस तथ्य की पुष्टि की है___“ऑग्गह-ईहावाया-धारण-गुणसंपदेहिं संजुत्ता। ... सुत्तत्थभावणाए भावियमाणेहिं वंदामि ।।""
अर्थ:—जो अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा की गुणसंपदा से संयुक्त हैं तथा सूत्र एवं अर्थ की भावना को भाते हैं, उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ।
जरा विचार करें कि मात्र उक्त चार श्रेणियुक्त मतिज्ञान' से संयुक्त शुद्धात्मतत्त्व की भावना करनेवालों को जब कुन्दकुन्द जैसे आचार्य वंदन करने को तैयार हैं, तब शुद्धात्मानुभव के लिए बहुत शास्त्रज्ञान या पाण्डित्यपूर्ण क्षयोपशम की अपेक्षा ही कहाँ रह जाती है? यहाँ प्रसंगवश एक कथन और उद्धृत करना चाहता हूँ। 'पवयणसारो' की 'तात्पर्यवृत्ति' नामक टीका में आचार्य जयसेन लिखते हैं कि
_ “सासादनादि-क्षीणकषायान्ता एकदेशजिना उच्यन्ते।""
अर्थ:-सासादन सम्यक्त्व' नामक द्वितीय गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय' नामक बारहें गुणस्थान-पर्यन्त सभी जीव ‘एकदेशजिन' कहे गये हैं।
इनमें मात्र मिथ्यात्व' गुणस्थान ही छोड़ा गया है, शेष अरिहन्त-अवस्था के पर्ववर्ती समस्त गुणस्थानों में स्थित जीवों को एकदेशजिन' संज्ञा दी गयी है। यह तथ्य बतलाता है कि शुद्धात्मभावना से रहित 'मिथ्यात्व' ही जीव के लिए ऐसा महाघातक तत्त्व है, जिसके रहते जीव निरन्तर घोर कर्मबन्ध करता हुआ संसार में भंयकर दुःख भोगता है। तथा एक शुद्धात्मतत्त्व ही ऐसा महान् पतितपावन तत्त्व है, जिसका आश्रय लेकर पतित भी पावन हो जाता है। इसी शुद्धात्मभावना शुद्धात्मतत्त्व अनुभूति का नाम
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'शुद्धोपयोग' है। इसी को समयसार' भी कहा गया है। यह श्रावकों एवं श्रमणों - दोनों के लिए उपादेय है। इसीलिए इसका प्रतिपादक ग्रंथ (समयसार) भी सभी के लिए उपयोगी है। श्रमण तो विशेषत: शुद्धात्मानुभूति-पारंगत होते हैं; अत: उनसे भी अधिक उसकी शिक्षा एवं प्रेरणा श्रावकों को अपेक्षिति होने से आचार्य कुन्दकुन्द ने विशेषत: शुद्धोपयोग की प्राप्ति में सहायक ग्रंथ 'समयसार' की रचना श्रावकों की मुख्यता से की है। शुद्धोपयोग-पारंगत श्रमणों को तो इसका स्वान्तःसुखाय उपादेयता है ही। इस तथ्य को आचार्य कुन्दकुन्द ने स्वयं 'समयसार' में संकेतित किया है
"पासंडियलिंगाणि य गिहिलिंगाणि य बहुप्पयाराणि।" – (गाथा 408) “ण वि एस मोक्खमग्गो पासंडिय गिहिमयाणि लिंगाणि।" – (गाथा 410) "तम्हा जहित्तु लिंगे सागारणगारिये हि वा गहिदे।। दंसण-णाण-चरित्ते अप्पाणं मुंज मोक्खपहे ।।" – (गाथा 411) "पासंडियलिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु।
कुव्वंति जे ममत्तं तेहि ण णादं समयसारं ।।" – (गाथा 413)
इन गाथासूत्रों में 'गृहस्थ' एवं 'सागार' का 'पासंडी' (साधु) एवं 'अनगार' पदों के साथ प्रयोग बताता है कि 'समयसार' की रचना के समय कुन्दकुन्द की दृष्टि में गृहस्थ और साधु —दोनों थे तथा उन्होंने बिना किसी भेदभाव के दोनों को गृहस्थपने एवं साधुपने के अहं से मुक्त कर समयसार' (शुद्धात्मतत्त्व) समझाया है। यह तथ्य गंभीरतापूर्वक मननीय है। ___ शुद्धात्मतत्त्व की प्राप्ति 'शुद्धोपयोग' की अवस्था में ही होती है तथा यही संवर-निर्जरा एवं मोक्ष का साधन है —ऐसा अनेकत्र बतलाया गया है
"सुद्धेण लहदि सिद्धिं एवं लोयं विचिंतिज्जो।.... सुद्धवजोगेण पुणो धम्मं सुक्कं च होदि जीवस्स ।
तम्हा संवरहेद् झाणोत्ति विचिंतये णिच्चं ।।12 अर्थात् शुद्धोपयोग से ही जीव सिद्धिलोक को प्राप्त करता है—ऐसा चिंतन करना चाहिए। क्योंकि शुद्धोपयोग से ही जीव को धर्मध्यान और शुक्लध्यान की प्राप्ति होती है, अत: संवर के हेतुभूत इस शुद्धोपयोग का साधन नित्य करना चाहिये । शुद्धोपयोग का फल निरूपित करते हुए आचार्य शुभचन्द्र लिखते हैं
"नि:शेष-क्लेश-निर्मुक्तं स्वभावजमनश्वरम् ।
फलं शुद्धोपयोगस्य ज्ञानराज्यस्य कारणम् ।।"" अर्थ:-जीवों को शुद्धोपयोग का फल समस्त दुःखों से रहित, स्वाभाविक, अविनाशी ज्ञान-साम्राज्य की प्राप्ति होता है।
आचार्य योगीन्द्रदेव ने शुद्धोपयोग को ही सर्वसाधक होने से उसे सबमें प्रधान बताया
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"सुद्धहँ संजुम सीलु तउ सुद्धहँ दंसणु णाणु।
सुद्धहँ कम्मक्खउ हवइ सुद्धउ तेण पहाणु ।।"" अर्थ:-शुद्धोपयोग से ही संयम, शील, दर्शन, ज्ञान की प्राप्ति एवं कर्मक्षय होता है; अत: शुद्धोपयोग ही प्रधान है।
यह शुद्धोपयोग चूँकि आत्मध्यानरूप है, अत: यह सागार (गृहस्थ) एवं अनगार (मुनि) —दोनों को ही मुक्तिसुख का कारण बताया गया है
"सागारु वि णागारुकुवि जो अप्पाणि बसेइ।
सो लहु पावइ सिद्धि-सुहु जिणवरु एम भणेइ।।"15 अर्थ:-साधक व्यक्ति गृहस्थ हो अथवा मुनि हो, जो कोई भी निजात्मा में निवास (आत्मध्यान या शुद्धोपयोग) करता है; वह शीघ्र ही सिद्धिसुख को प्राप्त करता है —ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है।
यहाँ पर ग्रंथकर्ता आचार्य योगीन्द्रदेव ने इस कथन को 'जिनेन्द्र भगवान् का ऐसा कथन है' —ऐसी विशेष प्रामाणिकता प्रदान की है - वह सोद्देश्य है। गृहस्थों एवं मुनियों-दोनों में शुद्धोपयोग हो सकता है - इस तथ्य की पुष्टि उन्होंने यहाँ सर्वज्ञपरमात्मा
के द्वारा करायी है। - आचार्य ब्रह्मदेवसूरि ने तो 'शुद्धोपयोग को ही धर्म' कहा है तथा 'धर्म' के शास्त्रोक्त सभी लक्षणों को इसी में चरितार्थ किया है:- “धर्मशब्देनात्र निश्चयेन जीवस्य शुद्धपरिणाम एव ग्राह्यः। तस्य तु मध्ये वीतरागसर्वज्ञप्रणीतनयविभागेन सर्वे धर्मा अन्तर्भूता लभ्यन्ते। यथा अहिंसालक्षणो धर्म:,सोऽपि जीवशुद्धभावं विना न संभवति । सागारानगारलक्षणो धर्म:,सोऽपि तथैव । उत्तमक्षमादिदशविधो धर्मः,सोऽपि जीवशुद्धभावमपेक्षते। ___ 'सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः' इत्युक्तं यद्धर्मलक्षणं, तदपि तथैव । रागद्वेषमोहरहित: परिणामो धर्मः,सोऽपि जीवशुद्धस्वभाव एव । वस्तुस्वभावो धर्म: सोऽपि तथैव।
.....अत्राह शिष्य: । पूर्वसूत्रे भणित शुद्धोपयोगमध्ये संयमादय: सर्वे गुणा: लभ्यन्ते। अतएव तु भणितमात्मन: शुद्धपरिणाम एव धर्मः, तत्र सर्वे धर्माश्च लभ्यन्ते। को विशेष:?
परिहारमाह। तत्र शुद्धोपयोगसंज्ञा मुख्या, अत्र तु धर्मसंज्ञा मुख्या एतावान् विशेष: । तात्पर्यं तदेव।" __ अर्थ:-यहाँ 'धर्म' शब्द से निश्चय से जीव के शुद्ध परिणाम ग्रहण करने चाहिए। उसमें ही नयविभागरूप से वीतरागसर्वज्ञप्रणीत सर्वधर्म अन्तर्भूत हो जाते हैं। वह ऐसे किअहिंसा-लक्षण धर्म है, सो जीव के शुद्धभाव के बिना सम्भव नहीं। सागार-अनगार
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लक्षणवाला धर्म भी वैसा ही है। उत्तमक्षमादि दशप्रकार के लक्षणवाला धर्म भी जीव के शुद्धभाव की अपेक्षा करता है। रत्नत्रय लक्षणवाला धर्म भी वैसा ही है। राग-द्वेष-मोह के अभावरूप लक्षणवाला धर्म भी जीव का शुद्ध स्वभाव ही बताता है। और वस्तुस्वभाव लक्षणवाला धर्म भी वैसा ही है।
प्रश्न-पहले सूत्र में तो शुद्धोपयोग में सर्वगुण प्राप्त होते हैं, ऐसा बताया गया है। और यहाँ आत्मा के शुद्ध परिणाम को धर्म बताकर उसमें सर्वधर्मों की प्राप्ति कही गयी। इन दोनों में क्या विशेष है? ___ उत्तर—वहाँ शुद्धोपयोग संज्ञा मुख्य थी और यहाँ धर्मसंज्ञा'मुख्य है। इतना ही इन दोनों में विशेष है। तात्पर्य एक ही है।
उक्त विवेचन के अनुसार धर्म की समस्त परिभाषायें, मोक्ष के समस्त साधन एवं समस्त मांगलिक अभ्युदयकारी अनुष्ठान एक शुद्धोपयोग में ही अन्तर्गर्भित हो जाते हैं। इसीलिए इस शुद्धोपयोग की प्राप्ति के बिना न तो श्रावकधर्म वस्तुत: गरिमा प्राप्त करता है और न ही मुनिधर्म । अत: 'श्रावक' हो या 'श्रमण', उन्हें शुद्धोपयोग की ओर विशेष लक्ष्य रखना चाहिये - यही वीतराग मार्ग है। श्रमणचर्या में तो हर अंतरमुहुर्त में शुद्धोपयोग की प्राप्ति यदि न हो, तो छठवें गुणस्थान से सातवें गुणस्थान में जा ही न सकें। तथा श्रमण तो छठवें-सातवें गुणस्थान में ही झूलते हैं। संदर्भग्रंथ-सूची 1. चारित्रसार, पृष्ठ 143। 2. मोक्षमार्ग प्रकाशक, 2/51 3. भगवती आराधना, पृष्ठ 4। 4. द्रव्यसंग्रह टीका, गाथा 55/225। 5. मूलाचार भाष्य, गाथा 891। 6. भगवती आराधना, 2911 7. भावसंग्रह, गाथा 2711 8. बोधिदुर्लभ भावना। 9. धवला, भाग 1, पृष्ठ 24। 10. आयरियभत्ति, गाथा 9। 11. पवयणसारो, गाथा 201 की टीका। 12. बारस अणुवैक्खा , गा० 42 एवं 64 । 13. ज्ञानार्णव, 3/341 14. परमप्पयासु (परमात्मप्रकाश), 2/67। 15. जोयसारु (योगसार), योगीन्द्रदेव, 651 16. द्रष्टव्य, परमात्मप्रकाश टीका, 2/68।
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तीर्थंकर की दिव्यध्वनि की भाषा
-नाथूलाल जैन शास्त्री दिव्यध्वनि और प्राणिमात्र में मैत्री आदि 14 अतिशय तीर्थंकर केवली के देवकृत' बताये हैं। आचार्य कुन्दकुन्ददेवकृत 'दसणपाहुड' गाथा 35 की संस्कृत टीका में केवलज्ञान के चतुर्दश अतिशयों में उक्त दिव्यध्वनि को सर्वार्द्धमागधीभाषा' कहा है। उसके अर्थ में मगधदेव के सन्निधान होने पर तीर्थंकर की वाणी अर्द्धमगधदेश-भाषात्मक एवं अर्द्ध-सर्वभाषात्मक परिणत होती है।
मैत्री के विषय में वही स्पष्टीकरण किया गया है कि समवसरण में सर्व जनसमूह मागध एवं प्रीतंकरदेव-कृत अतिशय के कारण मागधी भाषा में परस्पर बोलते हैं और मित्ररूप में व्यवहार करते हैं। 'तिलोयपण्णत्ती' आदि के अनुसार तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि तालु, दंत, ओष्ठ के हलन-चलन बिना होती है। ___ हम पूजा में पढ़ते हैं—'ओंकार ध्वनि सार द्वादशांगवाणी विमल' । मूल में केवली के समस्त शरीर से 'ओम्' ध्वनि-अनक्षरात्मक शब्द-तरंगरूप सप्रेषण द्वारा बिना इच्छा के मेघगर्जना के समान श्रोताओं के कर्ण में प्रवेश करते समय उनकी योग्यतानुसार उनकी भाषारूप अक्षरात्मक होकर परिवर्तित होती है। इसमें मागधदेवों का सन्निधान रहता है, जैसा कि उक्त दंसणपाहूड' टीका में बताया गया है। साथ ही केवली का अतिशय तो है ही। भाषा के प्रसार में देव सहयोग प्रदान करते रहते हैं।
दिव्यध्वनि तीर्थंकर नामकर्मोदय के कारण कण्ठ-तालु आदि को प्रकंपित किये बिना शब्द-वर्गणाओं के कंपन के साथ ध्वनि होती है, जो पौद्गलिक है। काययोग (वचन) से आकृष्ट पुद्गलस्कंध स्वयं शब्द का आकार लेते हैं, यानि भाषारूप में परिणमन करते हैं। तीर्थंकर की ध्वनि में ऐसी स्वाभाविक शक्ति होती है, जिसमें वह अठारह महाभाषा एवं सात सौ लघुभाषा रूप में परिणत होती है। साथ ही समस्त मनुष्यों, देवों एवं पशु-पक्षियों की संकेतात्मक भाषा में परिवर्तित हो जाती है। -(आदिपुराण, 23/70)
ऊपर जो तीर्थंकर-वाणी को 'अर्द्धमागधी' कहा है, यद्यपि उसमें 'मागध' शब्द का संबंध. देवों से बता दिया गया है। साथ ही मगधदेश के अर्द्धप्रदेश की भाषा का भी उल्लेख किया गया है, जिसमें अठारह देशी भाषाओं का मिश्रण है।
_ 'अट्ठारस देसीभासा णियम वा अद्धमागहम्' अर्थात् अठारह देशी भाषाओं का मिश्रण 'अर्द्धमागधी' है। आचार्य जिनसेन आदि ने इसे 'सर्वभाषात्मक' कहा है। हमारा यहाँ लिखने का अभिप्राय यह है कि 'अर्हत् वचन' पत्रिका के जो कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर से प्रकाशित होती है—जुलाई '98 अंक में एम०डी० वसन्तराज का दिगम्बर जैन आगम के बारे में एक चिन्तन' एक पठनीय लेख प्रकाशित हुआ जो (कन्नड़ भाषा से) हिन्दी अनुवाद है। लेखक
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बहुश्रुत एवं अध्ययनशील है। इसमें पृष्ठ 41 पर लिखा है कि “दिगम्बर परम्परा के आगम को 'शौरसेनी जैनागम' और श्वेताम्बर परम्परा के आगम को 'अर्द्धमागधी' जैनागम नाम हाल ही में कुछ विद्वानों ने दिया है । पर दिगम्बर जैन आम्नाय के विषय में अनर्थकारी प्रभाव करनेवाला है। वास्तव में आगम की भाषा को 'आर्षप्राकृत' अर्थात् 'मुनियों की प्राकृतभाषा' कहकर पुकारा जाता था। महावीर स्वामी के उपदेश की भाषा अर्द्धमागध (प्राकृत) भाषा थी । दिगम्बर और श्वेताम्बर - दोनों पंथवालों ने यह नाम दिया है।”
इस उल्लेख से भ्रम होता है कि मानो लेखक मान रहे हैं कि भगवान् का 'अर्द्धमागधी' में उपदेश हुआ और उसी 'अर्द्धमागधी' में श्वेताम्बर - ग्रंथों का निर्माण हुआ; अत: उनका महत्त्व विशेष है और दिगम्बर - ग्रंथ उससे भिन्न शौरसेनी भाषा में रचे गये; अत: उनका वैसा महत्त्व नहीं रहा। यही इस लेख से अनर्थकारी प्रभाव हो सकता है। इसके अतिरिक्त प्रामाणिकता - अप्रामाणिकता में भी अनर्थ माना जा सकता है। यह लेखक द्वारा चिंता प्रकट करने की भाषा है, आक्षेप की नहीं ।
तीर्थंकर दिव्यध्वनि की भाषा के संबंध में हमने इस लेख के प्रारंभ में स्पष्टीकरण दे दिया है कि 'दिव्यध्वनि सर्वभाषात्मक' है। 'अर्द्धमागधी' नामकरण भी मागध देव के कारण है और मगधदेश का भी संबंध होकर उसके साथ अन्य भाषाओं का मिश्रण है । “सर्वार्धमागधी सर्वभाषासु परिणामिनीम् । सर्वेषां सर्वतो वाचं सार्वज्ञीं प्रणिददमहे । । " — (वाग्भट - काव्यानुशासन, पृष्ठ 2 ) अर्द्धमागधी सर्वभाषाओं के रूप में परिणत होने वाली होने से सबकी भाषा थी, जो सर्वज्ञ के उपदेश की भाषा थी। जिनसेन आचार्य ने भी इसे सर्वभाषात्मक कहा है। 'अर्द्धमागधी' अठारह देशीभाषारूप थी केवल महावीर तीर्थंकर की नहीं, सभी तीर्थंकरों की वाणी थी
“दश अष्ट महाभाषा समेत, लघुभाषा सात- शतक सुचेत । सो स्याद्वादमय सप्तभंग, गणधर गूँथे बारह सु अंग । । "
इसप्रकार भगवान् महावीर के उपदेश को लेकर जो 'अर्द्धमागधी' से विद्वान् लेखक ने दिगम्बरों के लिए अनर्थकारी प्रभाव बताया है, वह सिद्ध नहीं होता । 'धवला' 1/284 में लिखा है कि केवली के वचन इसी भाषारूप ही है, ऐसा निर्देश नहीं किया जा सकता। क्रम-विशिष्ट वर्णात्मक अनेक पंक्तियों के समुच्चयरूप और सर्वश्रोताओं में प्रवृत्त होनेवाली ऐसी केवली की ध्वनि सम्पूर्ण भाषारूप होती है - ऐसा मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। 'भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का इतिहास' ग्रंथ (डॉ० हीरालाल जी) पृष्ठ 51 में महावीर स्वामी से पूर्व का इतिहास बताते हुए लेखक ने लिखा है कि 'द्रव्यश्रुत अर्थात् शब्दात्मकता की दृष्टि से महावीर से पूर्वकालीन कोई जैन साहित्य उपलब्ध नहीं है; किन्तु भावश्रुत की अपेक्षा जैन - श्रुतांगों के भीतर कुछ ऐसी रचनाएँ मानी गई हैं, जो
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महावीर से पूर्व श्रमण-परम्परा में प्रचलित थी, इसलिए उन्हें 'पूर्व' कहा गया है; किन्तु यह पूर्व-साहित्य सुरक्षित नहीं रह सका। ___दिगम्बर-परम्परा के अनुसार ग्यारह अंग का ज्ञान नष्ट हो गया। पूर्व में बहुत कम अवशिष्ट रहा, जो आचार्य धरसेन और आचार्य गुणधर द्वारा प्रचार-प्रसार में आया। वह भी विक्रम-प्रथम शताब्दी के कुछ समय पूर्व से।
वीर-निर्वाण के पश्चात् दशम शती में श्वेताम्बरों द्वारा जो पाटलिपुत्री, माधुरी और वलभी वाचनाओं द्वारा अंगों का संकलन किया गया, उनकी भाषा को 'अर्द्धमागधी' नाम दिया गया और इनसे सदियों पूर्व छक्खंडागम, कसायपाहुड से प्रारंभ कर 'समयसार', 'धवला' आदि की जो दिगम्बर आचार्यों द्वारा रचना हुई, उनकी भाषा को 'शौरसेनी' नाम दिया गया।
आचार्य पूज्यपाद ने 'सर्वार्थसिद्धि' (1, 20) में लिखा है कि आरातीय आचार्यों ने काल दोष से संक्षिप्त आय, मति और बलशाली शिष्यों के अनुग्रहार्थ 'दशवैकालिक' आदि ग्रंथों की रचना की। ये अर्थ की दृष्टि से सूत्र ही है। यहाँ शब्द-रचना को छोड़कर अर्थ की दृष्टि बताई गई है। ग्रंथ-रचना का नियम यह है कि लेखक जब जिस देश में रहता है, वहाँ की प्रचलित भाषा का वह उपयोग करता है; उसके उच्चारण भी उसी प्रकार के होते हैं। श्वेताम्बर-अंगग्रंथों के संबंध में डॉ० हीरालाल जी ने उक्त अपने ग्रंथ के पृष्ठ 71 पर लिखा है कि "श्वेताम्बर आगम-ग्रंथों में प्राक्तन 'अर्द्धमागधी' का स्वरूप नहीं मिलता। भाषा-शास्त्रियों के मतानुसार वर्गों के परिवर्तन की प्रक्रिया, भाषा-सरलीकरण, युगानुसार प्रवृत्तियों के प्रभाव से तथा कालानुसार मौखिक-परम्परा के कारण भिन्नता आती रहती है। इस भिन्नता से भाषा की भिन्नता होने पर उस भाषा के ग्रंथों की शब्द भिन्नता का अनुमान किया जा सकता है। इसी कारण प्राकृत के भी मागधी, अर्द्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्रीय, पैशाची आदि भेद हो गये। और पीछे प्राकृत व्युपत्ति में आचार्य हेमचन्द्र के मतानुसार जिसकी प्रकृति संस्कृत से है उससे आगत प्राकृत है। यहाँ आचार्य का अभिप्राय यह है कि इसके व्याकरण-हेतु संस्कृतरूपों को आदर्श मानकर प्राकृत-शब्दों का अनुशासन किया गया है। संस्कृत की अनुकूलता-हेतु प्रकृति को लेकर प्राकृत के आदेशों की सिद्धि की गई है।" - 'कम्परेटिव ग्रामर', भूमिका पृ० 17 आदि पर हानले ने लिखा है कि श्वेताम्बर आगमों की 'अर्द्धमागधी का रूपगठन 'मागधी' और 'शौरसेनी' से हुआ है। प्राकृतभाषा के दो वर्ग हैं। एक वर्ग में 'शौरसेनी' बोली है और दूसरे में 'मागधी प्राकृत' बोली है। इनके मध्य में एक रेखा उत्तर में खींचने पर खालसी से वैराट, इलाहाबाद और दक्षिण में रामगढ़ से जौगढ़ तक है। इसप्रकार शनैः शनैः ही दोनों प्राकृतें 'मागधी' और 'शौरसेनी' मिलकर तीसरी 'अर्द्धमागधी' बन गई। यही बात ग्रियर्सन ने अपनी पुस्तक
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'सेवन ग्रामर्स ऑफ दी डाइलेक्टर्स' में लिखी है। प्राचीन भारत में 'शौरसेनी' और 'मागधी' दो ही भाषायें थीं। वर्तमान में श्वेताम्बर आगम-साहित्य में जो ग्रंथ 'अर्द्धमागधी' के उपलब्ध है, वह 'अर्द्धमागधी तीर्थंकर महावीर की दिव्यध्वनि की भाषा नहीं है। इसका रूप तो चौथी- पाँचवी शताब्दी में गठित हुआ है। दिव्यध्वनि का भाषात्मकरूप आर्य-अनार्य आदि वर्ग की विभिन्न भाषाओं द्वारा ग्रथित होता है। आचार्यों ने अठारह महाभाषाओं एवं सात सौ लघुभाषाओं का मिश्रण इसमें माना है। भाषा का यह रूप सभी स्तर के प्राणियों को बोध्य है। -(तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा; डॉ० नेमीचन्द शास्त्री, आरा, प्रथम भाग, पृ० 2401)
उक्त प्रमाणों से इस लेख से पाठकों को होने वाली अपनी चिंता दूर कर देना चाहिये। नाम की समानता से वर्तमान 'अर्द्धमागधी' तीर्थंकरों के उपदेश की भाषा नहीं हो सकती।
प्रबुद्ध पाठक जानते ही हैं कि परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज के शुभाशीर्वाद से शौरसेनी प्राकृत की प्राचीनता, प्राकृत में उसकी प्रमुखता, व्याकरण की रचना एवं नई दिल्ली श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ में मानित विश्वविद्यालय में उसकी पाठ्य-पुस्तकों में स्वीकृति और स्वतंत्ररूप से वहाँ कार्य प्रारंभ यह सब दिगम्बर जैनाचार्यों की रचनाओं के महत्त्व को प्रतिपादित करता है। नौ वर्ष से इस शोध संस्थान, प्राकृत भवन दिल्ली से 'प्राकृतविद्या' नामक शोध पत्रिका भी प्रकाशित हो रही है।
विशेष यह है कि मागधी, अपभ्रंश आदि प्राकृत भाषाओं की प्रकृति' शौरसेनी ही है। यह सब आचार्य हेमचन्द्र-कृत 'प्राकृत व्याकरण' से ज्ञात होता है। 'भरत नाट्यशास्त्र' 17/34, पृ0 273 में शौरसेनी को सभी श्रेष्ठ पुरुषों के द्वारा काव्य आदि साहित्यिक रचना में प्रयोग किया जाना चाहिये, -यह प्रेरणा दी गई है। यह सब आचार्यश्री की खोज का परिणाम है।
दिव्यध्वनि दिव्य-अर्थों की वनबकी है 'दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थसर्वभाषास्वभावपरिणामगुणैप्रयोज्याः' - (भक्तामरस्तोत्र, 35)
'दिव्यमहाध्वनि निरस्य मुखाब्जान्मेथ।' – (महापुराण, 23/69)
'सयोगकेवलिदिव्यध्वनेः कथं सत्यानुभयवाग्योगत्वमितिचेत्तन्न तदुत्पत्तावनक्षरात्मकत्वेन श्रोतृश्रोत्रप्रदेश-प्राप्तिसमयपर्यंतमनुभयभाषात्वसिद्धेः ।' – (गोम्मटसार जीवकाण्ड, 1/227)
अर्थ:—इहाँ प्रश्न उपजै है कि केवलीके दिव्यध्वनि है, ताकै सत्यवचनपनां वा अनुभय वचनपना कैसे सिद्धि हो है? ताका समाधान केवलिकै दिव्यध्वनि हो है, सो होते ही तौ
अनक्षर हो है; सो सुनने वालों के कर्णप्रदशेकौं यावत् प्राप्त न होई तावत् कालपर्यंत | अनुभय-भाषात्मक अनक्षर ही है।
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यापनीयः एक विचारणीय बिन्दु
-डॉ० सुदीप जैन अभी डॉ० सागरमल जैन द्वारा लिखित एवं पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी द्वारा प्रकाशित 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' नामक पुस्तक हस्तगत हुई। ___ धर्मानुरागी मित्र डॉ० अनुपम जैन, इन्दौर (म०प्र०) के द्वारा प्रेषित इस पुस्तक के बारे में विद्वद्वर्य पं० नाथूलाल जी शास्त्री संहितासूरि, इन्दौरवालों ने अपने पत्र में जिक्र किया था। अत: मुझे जिज्ञासा तो थी ही, प्रतीक्षा भी थी। आते ही दो बार आद्योपान्त भली-भाँति पढ़ गया। अध्ययन से स्पष्ट हो गया कि विद्वान् लेखक ने सम्पूर्ण कार्य मात्र अपने पूर्वाग्रहों की पुष्टि के लिये किया है तथा तथ्यों को भरपूर तोड़-मरोड़कर आधेअधूरे ढंग से प्रस्तुत किया है। उनके लिए ऐसी प्रवृत्ति नई नहीं है। श्वेताम्बरत्व को मूल व प्राचीन सिद्ध करने के लिए वे अनेकों ऐसी असफल चेष्टायें पहिले भी कर चुके हैं। सच कहा जाये, तो उनकी प्रसिद्धि ही ऐसे कार्यों के लिए रही है। __आदरणीय लेखक विद्वान् एवं अन्य जिज्ञासु विद्वानों के विचारार्थ मैं कतिपय बिन्दु प्रस्तुत करना चाहता हूँ। प्रथम तो यह कि यापनीय संघ की उत्पत्ति जक्खिल रानी के द्वारा हुई। इसका संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार हैं___ लगभग 200 ई०पू० में आचार्य विशाखनन्दि के समय में सौराष्ट्र प्रान्त के वलभीपुर राज्य की रानी 'स्वामिनी' की पुत्री 'जक्खिल' का विवाह करहाटपुर के राजा के साथ हुआ था। चूँकि उसकी माँ 'स्वामिनी' श्वेताम्बर मतानुयायिनी थी, अत: उसकी पुत्री 'जक्खिल' पर भी वही संस्कार थे।
एक बार रानी जक्खिल को सूचना मिली कि कुछ श्वेताम्बर गुरु करहाटपुर पधारने वाले हैं, तो उसने अपने पति से उनके स्वागतार्थ नगरसीमा पर चलने का अनुरोध किया। अपनी रानी के आग्रह पर राजा करहाटपुर की सीमा पर उन गुरुओं के स्वागतार्थ रानी-सहित पहुँचा। वहाँ पर उसने वस्त्र, कम्बल एवं दण्ड लिये श्वेताम्बर गुरुओं को आते देखा, तो उसने कहा कि "प्रिये ! जैन गुरु तो तपस्वी और अपरिग्रही होते हैं; ये न तो तपस्वी दिखाई देते हैं, और परिग्रह तो स्पष्ट ही लिये हुए हैं; अत: इन्हें मैं अपने राज्य में अपरिग्रही जैनगुरु के रूप में प्रविष्ट होने की अनुमति देने में असमर्थ हूँ।" - इतना कहकर राजा राजमहल में वापस चला गया। तब रानी जक्खिल ने उन श्वेताम्बर गुरुओं से निर्ग्रन्थ होने का निवेदन किया। उन श्वेताम्बर गुरुओं ने उस रानी जक्खिल का अनुरोध स्वीकार करके बाह्य निर्ग्रन्थपना तो अंगीकार कर लिया, किन्तु अंतरंग संस्कार उनके श्वेताम्बरत्व के बने रहे। उन्हीं साधुओं के संघ को 'जावालिय' अथवा 'यापनीय' संज्ञा दी गयी।
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उपर्युक्त विवरण महाकवि रइधूकृत 'भद्रबाहुचरित' पर आधारित है। अन्य अनेकों विद्वानों, इतिहासविदों एवं शोधकर्ताओं ने भी नाना तथ्यों के आधार पर इस विवरण की पुष्टि की है।
चूँकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय का अभ्युदय भले ही अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी के समय पड़े बारह वर्ष के भयंकर दुर्भिक्ष के कारण ई०पू० तृतीय-चतुर्थ शताब्दी में हो गया था; किन्तु उनके शिथिलाचार एवं साहित्य-विहीनता के कारण पाँचवीं शताब्दी ईस्वी तक इन्हें कोई मान्यता नहीं मिल सकी। किसी भी विचारधारा या परम्परा को मान्यता तभी मिलती है, जब इतरलोग भी अपने साहित्य में पूर्वपक्ष आदि के रूप में उसका उल्लेख करें। किन्तु किसी भी जैनेतर दर्शन के किसी प्रसिद्ध विद्वान् ने किसी प्रामाणिक, प्रतिष्ठित ग्रन्थ में इनका एवं इनकी विचारधारा का खंडन या मंडन किसी भी रूप में कोई उल्लेख नहीं किया है। जबकि प्राचीनतम काल से सभी ग्रन्थों में दिगम्बर जैन निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय का उल्लेख हर कहीं मिलता रहा है। जैनों के चौबीसों के चौबीस तीर्थंकर इसी दिगम्बर-परम्परा के थे ऐसा स्पष्ट कथन बौद्ध दार्शनिक आचार्य धर्मकीर्ति ने 'न्यायबिन्दु' नामक प्रकरण के तृतीय परिच्छेद में किया है
"ऋषभो वर्धमानश्च तावादी यस्य स ऋषभवर्द्धमानादिदिगम्बराणां शास्ता सर्वज्ञ: आप्तश्चेति" – (पृष्ठ 138)
इसीप्रकार वैदिक संस्कृति के ग्रन्थों में भी जैनों के नाम पर दिगम्बरत्व का ही उल्लेख मिलता है—“यथाजातरूपधरो निर्ग्रन्था: निष्परिग्रहा:।" – (तैत्तिरीय उपनिषद्, 10/16)
“यथाजातरूपधरो निर्ग्रन्थः।" – (जाबालोपनिषद्, पृष्ठ 130)
जैनसाधुओं के लिए जो श्रमण, क्षपणक, मुण्डी एवं निर्ग्रन्थ आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है; वे सभी दिगम्बरत्व के पर्याय माने गये हैं। देखें
"दिगम्बर: स्यात्क्षपणे नग्ने।" -मिदिनीकोश, 267) "नग्नारो दिवासा क्षपण: श्रमणश्च जीविको जैन: ।” – (हलायुधकोश् पृष्ठ 120) "मुण्डी नग्नो मयूराणां पिच्छधरो द्विजः।" – (स्कन्धपुराण, 59/36) "योगी दिगम्बरो मुण्डो बर्हिपिच्छधरो द्विजः।" – (वैदिक पद्मपुराण, 13/33) "ततो दिगम्बरो मुण्डो बर्हिपिच्छधरो द्विजः।" – (विष्णुपुराण, 3/18) “अपरे वेदबाह्या: दिगम्बराः।" – (ब्रह्मसूत्र, विज्ञानामृतभाष्य, 2/2/33) "जलिलो मुण्डी लुंचितकेश:।" – (शंकराचार्य)
“यथा लोके 'इह मुण्डो भव -इह नग्नो भव' इति।" – (पातंजल महाभाष्य, 1/1/ 2, खंड 1, पृ० 93)
"नागवीं लुचित मुण्डे।" – (संत ज्ञानेश्वर, ज्ञानेश्वरी 13/21) “निरावण इति दिगम्बर।" – (न्यायकुसुमांजलि, 1/1)
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इतना ही नहीं, आधुनिक विचारक भी इस तथ्य को भली भाँति स्वीकार करते हैं। माननीय लोकमान्य बालगंगाधर तिलक लिखते हैं
“वस्त्र-प्रावरण आदि ऐहिक सुखों का त्याग और अहिंसा-प्रभृति धर्मों का पालन बौद्ध भिक्षुओं की अपेक्षा जैन यति अधिक दृढ़ता से किया करते थे एवं अब भी करते रहते हैं।....... हिंदुस्तान में तत्कालीन प्रचलित धर्मों में जैन तथा उपनिषद्धर्म पूर्णतया निवृत्तिप्रधान ही थे।" – (गीताप्रवचन, पृ0 578-82) _ विद्वद्वरेण्य डॉ० मंगलदेव शास्त्री (पूर्वकुलपति, संपूर्णानंद संस्कृत वि०वि०, वाराणसी) ने भी स्पष्ट लिखा है:___ "वैदिक साहित्य की अपेक्षा यह शब्द (श्रमण) जैन-परम्परा में बहुत प्रचलित रहा है और वहाँ इसका प्रयोग जैन मुनियों के लिए रूढ़ है। इसका अर्थ प्राय: दिगंबर ही किया जाता है।" – ('नवनीत' मासिक, जून 1974, पृष्ठ 69) ___अब चूँकि किसी भी विद्वान् ने इनके (श्वेताम्बर जैनों) अस्तित्व को तक भी स्वीकार नहीं किया, तो ये अपने गीत स्वयं गाते बैठे हैं तथा तथ्यों को विकृतकर अपनी महत्ता सिद्ध करने की चेष्टा कर रहे हैं। यद्यपि हमें अपने पक्ष को कुछ भी प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि उगा हुआ सूर्य प्रमाणान्तर की अपेक्षा नहीं रखता। फिर भी कतिपय दिवाद्वेषी असूर्यम्पश्या-जनों को, जिन्होंने सूर्य से मुँह मोड़कर आँखें जोर से बन्द कर रखी हैं तथा अनर्गल प्रलाप करते फिर रहे हैं; उन्हें थोड़ा-सा दिशाबोध अपेक्षित होने से सांकेतिक कथन किया है।
डॉ० सागरमल जी यद्यपि मेधावान हैं, परन्तु उसका वे निष्पक्षभाव से यथार्थ की स्वीकृति में उपयोग नहीं करते हैं। पक्षविशेष के पूर्वाग्रहों को मिथ्या होते हुये भी येन-केन-प्रकारेण सत्य सिद्ध करने का अभियान उन्होंने छेड़ रखा है। अब सोते हुये भी जगाना तो आसान है, किंतु जागते हुये भी जो सोने का अभिनय कर रहा हो, उसे कौन जगा सकता है? ___ हमारे पास प्रत्येक बात के पूरे प्रमाण हैं। यदि डॉ० सागरमल जी चाहें, तो दिल्ली में एक संगोष्ठी रख लें। मैं उसमें प्रत्येक तथ्य को प्रस्तुत करने एवं प्रमाणित करने को तैयार हूँ, बशर्ते वे भी मूलप्रमाणों को लेकर तथ्यात्मक बात करें तथा निष्पक्ष प्रामाणिक विद्वानों के बीच चर्चा हो। ____ मात्र पुस्तक छपाने से कुछ नहीं होता, तथ्यों का प्रमाणीकरण ही महत्त्वपूर्ण है। उनके प्रति निष्ठा ही निर्णायक होगी। पुस्तकें तो पैसों से छप जाती हैं। भानुमती के पिटारे की तरह यद्वा-तद्वा बातों का पुलिंदा छपाने की जगह प्रामाणिक तथ्यों के यथावत् प्रस्तुतीकरण की ही 'पुस्तक' संज्ञा होती है। इस पुस्तक में हड़प्पा एवं मोअन-जो-दड़ो के तथा मथुरा के कंकाली टीला, सम्राट् खारवेल के शिलालेख आदि के पुरातात्त्विक एवं
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सांस्कृतिक साक्ष्यों की जो पूर्णत: उपेक्षा की गयी है; उससे स्पष्ट है कि डॉ० सागरमल जी की दृष्टि कितनी सीमित है। क्योंकि इन साक्ष्यों में दिगम्बर जैन संस्कृति के ही प्रमाण हैं। साथ ही वैदिकों, बौद्धों आदि के साहित्य में उपपलब्ध तथ्यों की चर्चा न करना भी सिद्ध करता है कि इन्हें भय था कि यदि वे इन्हें प्रस्तुत करेंगे, तो श्वेताम्बरत्व का नाम-निशान भी सिद्ध नहीं कर पायेंगे, प्रामाणिकता तो बहुत दूर की बात है। जो कुछ सूचनात्मक प्रमाण इस पुस्तक में हैं, वे सभी इनसे पहिले कई विद्वान् निष्पक्षरीति से प्रस्तुत कर चुके थे। डॉ० सागरमल जी को श्रेय तो इसमें मात्र इतना ही है कि उन्होंने उनकी तोड़ मरोड़कर पूर्वाग्रही रीति से आधी-अधूरी, प्रस्तुति की है। इससे मात्र भ्रम ही हो सकता था, जो विद्वान् एवं जिज्ञासु इस स्पष्टीकरण के बाद दूर कर लेंगे। **
यूनान एवं अन्य देशों में दिगम्बर मुनि __ यूनानी इतिहास से पता चलता है कि ईसा से कम से कम चार सौ वर्ष पूर्व ये दिगम्बर भारतीय तत्त्ववेत्ता पश्चिमी एशिया में पहुंच चुके थे।
पोप के पुस्तकालय के एक लातीनी आलेख से, जिसका हाल में अनुवाद हुआ हैं, पता चलता है कि ईसा की जन्म की शताब्दी तक इन दिगम्बर भारतीय दार्शनिकों की बहुत बड़ी संख्या इथियोपिया (अफ्रीका) के वनों में रहती थी और अनेक यूनानी विद्वान वहीं जाकर उनके दर्शन करते थे और उनसे शिक्षा लेते थे। __ यूनान के दर्शन और अध्यात्म पर इन दिगम्बर महात्माओं का इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि चौथी सदी ई. पू. में प्रसिद्ध यूनानी विद्वान पिरो ने भारत आकर उनके ग्रंथों और | सिद्धांतो का यानी भारतीय अध्यात्म और भारतीय दर्शन का विशेष अध्ययन किया और फिर यूनान लौटकर एलिस नगर में एक नई यूनानी दर्शन पद्धति की स्थापना की। इस नई पद्धति का मुख्य सिद्धांत था कि इंद्रियों द्वारा वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति असंभव है, वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति केवल अंत:करण की शुद्धि द्वारा ही संभव है और उसके लिए मनुष्य को सरल से सरल जीवन व्यतीत करके आत्मसंयम और योग द्वारा अपने अंतर में धंसना चाहिए। भारत से लौटने के बाद पिरो दिगम्बर रहता था। उसका जीवन इतना सरल और संयमी था कि यूनान के लोग उसे बड़ी भक्ति की दृष्टि से देखते थे। वह योगाभ्यास करता था और निर्विकल्प समाधि में विश्वास रखता था।
-(भारत और मानव संस्कृति, खण्ड-II, पृ.-128 ले. बिशम्भरनाथ पांडे) __ प्रकाशक सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली
पुस्तक-रत्न पुस्तक का मूल्य रत्नों से भी अधिक है, क्योंकि रत्न बाहरी चमक-दमक दिखाते हैं, जबकि पुस्तकें अन्त:करण को उज्ज्वल करती हैं।
-महात्मा गाँधी **
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सम्राट् खारवेल की अध्यात्मदृष्टि
-श्रीमती रंजना जैन इहलोक और परलोक दोनों को जो सुधार सके तथा लौकिक एवं आध्यात्मिक—दोनों दृष्टियों से जिनका जीवन अनुपम आदर्श रहा हो—ऐसे महान् पुण्यशाली व्यक्तित्व भारतीय इतिहास में अत्यन्त विरले ही हुये हैं। ऐसे महापुरुषों में अन्यतम थे ईसापूर्व द्वितीय शताब्दी में भारतभूमि की यशोगाथा को स्वर्णाक्षरों में अंकित कराने वाले दिग्विजयी सम्राट् खारवेल। यद्यपि भारतीय इतिहास की श्रृंखला में उनका कोई विशेष उल्लेख नहीं है तथा उनकी पूर्ववर्ती एवं परवर्ती वंश-परम्परा का भी कोई विवरण पर्याप्त परिश्रम के बाद भी आज उपलब्ध नहीं है; तथापि सम्राट् खारवेल के गरिमामयी व्यक्तित्व एवं यश:काय कृतित्व की गौरवगाथा का तिथिक्रम से ब्यौरेवार वर्णन आज हमें उपलब्ध है। इसका एकमात्र आधार है उनका ‘कुमारी पर्वत' ('उदयगिरि'-उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर के निकटस्थ) पर स्थित हाथीगुम्फा' में विद्यमान विश्व का विशालतम शिलालेख, जिसमें इनके सम्पूर्ण जीवन का वृत्तान्त सूत्रात्मक शैली में भारतीय इतिहास के इस कालखंड को संजीवनी प्रदान कर रहा है। - इसमें उन्होंने अपनी अखंड-अपराभूत दिग्विजय, अपार यशोपार्जन, राष्ट्रहित एवं प्रजाहित के कार्यों का जो विवरण प्रस्तुत किया है; उसके बारे में विद्वानों एवं अनुसन्धाताओं ने काफी कुछ लिखा है। उससे जनसामान्य बहुत सीमा तक इनके बारे में परिचित हो सके हैं। यद्यपि उनकी आध्यात्मिक दृष्टि भी इस कालजयी शिलालेख में बहुत स्पष्टत: उत्कीर्णित है, फिर भी विद्वानों ने इस विषय में कोई उल्लेख तक नहीं किया है। अत: इस संक्षिप्त आलेख में मात्र इसी बिन्दु पर कतिपय तथ्य प्रस्तुत कर रही हूँ। ___सम्राट् खारवेल ने मगध-विजय के क्रम में वहाँ के राजा 'वसहतिमित्त' (वृहस्पतिमित्र) को अपने पराक्रम से चरण-विनत किया एवं परमपूज्य आदि तीर्थंकर ऋषभदेव की प्राचीन प्रतिमा (कलिंग जिन) को सादर वापस लाया तथा भव्य जिनालय में रत्नजटित गर्भगृह विदिका) में उसे विराजमान कराया। तब इस उपलक्ष में उसने 'कल्पद्रुम' का महान् विधान (महापूजा) किया तथा प्रजाजनों को 'किमिच्छिक दान' दिया। साधुओं (दिगम्बर जैन श्रमणों) के लिए गुफायें एवं वसतिकायें भी बनवायीं, जिनमें रहकर वे अपनी तप:साधना कर सकें। ___ कहा जाता है कि प्रत्येक सफल पुरुष के पीछे किसी न किसी नारी का योगदान अवश्य होता है। सम्राट् खारवेल भी इस सिद्धान्त का अपवाद नहीं था। उनकी सहधर्मिणी रानी सिंधुला की प्रेरणा एवं परामर्शों से उसके जीवन में कई नवीन घटनाक्रम घटित हुये। जहाँ उसने उसकी दिग्विजय में पदे-पदे साथ दिया तथा खारवेल को ‘महामेघवाहन
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खारवेलश्री' के रूप में स्थापित कराया, वहीं उसे अध्यात्मदृष्टि भी प्रदान की । इस तथ्य के पोषक कतिपय विचारबिन्दु यहाँ प्रस्तुत हैं ।
प्रथम तो जब सम्राट् खारवेल कलिंग जिन की प्रतिष्ठा एवं कल्पद्रुम महापूजा-उत्सव को धूमधाम से सम्पन्न कर गौरवान्वित था, तो उक्त रानी सिंधुला ने उसे कहा कि “जिनप्रतिमा तो प्रतिष्ठित करा ली तथा उसका पूजा - महोत्सव भी शानदान ढंग से कर लिया; किन्तु जो जिनवाणी आज लुप्तप्राय: है, श्रुत-परम्परा विच्छिन्न होती जा रही है; - इसके बारे में भी कुछ सोचा है? " तब खारवेलश्री ने पूछा कि "तुम्हीं बताओ, क्या किया जाये?” तब रानी सिंधुला ने कहा कि “वर्तमान में जितने भी श्रमणसंघ एवं मुनिगण हैं, उन सबका एक महासम्मेलन बुलवाया जाये । तथा एक विशाल वाचना के माध्यम से विस्मृति के द्वारा विच्छिन्न होती श्रुत - सम्पदा की रक्षा की जाये।” अपनी विदुषी रानी की बात मानकर सम्राट् खारवेल ने लाखों स्वर्णमुद्रायें खर्च करके एक विशाल 'संगीतिमण्डप' का निर्माण कराया, जिसके लिए देश के कोने-कोने से प्रस्तरशिलायें स्तम्भों के निर्माणार्थ मंगवायीं गयीं थी। समस्त संघों में निमंत्रण एवं अनुरोध पत्र इस संगीति में पधारने के निमित्त भेजे गये । उच्च श्रेणी के अधिकारी एवं मंत्रीगण स्वयं इन पत्रों को लेकर श्रमणसंघों में गये और इसप्रकार एक भव्य संगीति का आयोजन हुआ, जिसमें सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य के काल (अंतिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु के काल) के बाद विच्छिन्न हुये द्वादशांगी श्रुत के अवशिष्ट अंश को चार अनुयोगों (प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग एवं द्रव्यानुयोग) के रूप में व्यवस्थित किया गया। इस बात को सम्राट् खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख में इस पंक्ति के द्वारा दर्शाया गया है—
“मुरियकालवोच्छिन्नं च चोयठि -अंगसंतिकं तुरिंय उपादयति । ”
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इस पंक्ति में ‘मुरियकालवोच्छिन्नं' पद से 'मौर्यकाल बाद' अर्थात् 'श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु स्वामी के बाद', 'चोयठि' पर से चार + आठ = बारह अंग यानि द्वादशांगी जिनवाणी तथा ‘तुरियं’ पद से ‘चार’ यानि 'चार अनुयोग' • यह अर्थ विद्वानों ने निकाला है। तथा जब सम्राट् खारवेल ने स्वयं साक्षात् उपस्थित रहकर महीनों तक उस 'श्रमणसंगीति' में जैन तत्त्वज्ञान का श्रवण-मनन-चिंतन एवं ऊहापोह किया होगा, तो निश्चय ही उसके हृदय में संसार से विरक्ति एवं आत्मसाधना के प्रति महिमा का भाव जागृत हुआ होगा। तब उसने नित्यपूजा-पाठ, उपवास आदि की जैन श्रावकचर्या को अपने जीवन के अंग के रूप अंगीकार किया तथा तत्त्वज्ञान का सूक्ष्म चिंतन करते हुये शरीर और आत्म का भेदविज्ञान करके निर्मलात्मानुभूति प्राप्त की ।
— यह तथ्य हाथीगुम्फा अभिलेख की निम्नलिखित पंक्ति से सुस्पष्ट है:" पूजानुरत- उवासँग - खारवेलसिरिना जीव - देह - सिरिका परिखिता । ” वस्तुतः जिनवाणी के स्वाध्याय का यही सुफल है। स्वामी कार्तिकेय ने भी इस बारे
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में स्पष्ट लिखा है“जे जिणवयणे कुसला, भेदं जाणंति जीव-देहाणं ।”
-(कत्तिगेयाणुवेक्खा, गा० 194) इसके टीकाकार इसे स्पष्ट करते हुए लिखते हैं
"द्वादशांगरूप सिद्धान्ते कुशला दक्षा निपुणा: जिनाज्ञाप्रतिपालका वा जीवदेहयो-रात्मशरीरयोर्भेदं जानन्ति, जीव शरीरं भिन्नं पृथमूपमिति जानन्ति विदन्ति ।"
अर्थ:-जो भव्यजीव द्वादशांगी जिनवाणी में निहित तत्त्वज्ञान में कुशल-दक्ष-निपुण होकर जिनेन्द्र परमात्मा की आज्ञा के प्रतिपालक होते हैं (उनकी आज्ञा पालते हैं), वे जीव
और देह का अर्थात् आत्मा और शरीर का भेद जान लेते हैं। जीव और शरीर को भिन्न-पृथग् रूप जानते व अनुभव करते हैं।
ये तथ्य इस महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर संकेत करते हैं कि सम्राट् खारवेल ने जिनवाणी के निरन्तर श्रवण-मनन-चिंतन से अपनी मानसिकता में घोर अन्तर पाया तथा उसने संसार, शरीर एवं भोगों से विमुख होकर देह और आत्मा के भेदविज्ञान को समझकर शरीर से भिन्न निर्मल आत्मतत्त्व की ओर उपयोग को एकाग्र कर निर्मलात्मानुभूति प्राप्त कर ली।
यह सम्राट् खारवेल के जीवन का महान् आध्यात्मिक पक्ष है, जिसे संभवत: विचारकों ने अपनी विचारसरणि में स्थान नहीं दिया। आशा है वे इस विचारबिन्दु पर व्यापक चिंतनपूर्वक और अधिक गंभीर एवं महनीय निष्कर्षों का प्रतिपादन करेंगे। *
तीर्थंकरों के शरीर के वर्ण णमिदूण जिणवरिंदे, तिहुयण वर णाण-दसण-पदीवे । कंचण-पियंगु-विद्रुम घण कुंद-मुणाल-वण्णाणं।।
- (आचार्य कुन्दकुन्द, मूलाचार 8-1) अर्थ:-इस गाथा में चतुर्विंशति तीर्थंकरों के शरीर के वर्ण बताते हुए उन्हें नमस्कार किया गया है। -मैं जिनेन्द्रदेवों को नमस्कार करता हूँ, जो अपने अनन्तज्ञान और अनन्तदर्शन के द्वारा तीनों लोकों को प्रकाशित करने के लिये दीपक के समान हैं। तथा जो कंचन (तप्त स्वर्ण), प्रियंगु और विद्रुम (लाल वर्ण), कुन्द (श्वेत), मृणाल हरित वर्ण और धन (नीलवर्ण) वर्ण वाले हैं।
विशेषार्थ:-चन्द्रप्रभ और पुष्पदन्त कुन्दपुष्प, चन्द्र, बर्फ एवं हीरा-मुक्ताहार के समान श्वेतवर्णवाले हैं। सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ मंजरी, मेंहदी के पत्तों अथवा बिना पके धान्य के पौधों के समान हरितवर्णवाले हैं, मुनिसुव्रतनाथ एवं नेमिनाथ नीलांजन गिरि के समान अथवा मयूरकंठ के समान नीलवर्णवाले हैं, पद्मप्रभ और वासुपूज्य प्रियंगु अथवा पलाश के पुष्प के समान लालवर्णवाले हैं। शेष 16 तीर्थंकर तपाये हुए स्वर्ण के समान सुनहरी वर्णवाले हैं।
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धरसेन की एक कृति : जोणिपाहुड
-आचार्य नगराज, डी.लिट. आचार्य नगराज वर्तमान में श्वेताम्बर जैन-परम्परा के एक सूक्ष्मचिंतनवाले मनीषी हैं, जो पूर्वाग्रह से रहित होकर निष्पक्ष भाव से तथ्यों का अनुशीलन कर उनकी यथार्थ प्रस्तुति करते हैं। वे भाषाशास्त्र के भी अध्येता विद्वान् हैं तथा गहन अध्ययन उनकी जीवनशैली है। उन्होंने वर्षों पूर्व 'आगम और त्रिपिटक: एक अध्ययन' नामक पुस्तक में दिगम्बर जैन आगमों के बारे में जो लिखा था, उसे यहाँ अविकलरूप से प्रस्तुत किया जा रहा है। भले ही इसके कतिपय विचार-बिन्दुओं से हमारी सहमति नहीं है, फिर भी अधिसंख्य भाग की उपादेयता की दृष्टि से हमने इसे यहाँ ज्यों का त्यों निष्पक्षभाव से प्रस्तुत करना उचित समझा। इसी में आचार्य नगराज जी के वैदुष्य का सम्मान था। -सम्पादक
प्राकृत में मंत्र-तंत्रशास्त्र का जोणिपाहुड' नामक एक प्राचीन ग्रन्थ है। आचार्य धरसेन उसके रचयिता मानते जाते हैं। आचार्य धरसेन द्वारा मंत्र-विद्या-सम्बन्धी ग्रन्थ लिखे जाने की संभावना अस्थानीय नहीं मानी जा सकती। विद्याध्ययन के उद्देश्य से पुष्पदन्त और भूतबलि का आचार्य धरसेन के सान्निध्य में आने का जो प्रसंग आया है, यहाँ यह उल्लेख हुआ ही है कि आचार्य धरसेन ने सभागत मुनियों की अध्ययन-क्षमता जाँचने के लिए उन्हें दो मंत्र-विद्यायें साधने को दी। इससे यह सिद्ध होता है कि धरसेन मंत्र-तंत्र-विज्ञान के निष्णात थे तथा उनका उस ओर झुकाव भी था। यही कारण है, उन्होंने विद्यार्थी श्रमणों के परीक्षण का माध्यम मंत्र-विद्या को बनाया। _ 'जोणिपाहुड' आठ सौ श्लोक-प्रमाण प्राकृत-गाथाओं में है। उल्लेख है कि इसे कूष्माण्डिनी महादेवी से उपलब्ध कर आचार्य धरसेन ने अपने अन्तेवासी पुष्पदन्त और भूतबलि के लिए लिखा। जोणिपाहुड के सम्बन्ध में धवला में भी चर्चा है। वहाँ उसे मंत्र-तंत्र शक्तियों तथा पुद्गलानुभाग का विवेचक ग्रन्थ' बताया है।
वृहट्टिप्पणिका में उल्लेख:-एक श्वेताम्बर जैन मुनि ने विक्रमाशब्द 1556 में वृहट्टिप्पणिका के नाम से श्वेताम्बर एवं दिगम्बर–यथासम्भव सभी जैन विद्वानों के ग्रन्थों की सूची तैयार की। उसमें उन्होंने अपने समय तक के सभी लेखकों की सब विषयों की कृतियों को समाविष्ट करने का प्रयत्न किया है। जोणिपाहुड की भी वहाँ चर्चा है। वृहट्टिप्पणिकाकार ने उसे आचार्य धरसेन द्वारा रचित बताया है तथा उसका रचना-काल वीर-निर्वाण सं० 600 सूचित किया है। वृहट्टिप्पणिका की प्रामाणिकता में सन्देह की कम गुंजाइश है। फिर एक श्वेताम्बर मुनि द्वारा एक दिगम्बर मुनि के ग्रन्थ के सम्बन्ध में किया गया सूचन अपने आप में विशेष महत्त्व रखता है।
'नन्दिसंघ' की प्राकृत-पट्टावली, जिस पर पिछले पृष्ठों में विस्तार से चर्चा की गई
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है, के अनुसार माघनन्दि का काल वीर-निर्वाण सं0 614 में समाप्त होता है, तत्पश्चात् धरसेन का काल प्रारम्भ होता है। वृहट्टिप्पणिका और प्राकृत-पट्टावली के काल-सूचन के सन्दर्भ से ऐसा प्रकट होता है कि धरसेन ने आचार्य-पदारोहण से चौदह वर्ष पूर्व इस ग्रन्थ की रचना की हो। इस कोटि के जटिल ग्रन्थ की रचना करने के प्रसंग तक वे अवस्था में प्रौढ़ नहीं, तो युवा अवश्य रहे होंगे।
भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना (महाराष्ट्र) के ग्रन्थ-भण्डार में जोणिपाहुड की एक हस्तलिखित प्रति है, जिसका लेखन-काल वि०सं० 1582 है।
जोणिपाहुड : मंत्र-विधा की एक विलक्षण कृति:—यह ग्रन्थ मंत्र-विद्या, तंत्र-विज्ञान आदि के विश्लेषण—विवेचन की दृष्टि से बड़ा महत्त्वपूर्ण समझा जाता है। दिगम्बर तथा श्वेताम्बर–दोनों जैन-सम्प्रदायों में यह समादृत रहा है। डॉ० जगदीशचन्द्र जैन ने इसके सम्बन्ध में जो सूचक तथ्य उपस्थित किये हैं, उन्हें यहाँ उद्धृत किया जा रहा है। निशीथ चूर्णि' (4, पृ० 375 साइक्लोस्टाइल प्रति) के कथनानुसार आचार्य सिद्धसेन ने जोणिपाहुड' के आधार से अश्व बनाये थे, इसके बल से महिषों को अचेतन किया जा सकता था और इससे धन पैदा कर सकते थे। प्रभावक चरित (5, 115127) में इस ग्रन्थ के बल से मछली और सिंह उत्पन्न करने का तथा विशेषावश्यक 'भाष्य' (गाथा 1775) की हेमचन्द्रकृत टीका में अनेक विजातीय द्रव्यों के संयोग से सर्प, सिंह आदि प्राणी और मणि, सुवर्ण आदि अचेतन पदार्थों के पैदा करने का उल्लेख मिलता है। कुवलयमालाकार के कथनानुसार 'जोणिपाहुड' में कही हुई बात कभी असत्य नहीं होती। जिनेश्वरसूरि ने अपने ‘कथाकोषप्रकरण' में भी इस शास्त्र का उल्लेख किया है। इस ग्रन्थ में 800 गाथाएं हैं। कुलमण्डन सूरि द्वारा विक्रम संवत् 1473 (ईसवी सन् 1416) में रचित 'विचारामृत संग्रह' (पृष्ठ 9 आ) में योनिप्राभृत' को पूर्व श्रुत से चला आता हुआ स्वीकार किया है:“अग्गेणिपुव्वणिग्गयपाहुडसत्थस्स मज्झयारंमि, किंचि उद्देसदेसं धरसेणो वज्जियं भणइ । गिरि उज्जितठिएण पच्छिमदेसे सुट्ठगिरिणयरे, बुड्डतं उद्धरियं दूसमकालप्पयामि।।"
प्रथम खण्डे–“अट्ठावीस सहस्सा गाहाणं जत्थ वन्निया सत्थे । अग्गेणिपुब्बमज्झे संखेवं वित्थरे मुत्तुं । चतुर्थखण्डप्रान्ते योनिप्राभृते।"
इस कथन से ज्ञात होता है कि 'अग्रायणी पूर्व' का कुछ अंश लेकर धरसेन ने इस ग्रन्थ का उद्धार किया है तथा इसमें पहले 28 हजार गाथाएं थीं, उन्हीं को संक्षिप्त करके योनि-प्राभृत' में कहा है।
निष्कर्ष:-उपर्युक्त समग्र विवेचन के परिप्रेक्ष्य में धरसेन के समय के सम्बन्ध में हमारे समक्ष दो प्रकार की स्थितियाँ हैं। तिलोयपण्णत्ति, हरिवंशपुराण, धवला, जयधवला, श्रुतावतार आदि के अनुसार देखा जाये, तो वीर निर्वाण 681 के पश्चात्
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इनका समय सिद्ध होता है और यदि नन्दिसंघ की प्राकृत-पट्टावली व जोणिपाहुड आदि के आधार पर चिन्तन करें, तो यह वीर-निर्वाण सं0 600 से कुछ पूर्व सिद्ध होता है। अर्थात् ईसा की प्रथम शती में वे हुए, ऐसा अनुमान किया जा सकता है। तिलोयपण्णति आदि के अनुसार उनका समय लगभग एक शती के बाद होता है। जैसा भी हो, वे ईसा की द्वितीय शती से अवश्य पूर्ववर्ती रहे हैं। पुष्पदन्त तथा भूतबलि की समय-सीमा बांधने का आधार भी प्राय: यही है।
'धवला' और 'जयधवला' षट्खण्डागम के यथार्थ महत्त्व से लोक-मानस को अवगत कराने का मुख्य श्रेय आचार्य वीरसेन को है, जिन्होंने उस पर 'धवला' संज्ञक अत्यन्त महत्वपूर्ण टीका की रचना की। धवला के विशाल कलेवर के सम्बन्ध में संकेत किया ही गया है। षट्खण्डागम जैसे महान् सैद्धान्तिक ग्रन्थ पर अकेला व्यक्ति गम्भीर विश्लेषण तथा विवेचनपूर्वक 72 सहस्र श्लोक-प्रमाण व्याख्या प्रस्तुत करे, नि:संदेह यह बहुत बड़ा आश्चर्य है। आचार्य वीरसेन का कृतित्व और उद्भासित हो जाता है तथा सहसा मन पर छा जाता है, जब साथ-ही-साथ यहाँ देखते हैं कि उन्होंने जयधवला का बीस-सहस्र-श्लोक-प्रमाण अंश भी लिखा। उतना ही कर पाये थे कि उनका भौतिक कलेवर नहीं रहा।
इसप्रकार आचार्य वीरसेन ने अपने जीवन में 92 सहस्र-श्लोक-प्रमोण रचना की। ऐसा प्रतीत होता है, गम्भीर शास्त्राध्ययन के अनन्तर उन्होंने अपना समग्र जीवन साहित्य-सृजन के इस पुनीत लक्ष्य में लगा दिया। तभी तो इस इसप्रकार का विराट कार्य सध सका।
विशालकाय महाकाव्य के रूप में 'महाभारत' विश्व-वाङ्मय में सर्वाधिक प्रतिष्ठापन्न है, क्योंकि उसका कलेवर एक लाख-श्लोक-परिमित माना जाता है। पर, वह अकेले व्यासदेव की रचना नहीं है। न जाने कितने कवियों और विद्वानों की लेखिनी का योगदान उसे मिला है। पर, 'धवला' जो कलेवर में महाभारत से कुछ ही कम है, एक ही महान् लेखक की कति है। यह उसकी सबसे बड़ी विशेषता है। ज्ञानोपासना के दिव्य यज्ञ में अपने आप को होम देने वाले आचार्य वीरसेन जैसे मनीषी ग्रन्थकार जगत में विरले ही हुए हैं। ___ महान् विद्वान् : प्रखर प्रतिभान्वित:—आचार्य वीरसेन का वैदुष्प विलक्षण था। उनकी स्मरण-शक्ति एवं प्रतिभा अद्भुत थी। उनका विद्याध्ययन अपरिसीम था। स्व-शास्त्र एवं पर-शास्त्र—दोनों के रहस्य उन्हें स्वायत्त थे। व्याकरण, न्याय, छन्द, ज्योतिष प्रभृति अनेक विषयों में उनकी गति अप्रतिहत थी। आ० जिनसेन के शब्दों में वे समग्र विश्व के पारदश्वा थे, मानों साक्षात् केवली हों। उनकी सर्वार्थगामिनी स्वाभाविक प्रज्ञा को देख विद्वानों को सर्वज्ञ के अस्तित्व में शंका नहीं रही।' उनकी चमकती हुई ज्ञानमयी
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किरणों का प्रसार देखकर प्राज्ञजन उन्हें 'श्रुत-केवली' तथा उत्कृष्ट 'प्रज्ञा-श्रमण" कहते थे। ___तत्त्व-दर्शन के महान् समुद्र में अवगाहन करने से उनकी बुद्धि परिशुद्ध थी, तभी मानों महान् मेधाशील प्रत्येकबुद्धों से वे स्पर्धा करने लगे हों। ___जिनसेन ने उनके शास्त्रानुशीलन के सम्बन्ध में एक बड़े महत्त्व की बात कही है। उसके अनुसार आचार्य वीरसेन ने चिरन्तन-कालीन पुस्तकों का गौरव बढ़ाया अर्थात् पुस्तकारूढ़ प्राचीन वाङ्मय का उन्होंने गम्भीर अनुशीलन किया, उसे अग्रसर किया। इससे यह गम्य है कि आचार्य वीरसेन के समय तक जो भी उच्च कोटि के ग्रन्थ प्राप्त थे, उन्होंने उन सब का सांगोपांग एवं व्यापक अध्ययन किया। तभी तो यह सम्भव हो सका कि वे अपनी धवला टीका को अनेक शास्त्रों के निष्कर्ष तथा नवनीत से आपरित कर सके।
जिनसेन ने आदिपुराण की उत्थानिका' में अपने श्रद्धास्पद गुरु को परमोत्कृष्टवादी, पवित्रात्मा, लोकविज्ञ, कवित्व-शक्ति-सम्पन्न तथा वृहस्पति के तुल्य 'वाग्मी' कहा है।' उनकी 'धवला' टीका के विषय में जिनसेन ने बड़े भावपूर्ण शब्दों में उल्लेख किया है कि "उनकी 'धवला' भारती तथा उनकी पवित्र व उज्ज्वल कीर्ति ने अखण्ड भू-मण्डल को धवल-उज्ज्वल बना दिया। अर्थात् वे दोनों लोक-व्याप्त हो गई।" ___ धवला की रचना:-इन्द्रनन्दि के 'श्रुतावतार' में आचार्य वीरसेन तथा उनकी धवला टीका की चर्चा की है। टीका की रचना के सन्दर्भ में उन्होंने बताया है कि वीरसेन ने एलाचार्य के पास सैद्धान्तिक ज्ञान अर्जित किया। गुरु के आदेश से वे वाटग्राम आये। आणतेन्द्र द्वारा निर्मापित जिन-मन्दिर में रुके। वहाँ बप्पदेव-गुरु-रचित व्याख्याप्रज्ञप्ति—षट्खण्डागम की एक पुरानी टीका मिली। वहीं उन्होंने धवला की रचना समाप्त की। ___ उसी प्रसंग में इन्द्रनन्दि ने वीरसेन-रचित धवला तथा अंशत: जयधवला के श्लोक-प्रमाण की भी चर्चा की है। यह भी बताया है कि धवला प्राकृत-संस्कृत-मिश्र टीका है। इसी सन्दर्भ में जिनसेन द्वारा जयधवला की पूर्ति तथा उसके समग्र षष्टि-सहस्रश्लोक-प्रमाण की भी चर्चा की है।
नाम : अन्वर्थकता:-आचार्य वीरसेन ने टीका का अभिधान 'धवला' क्यों रखा, इस सम्बन्ध में स्पष्टतया कोई विवरण प्राप्त नहीं है। धवला शब्द संस्कृत भाषा का है, जिसका अर्थ श्वेत, सुन्दर, स्वच्छ, विशुद्ध, विशद आदि है। मास के शुक्ल पक्ष' को भी 'धवल' कहा जाता है। सम्भव है, अपनी टीका की अर्थ-विश्लेषण की दृष्टि से विशदता, भाव-गाम्भीर्य की दृष्टि से स्वच्छता, पद-विन्यास की दृष्टि से सुन्दरता, प्रभावकता की दृष्टि से उज्ज्वलता, शैली की दृष्टि से प्रसन्नता–प्रसादोपन्नता आदि विशेषताओं का एक
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ही शब्द में आख्यान करने के लिए टीकाकार को 'धवला' नाम खूब संगत लगा हो। आगे चलकर यह नाम प्रिय एवं हृद्य इतना हुआ कि षट्खण्डागम - वाङ्मय 'धवला - सिद्धान्त' के नाम से विश्रुत हो गया ।
धवला की समाप्ति - सूचक प्रशस्ति में उल्लेख हुआ है कि यह टीका कार्तिक मास के 'धवल' या 'शुक्ल पक्ष' की त्रयोदशी के दिन सम्पूर्ण हुई थी। हो सकता है, मास के धवल पक्ष में परिसमाप्त होने के कारण रचयिता के मन में इसे धवला नाम देना जँचा हो
एक और सम्भावना की जा सकती है, इस टीका का समापन मान्यखेटाधीश्वर, राष्ट्रकूटवंशीय नरेश अमोघवर्ष प्रथम में राज्यकाल में हुआ था। राजा अमोघवर्ष उज्ज्वल चरित्र, सात्त्विक भावना, धार्मिक वृत्ति आदि अनेक उत्तमोत्तम गुणों से विभूषित था। उसकी गुणसूचक उपाधियों या विशेषणों में एक 'अतिशय धवल' विशेषण भी प्राप्त होता है। प्रामाणिकरूप में नहीं कहा जा सकता, इस विशेषण का प्रचलन का मुख्य हेतु क्या था? हो सकता है राजा अमोघवर्ष के इन उज्ज्वल, धवल, निर्मल गुणों के कारण यह विशेषण प्रचलित हुआ हो अथवा उसकी देह - सम्पदा – सौष्ठव, गौरत्व आदि के कारण भी लोगों को उसे उस उपाधि से सम्बोधित करने की प्रेरणा हुई हो । अमोघवर्ष विद्वानों, त्यागियों एवं गुणियों का बड़ा आदर करता था । उनके साथ उसका श्रद्धापूर्ण सम्बन्ध था, अतः यह अनुमान करना भी असंगत नहीं लगता कि राजा अमोघवर्ष का उक्त विश्लेषण इस नाम के पीछे प्रेरक हेतु' रहा हो ।
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जैसा भी रहा हो, इस टीका ने केवल दिगम्बर जैन वाङ्मय में ही नहीं, भारतीय तत्त्व-चिन्तन के व्यापक क्षेत्र में निःसन्देह अपने नाम के अनुरूप धवल, उज्जवल यश अर्जित किया। मानों नाम की आवयविक सुषमा ने भावात्मक सुषमा को भी अपने में समेट लिया हो ।
धवला के वैशिष्ट्य: – कहा ही गया है, यह टीका प्राकृत-संस्कृत-मिश्रित है। इसप्रकार की सम्मिश्रित भाषामयी रचना मणि- प्रवाल- न्याय से उपमित की गई है। मणियाँ तथा प्रवाल परस्पर मिला दिये जायें, तो भी वे अपना पृथक्-पृथक् अस्तित्व लिए विद्यमान रहते हैं, उसीप्रकार प्राकृत तथा संस्कृत मिलने पर भी पृथक्-पृथक् दिखाई देती रहती हैं।
टीकाकार द्वारा किये गये इस द्विविध भाषात्मक प्रयोग की अपनी उपयोगिता है । तात्त्विक अथवा दार्शनिक विषयों को तार्किक शैली द्वारा स्पष्ट करने में संस्कृत का अपना एक महत्त्व है। उसका अपना विशिष्ट, पारिभाषिक शब्द- समुच्चय एवं रचना - प्रकार है, जो अनन्य-साधारण है। प्राकृत लोकजनीन भाषा है, जो कभी इस देश में बहु- प्रचलित थी । टीका की रचना केवल पाण्डित्य - सापेक्ष ही न रह जाये, उसमें लोकजनीनता भी व्याप्त रहे, प्राकृत-भाग इस अपेक्षा का पूरक माना जाये, तो अस्थानीय नहीं होगा।
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टीकाकार ने अपने समय तक उपलब्ध बहुविध दिगम्बर - श्वेताम्बर - साहित्य का मुक्त रूप से उपयोग किया है। अनेक ग्रन्थों के यथाप्रसंग, यथापेक्ष अंश उद्धृत किये हैं । कहने का अभिप्राय यह है कि उन्होंने अपनी टीका को सम्पूर्णत: समृद्ध एवं सर्वथा उपादेय बनाने का पूरा प्रयत्न किया है। उसकी शैली समीक्षा, विश्लेषण एवं विशद विवेचन की दृष्टि से वास्तव में असाधारण है ।
समापन : समय:- वीरसेनाचार्य के काल के सम्बन्ध में अनिश्चयात्मकता नहीं है। धवला की अन्तिम प्रशस्ति में उन्होंने ज्योतिष शास्त्रीय शैली में कुछ महत्त्वपूर्ण संकेत किये हैं। स्वर्गीय डॉ० हीरालाल जैन ने प्रशस्ति के उस भाग का, जो धवला की समाप्ति के समय का सूचक है, विशेष परिशीलन एवं सूक्ष्मतया पर्यवेक्षण कर परिष्कृतरूप उपस्थित किया है, जिसके अनुसार, धवला की सम्पूर्णता का समय शक संवत् 738 कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी निश्चित होता है। आचार्य वीरसेन के सुयोग्य शिष्य आचार्य जिनसेन ने अपने पूज्यचरण गुरु द्वारा समारब्ध जयधवला टीका की पूर्ति शक संवत् 759 फाल्गुन शुक्ला दशमी को की। उस समय राजा अमोघवर्ष का शासनकाल था । धवला की पूर्ति और जयधवला की पूर्ति के बीच 21 वर्ष का समय पड़ता है। आचार्य वीरसेन के देहावसान की यह पूर्वापर सीमा है। जैन साहित्य एवं इतिहास के अन्वेष्टा स्व० पं० नाथूराम प्रेमी ने आचार्य वीरसेन का समय शक संवत् 665 से 745 तक माना है, जो अनेक पूर्वापर सन्दर्भों एवं प्रमाणों पर आधारित है ।
षट्खण्डागम : आधारः- द्वादशांग के अंतर्गत बारहवें अंग 'दृष्टिवाद' का चौथा भेद पूर्वगत है । वह चतुर्दश पूर्वों में विभक्त है। उनमें दूसरा 'आग्रायणीय पूर्व' है । उनके निम्नांकित चौदह अधिकार हैं :- 1. पूर्वान्त, 2 अपरान्त, 3. ध्रुव, 4. अध्रुव, 5. चयनलब्धि, 6. धर्मोपम, 7. प्रणिधिकल्प, 8. अर्थ, 9. भौम, 10. व्रतादिक, 11. सर्वार्थ, 12. कल्पनिर्याण, 13. अतीतसिद्धबद्ध तथा 14. अनागत ।
इसमें पाँचवाँ ‘चयनलब्धि अधिकार' बीस पाहुडों में विभक्त है। उनमें चौथा पाहुड़ 'कर्म प्रकृति’ है। उसके चौबीस ‘अनुयोगद्वार' हैं, जो इसप्रकार हैं: 1. कृति, 2. वेदना, 3. स्पर्श, 4. कर्म, 5. प्रकृति, 6. बन्धन, 7. निबन्धन, 8. प्रक्रम, 9. उपक्रम, 10. उदय, 11. मोक्ष, 12. संक्रम, 13. लेश्या, 14. लेश्या - कर्म, 15. लेश्या - परिणाम, 16. सातासात, 17. दीर्घ- ह्रस्व, 18. भंवधारणीय, 19. पुद्गलात्म, 20. निधत्तानिधत्त, 21. निकाचितानिकाचित, 22. कर्म-स्थिति, 23. पश्चिमस्कन्ध तथा 24. अल्पबहुत्व ।
इनके तथा इनके भेदोपभेदों के आधार पर षट्खण्डागम की रचना हुई ।
षट्खण्डागम : एक परिचय
पहला खण्डः – छ: खण्डों में पहले खण्ड का शीर्षक जीवट्ठाण है। इसका अधिकांश भाग कर्मप्रकृति नामक पाहुड़ के 'बन्धन' संज्ञक छठे अनुयोगद्वार के बन्ध- विधान नामक
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भेद" के आधार पर प्रणीत हुआ है । जीवट्ठाण के अन्तर्गत आठ अनुयोगद्वार और नौ चूलिकाएं हैं। आठ अनुयोगद्वारों के नाम इसप्रकार हैं: 1. सत्, 2. संख्या, 3. क्षेत्र, 4. स्पर्शन, 5. काल, 6. अन्तर, 7 भाव तथा 8. अल्पबहुत्व। नौ चूलिकाएं निम्नांकित हैं:1. प्रकृतिसमुत्कीर्ताना, 2. स्थानसमुत्कीर्तना, 3-5. तीन महादण्डग, 6. जघन्य स्थिति, 7. उत्कृष्ट स्थिति, 8. सम्यक्त्वोत्पति तथा 9. गति - अगति ।
उपर्युक्त अनुयोगद्वारों तथा चूलिकाओं में विवेच्य विषयों का गुणस्थानों तथा मार्गणाओं के आधार पर बड़ा विस्तृत विवेचन हुआ है।
'—
दूसरा खण्ड:—दूसरे खण्ड का नाम 'खुद्दाबंध' है, जिसका संस्कृत-रूप ‘क्षुल्लक बन्ध’ होता है। यह 'कर्मप्रकृति पाहुड़' के 'बन्धक' संज्ञक अनुयोगद्वार के 'बन्धक' नामक भेद के आधार पर सृष्ट हुआ है। यह खण्ड ग्यारह अधिकारों में विभक्त है, जो निम्नांकित हैं:1. स्वामित्व, 2. काल, 3. अन्तर, 4. भंगविचय, 5. द्रव्यप्रमाणानुगम, 6. क्षेत्रानुगम, 7. स्पर्शनानुगम, 8. नानाजीवकाल, 9. नाना जीव - अन्तर, 10. भागाभागानुगम तथा 11. अल्पबहुत्वानुगम ।
प्रस्तुत खण्ड में कर्म बाँधने वाले जीव, कर्म-बन्ध के भेद आदि का उपर्युक्त अधिकार संकेतक इन ग्यारह प्ररूपणाओं द्वारा विवेचन किया गया है।
तीसरा खण्ड: – तीसरा खण्ड 'बन्धस्वामित्वविचय' संज्ञक है। 'कर्मप्रकृति पाहुड' के बन्धन अनुयोगद्वार का 'बन्ध- विधान' नामक भेद प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेश के रूप में चार प्रकार का है। प्रकृति के दो भेद हैं— मूल तथा उत्तर । उत्तर प्रकृति दो प्रकार की है— एकैकोत्तर तथा अव्वोगाढ़ । एकैकोत्तर प्रकृति के 24 भेद हैं, जो इस प्रकार हैं :
1. समुत्कीर्तना, 2. सर्वबन्ध, 3. नोसर्व, 4. उत्कृष्ट, 5. अनुत्कृष्ट, 6. जघन्य, 7. अजघन्य, 8. सादि, 9. अनादि, 10. ध्रुव, 11. अध्रुव, 12. बन्धस्वामित्वविचय, 13. बन्धकाल, 14. बन्धान्तर 15 बन्धसन्निकर्ष, 16. भंगविचय, 17. भागाभाग, 18. परिमाण, 19. क्षेत्र, 20. स्पर्शन, 21. काल, 22. अन्तर, 23. भाव तथा 24. अल्पबहुत्व ।
इनमें बारहवें 'बन्धस्वामित्वविचय' के आधार पर इस खण्ड की रचना हुई है। इस खण्ड में मुख्यतः निम्नांकित विषयों का विशद विश्लेषण है : – किस जीव के किन-किन प्रकृतियों का कहाँ तक बन्ध होता है, किस जीव का नहीं होता। किस गुणस्थान में कौन-कौन सी प्रकृतियाँ व्युच्छिन्न हो जाती हैं। स्वोदयबन्धात्मक तथा परोदयबन्धात्मक प्रकृतियाँ कौन-कौन-सी हैं, इत्यादि ।
चौथा खण्ड:— चौथा खण्ड वेदना' संज्ञा से अभिहित है। यह 'कर्मप्रकृति पाहुड' के 'कृति' तथा 'वेदना' नामक अनुयोगद्वारों के आधार पर सृष्ट है। इसमें 'वेदना' के विवेचन की मुख्यता है, जो काफी विस्तारपूर्वक किया गया है। इसीकारण यह वेदना खण्ड' के रूप में संज्ञित हुआ है । कृति के अन्तर्गत औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस्
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तथा कार्मण—इन पाँच शरीरों की संघातनात्मक एवं परिशातनात्मक कृति का एवं भव के प्रथम व अप्रथम समय में अवस्थित जीवों के कृति, नोकृति तथा अव्यक्त—अतद्रूप संख्याओं का वर्णन है। ___ यहाँ ‘कृति' के सात प्रकार निरूपित हैं, जो इसप्रकार हैं-1. नाम, 2. स्थापना, 3. द्रव्य, 4. गणना, 5. ग्रन्थ, 6. करण तथा 7. भाव। प्रस्तुत सन्दर्भ में 'गणना' की मुख्यता प्रतिपादित की गई है।
वदना' के अन्तर्गत सोलह अधिकार हैं, जो निम्नांकित हैं:-1. निक्षेप, 2. नय, 3. नाम, 4. द्रव्य, 5. क्षेत्र, 6. काल, 7. भाव, 8. प्रत्यय, 9. स्वामित्व, 10. वेदना, 11. मति, 12. अनन्तर, 13. सन्निकर्ष, 14. परिमाण, 15. भागाभागनुगम तथा 16. अल्पबहुत्वानुगम। एतन्मूलक अपेक्षाओं से यहाँ वदना' का विवेचन किया गया है। __ पाँचवाँ खण्ड:—पाँचवाँ 'वर्गणा' खण्ड है। 'कर्मप्रकृति पाहुड' के 'स्पर्श', 'कर्म' तथा प्रकृति' नामक अनुयोगद्वारों व 'बन्धन' नामक अनुयोगद्वार के प्रथम भेद 'बन्ध' के आधार पर इसका सर्जन हुआ है। ___ स्पर्श-निरूपण के अन्तर्गत निक्षेप, नय, नाम, द्रव्य, क्षेत्र आदि सोलह अधिकार, जो वेदना-खण्ड' में वर्णित हुए हैं, द्वारा तेरह प्रकार के स्पर्शों का विवेचन किया गया है तथा प्रस्तुत सन्दर्भ में कर्म-स्पर्श की प्रयोजनीयता का कथन किया गया है। ___'कर्म' के अन्तर्गत उपर्युक्त सोलह अधिकारों द्वारा दशविध कर्म का निरूपण है। वे दश कर्म इसप्रकार हैं-1. नाम, 2. स्थापना, 3. द्रव्य, 4. प्रयोग, 5. समवधान, 6. अध:, 7. ईर्यापथ, 8. तप, 9. क्रिया तथा 10. भाव।
प्रकृति-निरूपण के अन्तर्गत शील और स्वभाव का उल्लेख हुआ है, जिन्हें उसका पर्यायवाची कहा गया है। यहाँ 'प्रकृति' के चार भेदों-नाम, स्थापना, द्रव्य, तथा भावमें द्रव्य-प्रकृति अर्थात् कर्म-द्रव्य-प्रकृति को उपर्युक्त सोलह अधिकारों के माध्यम से विशद विवेचन किया गया है। __ मुख्यत: पाँचवें खण्ड का महत्त्वपूर्ण अधिकार 'बन्धनीय' है। वहाँ उसका—उसके अन्तर्गत 23 प्रकार की वर्गणाओं का, उनमें भी विशेषत: कर्मबन्धयोग्य वर्गणाओं का सूक्ष्म तथा विस्तृत विश्लेषण हुआ है।
छठा खण्ड:-'महाबन्ध' छठा खण्ड है। इसके सम्बन्ध में पहले संकेत किया ही गया है, आचार्य भूतबलि इसके रचयिता हैं। अपने ज्यायान् सतीर्थ्य आचार्य पुष्पदन्त द्वारा रचित सूत्रों को लेते हुए पाँच खण्डों की रचना सम्पन्न कर आचार्य भूतबलि ने तीस-सहस्र-श्लोक-प्रमाण ‘महाबन्ध' रचा। इस सम्बन्ध में इन्द्रनन्दि ने 'श्रुतावतार' में जो उल्लेख किया है, उसे पिछले पृष्ठों में, जहाँ षट्खण्डागम' की सामान्यत: चर्चा की गई है, उपस्थित किया ही गया है।
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धवलाकार आचार्य वीरसेन ने जहाँ पाँचवाँ - 'वर्गणा खण्ड' समाप्त होता है, इन सम्बन्ध में उल्लेख किया है, जो इसप्रकार है: “प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध तथा प्रदेशबन्ध के रूप में बन्ध- विधान चतुर्विध— चार प्रकार का है। भट्टारक भूतबलि ने महाबन्ध में इन चारों प्रकार के बन्धों का सप्रपंच — विस्तृत विवेचन किया है; अत: हमने उसका यहाँ उल्लेख नहीं किया। इस सन्दर्भ में समग्र 'महाबन्ध' यहाँ प्ररूपित है; अत: बन्ध - विधान समाप्त किया जाता है।”
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अस्तु, छठे खण्ड 'महाबन्ध' में आचार्य भूतबलि द्वारा प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध तथा प्रदेशबन्ध का भेदोपभेदों सहित अनेक अपेक्षाओं से विस्तृत के साथ-साथ अत्यन्त सूक्ष्म एवं गहन विश्लेषण किया गया है ।
सारांश: – 'षट्खण्डागम' के छहों खण्डों के इस संक्षिप्त परिचय से यह स्पष्ट है कि कर्म-तत्त्व - विज्ञान के निरूपण की दृष्टि से यह ग्रन्थ निःसन्देह भारत के दार्शनिक वाङ्मय में अपना असाधारण स्थान लिए हुए है।
कसायपाहुड ( कषायप्राभृत)
आचार्य धरसेन का वर्णन करते समय आचार्य गुणधर के सम्बन्ध में पीछे संकेत किया गया है। जिस प्रकार धरसेन के इतिहास के विषय में हमारे समक्ष निश्चायक स्थिति नहीं है, उसी प्रकार गुणधर का भी कोई ऐतिहासिक इतिवृत्त हमें उपलब्ध नहीं है । धरसेन के विषय में, जैसा कि पिछले पृष्ठों में चर्चित हुआ है, नन्दिसंघ की प्राकृत - पट्टावली में माघनन्दि के पश्चात् उल्लेख तो है, गुणधर के सम्बन्ध में इतना भी नहीं है। 'श्रुतावतार' के लेखक इन्द्रनन्दि ने गुणधर तथा धरसेन – दोनों के इतिवृत्त के सम्बन्ध में अपनी अज्ञता ख्यापित की ही है, जिसकी चर्चा पहले की जा चुकी है। गुणधर के दैहिक जीवन का इतिहास हमें नहीं मिल रहा है—यह सच है; पर तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में उनकी जो बहुत बड़ी देन – उनकी कृति कसायपाहुड है, वह सदा उन्हें अजर-अमर बनाये रखेगी । व्यक्ति मर जाता है, विचार नहीं मरते । यदि किसी के विचार जीवित हैं, तो निश्चय की भाषा में उसे 'मृत' नहीं कह सकते।
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आधार: – षट्खण्डागम की तरह कसायपाहुड भी द्वादशांग से सीधे सम्बद्ध वाङ्मय के रूप में प्रसिद्ध है। चौदह पूर्वों में पाँचवाँ 'ज्ञानप्रवादपूर्व' है। उसकी 'दशम वस्तु' के 'तृतीय पाहुड' का नाम पेज्जदोसपाहुड है। उसी के आधार पर कसायपाहुड की रचना हुई; अत: अपने आधारभूत 'पाहुड' के नाम पर यह पेज्जदोसपाहुड' के नाम से भी अभिहित किया जाता है। पैज्जदोस' का संस्कृतरूप प्रेयस् -द्वेष' अर्थात् राग-द्वेष है। यही संसार का मूल है, जिसे सही रूप में जाने बिना, समझे बिना, उच्छिन्न किये बिना बन्धन से छुटकारा नहीं हो सकता ।
विषय:- प्रस्तुत विषय में क्रोध आदि कषायों का स्वरूप, उनके रागात्मक तथा,
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द्वेषात्मकरूप में परिणत होने की विविध स्थितियाँ आदि का अत्यन्त सूक्ष्म एवं मार्मिक विश्लेषण है।
रचना:-कसायपाहुड की रचना गाथा-सूत्रों में हुई है। वे संख्या में 233 हैं। सूत्र बहुत संक्षेप में हैं, पर गहन और गूढ़ अर्थ से संपृक्त हैं। आचार्य गुणधर ने इस ग्रन्थ की रचना कर षष्ट्खण्डागम के माध्यम से प्रसृत श्रुत-परम्परा को और अभिवर्द्धित किया है।
कहा जाता है, आचार्य गुणधर ने इसकी रचना कर आचार्य नागहस्ती तथा आर्यमंक्षु के समक्ष इसे व्याख्यात किया। उससे यह परम्परा आगे भी गतिशील रही।
व्याख्या-साहित्य:-आचार्य यतिवृषभ ने कसायपाहुड पर प्राकृत में छह सहस्र-श्लोक-प्रमाण चूर्णि-सूत्रों की रचना की। ऐसा माना जाता है कि उच्चारणाचार्य ने आचार्य यतिवृषभ से उनके चूर्णि-सूत्रों का अध्ययन किया और उन पर द्वादश-सहस्र-श्लोक-प्रमाण उच्चारणसूत्र रचे। आज यह साहित्य अनुपलब्ध है।
कसायपाहुड पर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण व्याख्या, जिसने इस महान् ग्रन्थ को और अधिक गौरवान्वित किया, स्वनामधन्य आचार्य वीरसेन तथा उनके सुयोग्य शिष्य आचार्य जिनसेन की जयधवला टीका है, जिसके सम्बन्ध में पहले भी यथाप्रसंग चर्चा आई है। यह साठ-हजार-श्लोक-प्रमाण विशाल टीका है, जिसका प्रारम्भ का बीस सहस्र-श्लोक-प्रमाण भाग आचार्य वीरसेन द्वारा तथा आगे का चालीस हजार-श्लोक-प्रमाण भाग आचार्य जिनसेन द्वारा रचित है।
इस टीका का कितना अधिक महत्त्व है, यह इसी से अनुमान किया जा सकता है कि जिसप्रकार धवला के कारण षट्खण्डागम के पाँच खण्ड 'धवल', छठा खण्ड-महाबन्ध 'महाधवल' कहा जाता है, उसी प्रकार 'जयधवला' के कारण कसायपाहुड' को 'जयधवल कहा जाता है।
कलेवर:-कसायपाहुड 15 अधिकारों में विभक्त है, जो इसप्रकार है: 1. पेज्जदोसविभक्ति, 2. स्थितिविभक्ति, 3. अनुभागविभक्ति, 4. प्रदेशविभक्ति-झीणाझीणस्थित्यन्तिक, 5. बन्धक, 6. वेदक, 7. उपयोग, 8. चतुःस्थान, 9. व्यंजन, 10. दर्शनमोहोपशामना, 11. दर्शनमोहक्षपणा, 12. संयमासंयमलब्धि, 13. संयमलब्धि, 14. चारित्रमोहोपशामना तथा 15. चारित्रमोहक्षपणा।
_ अधिकारों के नाम से ही यह सुज्ञेय है कि आत्मा की अन्तर्वृत्तियों के विश्लेषण तथा परिष्करण की दृष्टि से यह ग्रन्थ कितना महत्त्वूपर्ण है।
षट्खण्डागम की भाषा:-मथुरा के आस-पास का क्षेत्र कभी शूरसेन जनपद के नाम से प्रसिद्ध रहा है। प्राकृतकाल में वहाँ जो भाषा प्रचलित रही है, वह 'शौरसेनी प्राकृत' कही जाती है। यह भाषा शूरसेन जनपद के अतिरिक्त पूर्व में वहाँ तक, जहाँ से 'अर्द्धमागधी' का क्षेत्र शुरू होता था, पश्चिम में वहाँ तक जहाँ से पैशाची' का क्षेत्र शुरू होता था, प्रसृत रही है। कहने का अभिप्राय यह है कि एक समय ऐसा रहा, जब यह
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भाषा उत्तर भारत के मध्यवर्ती विस्तृत भू-भाग में प्रयुक्त थी।
दिगम्बर आचार्यों द्वारा अपने धार्मिक साहित्य के सृजन में जिस प्राकृत का प्रयोग हुआ है, लक्षणों से यह शौरसेनी के अधिक निकट है। इस सम्बन्ध में निम्नांकित तथ्य विशेष रूप से परिशीलनीय हैं।
दिगम्बर-सम्प्रदाय का मुख्य केन्द्र दक्षिण भारत रहा है। जिसके साथ अनेक प्रकार के कथानक जुड़े हैं, वह उत्तर भारत में व्याप्त द्वादशवर्षीय दुष्काल एक ऐसा प्रसंग था, जिसके परिणामस्वरूप घटित घटनाओं के कारण जैन-संघ दो भागों में बँट गया। उत्तर में जो जैन-संघ रहा, अधिकांशतया वह आगे चलकर श्वेताम्बर' के रूप में विश्रुत हो गया। यह परम्परागत आगमों की, चाहे अंशत: ही सही, अविच्छिन्नता में विश्वास रखता रहा। उसकी ओर से विभिन्न समयों में आयोजित आगम-वाचनाओं द्वारा अपने 'अर्द्धमागधी आगम-वाङमय' को सुरक्षित बनाये रखने का प्रयत्न भी चला। फलत: वह वाङ्मय सुरक्षित रह भी सका। श्वेताम्बर-मुनियों के माध्यम से आगे वह स्रोत प्रवहणशील रहा।
दिगम्बर-मुनियों की स्थिति दूसरी थी। उन्होंने महावीर-भाषित द्वादशांग-वाङ्मय को विच्छिन्न माना। इसलिए तदनुस्यूत भाषा के साथ भी उनका विशेष सम्बन्ध न रह सका। इस सम्प्रदाय के विद्वानों को, जब साहित्य-सृजन का प्रसंग आया, तो शौरसेनी का स्वीकार अधिक संगत लगा हो। क्योंकि उत्तर भारत का मुख्य भाग उससे प्रभावित था। हर कोई लेखक यह चाहता है, उसकी कृति स्थायी रहे । वह भाषा के अस्तित्व तथा महत्त्व पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है । शौरसेनी प्रभावशील भाषा थी। दिगम्बरलेखकों को उसमें कुछ ऐसी संभावनाएं प्रतीत हुई हों, वे मन में आश्वस्त रहे हों कि उन द्वारा उसमें प्रणीत साहित्य स्थायित्व लिए रहेगा।
एक दूसरी सम्भावना यह भी हो सकती है कि प्राचीन काल में दिगम्बर-सम्प्रदाय का उत्तर भारत से कुछ सम्बन्ध रहा भी, तो वह विशेषरूप से मथुरा के आस-पास के प्रदेश से रहा हो। उस कारण भी उस प्रदेश की भाषा को अपने धार्मिक साहित्य में ग्रहण करने की मन:स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
दिगम्बर-लेखकों द्वारा प्रयुक्त शौरसेनी' कही जाती है। इसका एक कारण तो यह है कि उसमें पहले-पहल ग्रन्थ-रचना वाले जैन विद्वान् ही थे, जिनकी अपनी परम्परा थी, अपनी शैली थी। उनके कारण वह भाषा, जो उनकी लेखिनी से पल्लवित और विकसित हुई, उनके विशेषण के साथ (जैन शौरसेनी) विश्रुत हो गई। ___एक और कारण भी है। जैनधर्म जब अविभक्त था, तब से उससे भी पूर्व भगवान् महावीर के समय से अर्द्धमागधी से विशेष सम्बद्ध रहा। भगवान् महावीर चाहे शब्दरूप में बोले हों अथवा उनके देह से ध्वनि रूप में उद्गार निकले हों, अन्तत: उनके भाषात्मक रूप की परिणति 'अर्द्धमागधी' में होती हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जाये तो अत्युक्ति नहीं
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होगी कि अर्धमागधी एक तरह से जैनधर्म की भाषा है। जैसाकि कहा गया है, यद्यपि दिगम्बरों का अर्द्धमागधी के साथ विशेष सम्बन्ध नहीं रहा, पर अर्हद्-वाणी या आर्षवाणी के रूप में उनके मन में जो पारम्परिक श्रद्धा थी, वह कैसे मिट सकती थी। इसके सिवाय पूर्वतन श्रुत-स्रोत के परिप्रेक्ष्य में भी उनके मस्तिष्क पर उसकी छाप थी। अत: उन्होंने यद्यपि लिखा तो शौरसेनी में, पर स्वभावत: उस पर अर्द्धमागधी का प्रभाव बना रहा। इसप्रकार अर्द्धमागधी अर्थात् जैनधर्म की भाषा या जैन भाषा से प्रभावित रहने के कारण वह 'शौरसेनी' जैन शौरसेनी कहलाने लगी।
दिगम्बर-लेखकों द्वारा प्रयुक्त प्राकृत के स्वरूप के सूक्ष्म पर्यवेक्षण तथा परिशीलन से ऐसा प्रतीत होता है कि यह नाम उस भाषा के अन्त:स्वरूप की यथार्थ परिचायकता की अपेक्षा उसके स्थूल कलेवरीय स्वरूप पर अधिक आधृत है, अन्यथा उन द्वारा प्रयुक्त भाषा में ऐसे उदाहरण भी हैं, जो ‘मागधी' आदि की सरणि से अधिक मेल खाते हैं। ___प्राकृत के विख्यात वैयाकरण डॉ० आर० पिशेल (Dr. Pischel) ने इसे जो जैन शौरसेनी' कहा है, उसके पीछे भी उसीप्रकार का अभिप्राय प्रतीत होता है। डॉ० वाल्टस सुब्रिग (Dr. Walter Schubring) के शिष्य डॉ० डेनेक (Dr. Denecke) ने डॉ० पिशेल (Dr. Pischel) द्वारा परिकल्पित जैन शौरसेनी' नाम को अनुपयुक्त बताया है। उन्होंने उसे 'दिगम्बरी भाषा' कहना अधिक उपयुक्त समझा है। डॉ०ए०एन० उपाध्ये आदि विद्वान् इसे ठीक नहीं मानते । बात ऐसी ही है, यदि दिगम्बर लेखकों द्वारा अपने ग्रन्थों का इस भाषा में लिखा जाना इसके 'दिगम्बरी भाषा' कहे जाने का पर्याप्त हेतु है, तो वह अव्याप्त है, क्योंकि दिगम्बर विद्वानों ने अपने धर्म का साहित्य कन्नड़ तथा तमिल जैसी भाषाओं में भी तो रचा है, बहुत रचा है; जो उन भाषाओं की निधि है। अत: स्थूल दृष्ट्या 'जैन शौरसेनी' नाम से इसे संज्ञित करना अनुपयुक्त नहीं लगता।
दिगम्बर-लेखकों द्वारा प्रयुक्त शौरसेनी में देशी' शब्दों के प्रयोग लगभग अप्राप्त हैं। कारण स्पष्ट है, वह भाषा उस प्रदेश में पनपी, विकसित हुई, जो द्रविड़ परिवारीय-भाषा-समूह से सम्बद्ध है तथा देशी-शब्दों के प्रयोग-क्षेत्र से सर्वथा बाहर है।
दिगम्बर-लेखकों द्वारा प्रयुक्त भाषा—शौरसेनी द्रविड़ परिवारीय भाषाओं से प्रभावित नहीं हुई, इसका कारण उन (द्रविड़ परिवारीय) भाषाओं का ध्वनि-विज्ञान, रूप-विज्ञान तथा वाक्य-रचना आदि की दृष्टि से आर्य-परिवारीय भाषाओं से भिन्नता है। संस्कृत का प्रभाव उस पर अवश्य अधिक है। एक तो शौरसेनी का प्रारम्भ से ही संस्कृत से विशेष लगाव रहा है, वररुचि ने तो इसकी उत्पत्ति ही संस्कृत" से बतलाई है तथा दूसरे संस्कृत को अपनी प्रभावापन्नता है, जिसकी अन्तत: परिणति हम समन्तभद्र, पूज्यपाद, अनन्तवीर्य तथा अकलंक जैसे महान् दिगम्बर संस्कृत-लेखकों में पाते हैं।
दिगम्बर-लेखकों द्वारा प्रयुक्त प्राकृत का यह संक्षिप्त विवरण है। स्थान, समय, स्थिति
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आदि के कारण विभिन्न कृतियों में भाषा के सन्दर्भ में कुछ भिन्नता या असदृशता भी रही है, पर वह बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है । अस्तु, षट्खण्डागम की भाषा जैन शौरसेनी प्राकृत है। मूल-सूत्रों तथा टीका की भाषा में जो यत्किंचित् भिन्नता है, उसका उत्तर देश, काल एवं परिस्थिति के व्यवधान में स्वयं खोजा जा सकता है।
शौरसेनी प्राकृत की मुख्य विशेषताएँ: – शौरसेनी प्राकृत की निम्नांकित मुख्य विशेषताएँ हैं ।
इसमें मध्यवर्ती क् के स्थान पर ग्, त् के स्थान पर द् तथा थ् के स्थान पर घ् होता है। वर्तमान काल प्रथम पुरुष एक वचन क्रिया में 'दि' लगता है । पूर्वकालिक क्रियात्मक अव्यय में प्रायः उअ, तु एवं 'दूण' प्रत्यय का प्रयोग होता है ।
संदर्भ-सूची
1. प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० 673-74
2. विशिष्ट प्रज्ञात्मक ऋद्धि-सम्पन्न
3. “ श्री वीरसेन इत्यात्तभट्टारकपृथुप्रथः, पारदृश्वाधिविश्वानां साक्षादिव केवली । यस्य नैसर्गिकीं प्रज्ञां दृष्ट्वा सर्वार्थगामिनीम्, जाताः सर्वज्ञसद्भावे निरारेका मनीषिणः । । यं प्राहुः प्रस्फुरब्दोधरीधितिप्रसरोदयम्, श्रुतकेवलिनं प्राज्ञाः प्रज्ञाश्रमणमुत्तमम्। प्रसिद्धसिद्धसिद्धान्तवार्धिवाधौतशुद्धधीः सार्द्धं प्रत्येकबुद्धैर्यः स्पर्धते श्रीद्धबुद्धिभिः।।" - ( जयधवला - प्रशस्ति 19, 21-23 )
4. “ पुस्तकानां चिरत्नानां, गुरुत्वमिह कुर्वता ।
येनातिशयिताः पूर्वे सर्वे पुस्तकशिष्यकाः । । " – (वही, 24 )
5. “ श्री वीरसेन इत्याप्तभट्टारकपृथुप्रथः, स नः पुनातु पूतात्मा वादिवुन्दारको मुनिः । लोकवित्त्वं कवित्वं च स्थितं भट्टारके द्वयम्, वाग्मिता वाग्मिनो यस्य वाचा वाचस्पतेरपि ।। ” - ( आदिपुराण उत्थानिका, 55-56)
6. “ धवलां भारतीं तस्य कीर्त्तिं च शुचिनिर्मलाम् ।
धवलीकृतनिःशेष-भुवनां तां नमाम्यहम् ।। " – ( आदिपुराण उत्थानिका 58 ) 7. “काले गते कियत्यपि ततः पुनश्चित्रकूटपुरवासीं, श्रीभानेत्वाचार्यो बभूव सिद्धान्ततत्त्वज्ञः । तस्य समीपे सकलं सिद्धान्तमधीत्य वीरसेनगुरुः, उपरितननिबन्धनाद्यधिकारानष्ट च लिलेख । । आगत्य चित्रकूटात्ततः स भगवान् गुरोरनुज्ञानात्, वाटग्रामे चात्रानतेन्द्रकृतजिनगृहे स्थित्वा। व्याख्याप्रज्ञप्तिमवाप्य पूर्वषट्खण्डतस्ततस्तस्मिन्, उपरितनबन्धनाद्यधिकारैरष्टादशविंकल्पैः । । सत्कर्मनामधेयं षष्ठं खण्डं विधाय संक्षिप्य, इति षण्णां खण्डानां ग्रन्थसहस्रैर्द्विसप्तत्या । प्राकृतसंस्कृतभाषा-मिश्रां टीकां विलिख्य धवलाख्याम्, जयधवलां च कषाय-प्राभृतके चतसृणां विभक्तीनाम् ।।
विंशतिसहस्रसद्ग्रन्थरचनया संयुतां विरच्य दिवम्, यातस्ततः पुनस्तच्छिष्यो जयसेन ( जिनसेन) गुरुनामा । तच्छेषं चत्वारिंशता सहस्रैः सभापितवान्, जयधवलैवं षष्टिसहस्रग्रन्थोऽभवट्टीका।।” - ( श्रुतावतार, 177-84)
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8. अठतीसम्हि सतसए विक्कामरायंकिए सु-सगणामे, वासे सुतरेसीए भाणुविलग्गे धवलपक्खे।
जगतुंगदेवरज्जे रियम्हि कुंभम्हि राहुणा कोणे, सूरे तुलाए संते गुरुम्हि कुलविल्लए होते।। चावम्हि तरणिवुत्ते सिंघे सुक्कम्मि मीणे चंदम्मि, कत्तियमासे एसा टीका हु समाणिआ धवला।।
-(धवला-प्रशस्ति, 6-8) 9. इतिश्री वीरसेनीया टीका सूत्रार्थदर्शिनी, वाटग्रामपुरे श्रीमद्गुर्जरार्यानुपालिते फाल्गुने मासिक
पूर्वाणे दशम्यां शुक्लपक्षके, प्रवर्द्धमानपूजोरूनन्दीश्वरमहोत्सवे आमेघवर्षराजेन्द्रराज्यप्राज्यगुणोदया, निष्ठिता प्रचयं यायादाकल्पान्तमनल्पिका एकोन्नषष्टिसमधिकसप्तशताब्देषु शकनरेन्द्रस्य, समतीतेषु समाप्ता जयधवला प्राभृतव्याख्या।।
-(जयधवला-प्रशस्ति, 6-9) 10. बन्धन के भेद—बन्ध, बन्धनीय, बन्धक, बन्ध-विधान।। 11. जं तं बंधविहाणं तं चउव्विहं, पयडिबंधो विदिबंधो अणुभागबंधो पदेसबंधो चेदि। एदेसिं
चदुण्णं बंधाणं विहाणं भूतबलिभडारएण महाबंधे सप्पवंचेण लिहिदं ति अम्हेहि एत्थ ण लिहिदं । तदो सयले महाबंधे एत्थ परूविदे बंधविहाणं समप्पदि।"
___ -(षट्खण्डागम, खण्ड 5, भाग 4, पुस्तक 14, पृ० 564) 12. “गुणधर-धरसेनन्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः ।
न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात् ।। 151 ।।" • 13. Comparative Grammar of the Prakrit Languages, Page 20-21
14. प्रकृति : संस्कृतम् . -(साभार उद्धृत : आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन, खण्ड 2, पृष्ठ 653-671)
'विजयधवला' आज कहाँ है? "धवलो हि महाधवलो, जयधवलो विजयधवलश्च।
ग्रन्था श्रीमद्भिरमी प्रोक्ता: कविधातरस्तस्यात् ।।" इस पद्य में उल्लिखित 'धवल', 'महाधवल' एवं 'जयधवल' —ये तीन महान् टीकाग्रन्थरूप सिद्धान्तशास्त्र तो आज उपलब्ध हैं; किन्तु 'विजयधवल' नामक एक अन्य ऐसे ही ग्रन्थ का इसमें उल्लेख है, जो कि आज तक अनुपलब्ध है। यह मनीषियों के द्वारा | गंभीरतापूर्वक अनुसन्धेय है।
___ वक्तृत्व मोक्षमार्ग नहीं है जिसप्रकार वीणा का रूप-लावण्य तथा तंत्री को बजाने का सुन्दर ढंग मनुष्यों के मनोरंजन का ही कारण होता है, उससे कुछ साम्राज्य की प्राप्ति नहीं हो जाती; उसी प्रकार विद्वानों की वाणी की कुशलता, शब्दों की धारावाहिकता, शास्त्र-व्याख्यान की कुशलता और | विद्वत्ता भोग ही का कारण हो सकती है, मोक्षमार्ग या मोक्ष नहीं। **
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कातन्त्र व्याकरण एवं उसकी दो वृत्तियाँ
- डॉ० रामसागर मिश्र
कातन्त्रव्याकरण अपने आप में महत्त्वपूर्ण होते हुए भी कुशल पारखियों के अभाव में उपेक्षित रहा है। फिर भी कुछ वैयाकरण विद्वान् ऐसे हैं, जिन्हें इसके बारे में चिन्ता लगी रहती है। ऐसे विद्वानों में ही दिल्ली विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के प्राक्तन आचार्य एवं अध्यक्ष डॉ० सत्यव्रत शास्त्री हैं । इन्हीं के दिल्ली विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के अध्यक्षपद पर कार्यरत रहते हुए मैंने पी-एच०डी० उपाधि प्राप्ति हेतु अपना शोधकार्य सम्पन्न किया। मुझे अपना शोधकार्य आंशिकरूप से समय लगाकर करना था, क्योंकि मैं जीविकोपार्जन क्रम में दिल्ली के शिक्षा विभाग के अन्तर्गत अध्यापन कार्यरत था । ऐसी स्थिति में कोई सामान्य विषय मुझे प्राप्त होना चाहिए था । किन्तु मुझे व्याकरणाचार्य होने के कारण अध्यक्ष जी की कुशल पारखी बुद्धि ने बख्शा नहीं, और कातन्त्रव्याकरण पर कार्य करने के लिए प्रेरणा दी तथा 'शिष्यहितान्यास' ग्रन्थ के सम्पादन का विषय स्वीकृत किया। यह एक ऐसा विषय था, जिसके बारे में कहीं भी किसी को सामान्यरूप से कुछ भी ज्ञात नहीं था। वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के शोधस्नातक डॉ० जानकी प्रसाद द्विवेदी ने 'कातन्त्रविमर्श' के नाम से एक सर्वेक्षणात्मक ग्रन्थ शोधप्रबन्ध के रूप में प्रस्तुत किया था, जिसके आधार पर 'कान्तत्रव्याकरण' की तीन मुख्य शाखाओं का पता चला था। पहली - वंगशाखा, दूसरी- कश्मीरशाखा, तीसरी - मध्यदेशीयशाखा एवं दक्षिण भारतीय शाखा। इनमें से वंग शाखा के प्रमुख विद्वान् वैयाकरण नवीं शती के आचार्य दुर्ग के द्वारा कातन्त्रसूत्रों पर लिखा गया 'दुर्गवृत्ति' नामक ग्रन्थ है, जिसका प्रकाशन वंगीय लिपि में 'कालाप-व्याकरण' नाम से कई संस्करणों में हुआ है तथा 'एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल' ने 'नागरी लिपि' में किया है, जिसके सम्पादक प्रो. जुलियस इग्लिन हैं।
कश्मीरशाखा में मेरे इस विषय पर शोधकार्य करने के पूर्व कोई भी ग्रन्थ प्रकाश में नहीं आया था, किन्तु भिन्न-भिन्न ग्रन्थागारों में अनेकानेक पाण्डुलिपियों के उपलब्ध होने की सूचना है।
दक्षिणभारतीय एवं मध्यभारतीय शाखा का कोई प्रमुख ग्रन्थ नहीं है, किन्तु आचार्य भावसेनत्रैविद्य द्वारा सम्पादित तथा जैनाचार्य श्रीमच्छर्ववर्म - विरचित कातन्त्रसूत्रों पर 'कातन्त्ररूपमाला' नाम से प्रकाशित ग्रन्थ उपलब्ध है ।
जिस विषय पर शोधकार्य करने हेतु मुझे अनुमति प्राप्त हुई, उसका शीर्षक ‘शिष्यहितान्यासस्य सम्पादनमध्ययनञ्च' है। 'शिष्यहितान्यास' एक पाण्डुलिपि-ग्रन्थ है । अभी तक ‘न्यास’ नाम से पाणिनीयव्याकरण - सूत्रों पर 'काशिकावृत्ति' पर उल्लिखित न्यास ही एक मात्र 'न्यास - ग्रन्थ' के नाम से जाना जाता रहा है। इसकारण से जिन-जिन
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वैयाकरणों से सम्पर्क किया गया, वे सभी इसी ‘काशिका न्यास' के अतिरिक्त अन्य न्यास-ग्रन्थों से अनभिज्ञ रहे। ऐसी स्थिति में 'कैटालोगस्कैटालोग्रुम' का आश्रय लेने पर 'वाडलियनलाइब्रेरी, आक्सफोर्ड-लन्दन' के ग्रन्थागार में 'शिष्यहितान्यास' नामक ग्रन्थ होने का पता चला तथा 'भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट' में स्थित इसकी प्रति को जीर्ण-शीर्ण होने के कारण पूना से इसे उपलब्ध कर पाना असम्भव था, केवल वहाँ जाकर देखा जा सकता था। किन्तु वाडलियन पुस्तकालय से पत्र-व्यवहार करने पर उसके माइक्रोफिल्म रूप में प्रेषित किए जाने की सूचना मिली। तदनुसार विभागीय संस्तुति के आधार पर दिल्ली विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को उसे मंगवाने का भार दे दिया गया। उस समय सन् 74 में केवल दो पौण्ड का मूल्य विश्वविद्यालय के पुस्तकालय द्वारा भेजा जाना था। उसे भेजने में एक वर्ष से अधिक समय बिता दिया, उसके बाद कहीं दूसरा वर्ष बीतते-बीतते यह पाण्डुलिपि ग्रन्थ माइक्रोफिल्म के रूप में प्राप्त हुआ तथा उसे फिल्म-रीडर की सहायता से देखने पर पता चला कि वह सम्भवत: शारदालिपि में है। इसके पढ़ने में संस्कृत विभाग के अभिलेख विशेषज्ञ आचार्यों की सहायता विफल रही। दिल्ली में ग्रीनपार्क स्थित कश्मीरी पण्डित के घर गया। उन्होंने इतना रूखा उत्तर दिया कि उनसे कार्यसम्पादन की आशा ही नहीं रही। अत: विवश होकर पुस्तकालयाध्यक्ष से निवेदन किया कि आप उसे मुझे दे दें, जिससे कि पुस्तकालय से बाहर ले आकर किसी विद्वान की सहायता ले सकूँ। उस समय के पुस्तकालयाध्यक्ष ने भी अनसुनी कर बाहर ले जाने की अनुमति नहीं दी और उसे महत्त्वपूर्ण बतलाकर मुझे देने से मना कर दिया। जब मैंने कहा कि वाडलियन लाइब्रेरी मुझे व्यक्तिगतरूप से भेजन का पत्र दिया था, केवल विदेशी मुद्रा के लिए ही आप से सहायता लेनी पड़ी, तो परिणाम यह हआ कि उन्होंने सहायता करने को स्पष्टरूप से मना कर दिया। मैं अध्यापक होने के कारण परिस्थितियों के जाल में फँस जाने के कारण इस विवाद को आगे नहीं ले जाकर उनके सामने विवश हो गया। इस असफलता के कारण मैं संस्कृत विभाग में पुन: आवेदन किया कि विषय बदल दिया जाए, किन्तु कोई परिणाम नहीं निकला। पुन: मैंने वाडलियन लाइब्रेरी को सीधे पत्र-व्यवहार प्रारम्भ किया, जिसके फलस्वरूप उन्होंने मुझे व्यक्तिगत बाण्ड पर उस पाण्डुलिपि का जीराक्स प्रति मुझे 39 या 40 डालर के मूल्य पर प्रेषित करने का वादा किया और उन्हीं के सुझाव के कारण शिक्षा मन्त्रालय से युनेस्को 6-7 माह बाद बुककूपन को प्राप्त कर वाडलियन लाइब्रेरी आक्सफोर्ड लन्दन को प्रेषित किया तथा वहाँ से 2-3 माह बाद उक्त पाण्डुलिपि की जीरॉक्स प्रति प्राप्त हुई। इसी दौरान निराश होकर संस्कृत विभाग के तत्कालीन आचार्य एवं अध्यक्ष डॉ० जोशी को आवेदन किया कि विषय बदल दीजिए।' परन्तु उन्होंने भी विषय बदलने के बजाय उसी पर कार्य करने की प्रेरणा दी।
इसप्रकार इस जीरॉक्स के मिलने पर यह स्पष्ट हो गया कि पाण्डुलिपिग्रन्थ
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'शारदालिपि' में है, जिसका पढ़ना अत्यन्त कठिन है। किन्तु व्याकरण का छात्र होने के कारण इस समस्या से हार मानना मेरे लिए बड़ा कठिन था। मैंने डॉ० सत्यव्रतशास्त्री से पुन: अनुरोध किया तथा इस बार उन्होंने उसमें रुचि लेते हुए एक ऐसा अनूदित अंश दिया जो था तो 8-10 पृष्ठ का ही, किन्तु उसके आधार पर उस स्थल को खोजकर वर्णों के संयोजन तथा संयुक्त वर्णों की प्रक्रिया को समझते-समझते शारदालिपि पढ़ने का पर्याप्त अभ्यास हो गया। इसमें मुझे सरलता इसलिए हुई कि मैं व्याकरण की शब्दावली से परिचित था, किन्तु यह शब्दावली पाणिनीय व्याकरण-परम्परा की न होकर कातन्त्रपरम्परा की होने के कारण मुझे शब्दों के वास्तविक स्वरूप निर्धारण में पर्याप्त कठिनाई हुई। इसप्रकार उत्साहित होकर प्रथम बार में निरन्तर 6-7 घंटे की बैठक के बाद प्रारम्भ कर आधा पृष्ठ पढ़ा। उस समय ऐसा अनुभव हुआ कि आँखे भविष्य में काम ही नहीं कर पायेगीं। मेरे इस अथक प्रयास के कारण यह कार्य लगभग दो वर्षों में पूरा हुआ। इसप्रकार कुल 7 वर्ष लगाकर मैं अपना शोधकार्य पूरा किया। इसके दौरान अनुभव किया कि शोधकार्य को बढ़ावा देने में विदेशी अधिक सहायक हैं, बनिस्पत स्वदेशी लोगों के। इसीलिए ही भारत के स्नातक विदेश से ही शोध करने में रुचि रखते हैं। ___ 'कातन्त्रव्याकरण' के ऊपर इस दुरूह कार्य के सम्पादन के बाद कातन्त्र-सूत्रों पर इस 'शिष्यहितान्यास' का प्रकाशन कर व्याकरण के ऐतिहासिक क्रम को चुनौती देना था। 'शिष्यहितावृत्ति' के लेखक दुर्ग हैं तथा शिष्यहितान्यास' उग्रभूति भट्ट द्वारा विरचित है। तथ्य यह है कि दसवीं शती के उत्तरार्ध में भारत के पश्चिमोत्तर प्रान्त वैहिन्द' क्षेत्र जो कि सम्प्रति अफगानिस्तान का अंग है, में शाह आनन्दपाल राजा राज्य करते थे। उनके गुरु आचार्य उग्रभूति भट्ट ने कातन्त्र-सूत्रों पर वृत्ति लिखी तथा स्वयं ही उस पर 'न्यास-ग्रन्थ' लिखा। तथा डॉ० कीथ के अनुसार “कश्मीर प्रान्त में कातन्त्रव्याकरण 13वीं शती के स्थान पर 10वीं शती के उत्तरार्ध में ही प्रचलित हुआ।" __न्यासग्रन्थ की पाण्डुलिपि को खोजते-खोजते राष्ट्रिय संग्रहालय, नई दिल्ली गया। वहाँ बड़ी कठिनता के बाद यह अवसर मिला कि मुझे वहाँ के निदेशक की अनुमति से एक पाण्डुलिपि-ग्रन्थ की छायाप्रति दी गयी, जो शारदा लिपि में थी। देखने से पता चला कि यह न्यास नहीं, अपितु 'शिष्यहितावृत्ति' थी। फिर भी प्रतिदिन जाकर एक घण्टा समय देकर लगभग एक माह में सभी 70 या 72 पृष्ठ को देवनागरी में अनूदित कर लिया। इस आशय से कि यह अपूर्ण है, फिर भी शायद कभी काम आ जाए। इसी न्यास के शोधकार्य के प्रसंग में पूना स्थित 'प्राच्यविद्या शोध संस्थान' गया तथा वहाँ पर मिलान करके देखा कि पाण्डुलिपि के प्रारम्भ के 20 पृष्ठ फट गये हैं एवं मध्य के भी लगभग 20 पृष्ठ अनुपलब्ध हैं तथा अपूर्ण हैं; फिर भी वहाँ निदेशक से प्रार्थना कर उसकी छायाप्रति माइक्रोफिल्म के रूप में ले लिया। कालान्तर में जब 1980 में शोधकार्य पूरा हो गया,
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थोड़ी राहत मिली; तब चिन्ता हुई कि न्यास-ग्रन्थ का प्रकाशन किया जाए। तथा बाद में 3-4 वर्षों के प्रयास के बाद 1990 में उसका प्रकाशन मैंने स्वयं किया; क्योंकि इस व्याकरण-ग्रन्थ के प्रफ पढ़ने में बड़ी सावधानी रखनी थी। जिसे कोई अन्य प्रकाशक नहीं कर सकता था तथा रुचि भी नहीं लेता। 3-4 वर्षों के अथक प्रयास के बाद ऐसी परिस्थिति में आया कि कार्य कुछ सरल हो गया तथा उसी के फलस्वरूप यह अमूल्य व्याकरण-ग्रन्थ विद्वज्जनों के समक्ष प्रस्तुत कर पाया हूँ। राष्ट्रिय संग्रहालय से प्राप्त अंश एवं पूना प्रति में प्राप्त बाद के अंश मिलाकर कुल एक प्रति ही सम्पादन-हेतु उपलब्ध है। उसमें भी अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण होने के कारण कुछ अंश अनुपलब्ध है तथा बीच-बीच में से कुछ पृष्ठ नष्ट हो गये हैं। उसकी जगह अध्ययन में तारतम्य बनाये रहने के लिए मैंने कातन्त्र-सूत्रों पर दुर्ग वृत्ति' का उल्लेख कर दिया है। दूसरी प्रति के उपलब्ध न होने से मैंने अपने व्याकरणसम्बन्धी अल्पज्ञान के ऊहा के आधार पर पाठ-निर्धारण किया है। मुझे इस बात का सन्तोष है कि मैं बहुत कुछ अंश में सफल रहा हूँ। फिर भी विद्वानों का मूल्यांकन समादरणीय है। . इस ग्रन्थ के सम्पादन में केवल एक पाण्डुलिपि के उपलब्ध होने एवं अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण तथा बीच-बीच से कुछ पत्र अनुपलब्ध होने के कारण शुद्ध-शुद्ध पाठों के निर्धारण में अत्यन्त कठिनाई का अनुभव हुआ है। केवल अनुभव, तर्क, कल्पना, औचित्य एवं व्याकरण-प्रयोगों के सादृश्य चिन्तर के आधार पर पाठ-निर्धारण का प्रयास किया गया है। 'शारदालिपि' में कुछ संयुक्त वर्णों तथा अन्य वर्णों तथा अन्य वर्णों का निर्णय करना कठिन है। उसमें से प, य, म, स, ष, थ, र्थ, क्ष, च्च, श्च, द्य एवं आ की मात्रा आदि प्रमुख हैं। जहाँ भ्रष्ट पाठ है, उन्हें बिन्दु रेखांकित कर छोड़ दिया गया है। बीच से क्रमश: 2020 एवं 25-25 आदि की संख्या में सूत्रों पर 'शिष्यहितावृत्ति' का पाठ अनुपलब्ध है। ऐसे स्थल पर केवल पाठकों की सुविधा-हेतु 'कातन्त्रव्याकरण' के सूत्रों के साथ-साथ मात्र 'दुर्गवृत्ति' का ही उल्लेख किया गया है। जिससे कि पाठकवृन्द के अध्ययन में बाधा न पहुँचे। समयाभाव के कारण धातुपाठ का पृथक् उल्लेख नहीं कर पा रहा हूँ। आशा है कि भविष्य में 'कातन्त्रव्याकरण' के अन्य पाण्डुलिपि ग्रन्थों का सम्पादन करते समय इन सबका समुचित उल्लेख कर सकूँगा।
शत्रु और स्वजन 'शरीरेऽरि: प्रहरति हृदये स्व-जनस्तथा। कस्य स्वजनशब्दो मे लज्जामुत्पादयिष्यति।।'
-(महाकवि भास, प्रतिमा नाटक, 1/11) अर्थ:-बाहरी शत्रु केवल देह पर आघात करता है, किंतु स्वजन मर्मस्थान पर ही आघात करते हैं। न जाने इस विपत्ति में कौन स्वजन निमित्त हुए हैं? जिनकी याद मेरे लिये लज्जाकर होगी।
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आचार्य कुन्दकुन्द का आत्मवाद
-विद्यावारिधि डॉ० महेन्द्र सागर प्रचंडिया
आत्म और अध्यात्म-जगत् के प्रभावंत और प्रज्ञावंत नक्षत्र थे 'आचार्य कुन्दकुन्द'। आपका जन्म कर्नाटक के कोंडकुंदि' नामक ग्राम में हुआ था। आपके पिताश्री का नाम 'करमंडु' और मातुश्री का नाम था 'श्रीमती' । बोधपाहुड' नामक ग्रंथ के अनुसार आपके गुरुश्री का नाम था 'भद्रबाहु'। ____ 'कोंडकुंड' आचार्य कुंदकुंद का पूर्व, किन्तु अपूर्व रूप था; जो कन्नड़ भाषा में चिरंजीवी रहा। आचार्य कुंदकुंद 'आत्म' और 'अध्यात्म' के विशिष्ट व्याख्याकार थे। निश्चयनय के द्वारा आत्म और अध्यात्म के साँचे ढालकर आपने आगम के रूप को अपूर्व स्वरूप प्रदान किया है।
संसार की जितनी धार्मिक मान्यतायें हैं, उनका मूल आधार 'आत्मा' और 'परमात्मा' पर टिका हुआ है। कुछ धार्मिक मान्यताएँ 'परमात्मवादी' हैं और कुछ हैं 'आत्मवादी'। परमात्मवादी धार्मिक-परम्परा को 'ईश्वरवादी' भी कहा गया है; जो संसार-चक्र का संचालन करती है। आत्मा को वही 'शुभ' और 'अशुभ' की ओर उन्मुख करता है। यहाँ जीवात्मा की अपनी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। __संसार की कुछेक धार्मिक मान्यतायें ईश्वर के सिंहासन पर आत्मा को प्रतिष्ठित करती हैं। इस परम्परा में जैनधर्म सर्वोपरि है। इनकी दृष्टि में आत्मा और परमात्मा • कोई अपरिचित सत्ता नहीं है, अपितु वह परम-विकसित विशुद्ध तथा निर्मल आत्मा का ही परमात्मस्वरूप है। सूक्ति-शैली में इसे इसप्रकार भी कहा जा सकता है-“कर्मयुक्त जीव 'आत्मा' है और कर्ममुक्त जीव 'परमात्मा' ।"
जैनधर्म और दर्शन का मुख्य मेरुदण्ड है—'आत्मवाद' । आत्मा ही कर्म का कर्ता है और स्वकृत कर्म-फल-सुख-दु:ख का भोक्ता है। वही इनसे मुक्ति प्राप्त करनेवाला है। इसप्रकार आत्मा का निर्विकार निरंजन, निर्मल सिद्धस्वरूप ही परमात्मा है।
महामनीषी आचार्य कुंदकुंद ने आगम के वातायन से आत्मवाद को जिस खूबी से उपन्यस्त किया है, यहाँ संक्षेप में उसी को शब्दायित करना हमारा मूल अभिप्रेत है। ___ आचार्य कुंदकुंद जब आगम का आलोड़न कर रहे थे, उस समय भारतीय दर्शन-जगत् में एक वैचारिक क्रान्ति चल रही थी, उसके परिणाम स्वरूप अनेक दार्शनिक मान्यताओं को रूप प्रदान किया गया था। इन दार्शनिक मान्यताओं के नियामकों में पारस्परिक द्वन्द्व था और द्वेष भी। साथ ही तत्कालीन भारतीय दार्शनिक मान्यताएँ भी प्रभावित हो रही थीं। अद्वैत की आँधी ने आचार्य कुंदकुंद को आगमिक सत्य को सुरक्षित रखने के लिये प्रेरित किया था। उस समय 'उपनिषद्' के ब्रह्म-अद्वैत तथा बौद्धदर्शन के 'शून्यवाद' और
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'विज्ञानवाद' अपनी अभिनव उद्भावना और सम्भावना को लेकर दार्शनिक सिंहासन पर प्रतिष्ठित हो रहे थे। तभी आचार्य कुंदकुंद ने अत्यन्त सादगी और स्वाभाविक भाषा-शैली में आगमिक सत्य को उपन्यस्त कर लोगों की तत्कालीन भावना और प्रभावना का यथेष्ट प्रक्षालन किया था। उन्होंने इन वादों और विवादों से ऊपर उठकर आत्मवाद का स्वरूप प्रदान किया था।
भारतीय और भारतेतर सभी दर्शनों में आत्मतत्त्व की विवेचना अपने-अपने ढंग से निरूपित है। जैनदर्शन में भी आत्मा के अस्तित्व तथा उसके स्वरूपादि का विवेचन हुआ है। आचार्य कुंदकुंद जैनदर्शन के प्रखर प्रवक्ता तथा आध्यात्मिक अन्वेषक थे। उन्होंने आत्मस्वरूप विशेष की विवेचना जिस सुन्दर ढंग से प्रस्तुत की है, यद्यपि वह सब बीजरूप में जैन-आगमों में पूर्वत: विद्यमान है; किन्तु अपनी प्रतिभा, मेधा और व्याख्यानबल के आधार पर आगम के गूढ़तम रहस्यों को 'नयों' और 'निक्षेपों' के माध्यम से सरल तथा सुबोध शैली में अवश्य स्पष्ट किया है कि 'आगम में अमुक बात किस अपेक्षा नय और किस निक्षेप के साथ कही गयी है। कौन-सी दृष्टि यथार्थ-स्वरूप को प्रकट करती है।' -इस दृष्टि से आचार्य की यह अभिनव देन मानी जायेगी। 'समयसार' प्रभृति ग्रंथों में उन्होंने निश्चयनय विशेष का अवलम्बन लिया है। उनकी दृष्टि में समयसार' अर्थात् निश्चयनय की दृष्टि में जो ज्ञाता है, वही वस्तुत: आत्मा है। - आत्मा का सम्पूर्ण वैशिष्ट्य ज्ञान में केन्द्रित कर तत्सम्बन्धित समस्त भेदों को अभेद में बदल दिया है। आत्मा ही सर्वस्व है। उसका अवलम्बन ही मुक्ति है, किन्तु इस अभेद दृष्टि से वे सन्तुष्ट नहीं हुये; क्योंकि उनके काल में जो दार्शनिक द्वन्द्व था, वह 'अद्वैतवाद' का था। यथा-'उपनिषद्' का ब्रह्म-अद्वैत, वेदान्त का आत्म-अद्वैत, बौद्धदर्शन का शून्य-अद्वैत और विज्ञान-अद्वैत आदि। ऐसे में आचार्य कुन्दकुन्द ने जैनदर्शन के निश्चयप्रधान अध्यात्मवाद को समकालिक दार्शनिक-चेतना के समक्ष प्रस्तुत किया तथा 'भाव-निक्षेप' और निश्चयनय के माध्यम से जैनतत्त्वों का सविस्तार निरूपण कर जैनदर्शन को अन्य दर्शनों के समक्ष अभिनवरूप में प्रकट किया। इन दोनों का आश्रय लेने पर ही द्रव्य और पर्याय, द्रव्य और गुण, धर्म और धर्मी, अवयव और अवयवी आदि अनेक भेद मिटकर अभेद की स्थिति आ जाती है। और इसप्रकार वेदान्त का अद्वैतवाद, बौद्ध का विज्ञानवाद–इन सबका समाधान इन्हीं दोनों-भावनिक्षेप और निश्चयनय में ही गर्भित है। ये कोई नई चीज नहीं है, जैनागम में इसका निरूपण बहुत पहिले से ही बीजरूप में था, जिसे आचार्य कुंदकुंद ने वृक्ष जैसा आकार/रूप दे दिया है। ____आचार्य कुंदकुंद आगम को स्पष्ट करते हुये कहते हैं कि “निश्चयनय से वस्तु के पारमार्थिक एवं तात्त्विक शुद्धस्वरूप को जाना जा सकता है; जबकि व्यवहारनय से वस्तु के अपारमार्थिक, अतात्त्विक एवं अशुद्धस्वरूप को।" आचार्यश्री आगे कहते हैं कि “वस्तु
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के स्वरूप का सम्पूर्ण ज्ञान किसी एक नय से नहीं हो सकता, उसके लिये दोनों नय स्वीकारने होंगे। और दोनों ही सापेक्षगत हैं। एक अपेक्षा से जीव बद्ध है, नित्य है, वर्णयुक्त है, मूर्त आदि है और दूसरे की अपेक्षा से वह अबद्ध है, अनित्य है, अवर्ण है, अमर्त्त है। जब दोनों अपेक्षाओं अर्थात नयों का ध्यान रखकर जीव के स्वरूप की चर्चा करते हैं, तो जीव इन सबसे परे है अर्थात् वह न तो बद्ध है और न अबद्ध है, –यही समयसार है, यही परमात्मा है।" ___ आचार्य कुंदकुंद की दृष्टि में संसार के समस्त पदार्थों का समावेश द्रव्य, गुण, पर्याय में हो जाता है। इनमें परस्पर भेद होने पर भी वस्तुत: भेद नहीं है। जैसे ज्ञानी से ज्ञान गुण को, धनी से धन के समान अत्यन्त भिन्न नहीं माना जा सकता है। आचार्य कुंदकुंद ने इसी आधार पर द्रव्य, गुण, पर्याय का भेदाभेद स्वीकार किया है।
पुद्गल-द्रव्य की व्याख्या भी 'निश्चय' और 'व्यवहार' नय से करते समय वे कहते हैं- कि निश्चयनय की अपेक्षा से परमाणु को ही पुद्गल कहा जा सकता है। अब यह व्याख्या की जाती है, तब पुद्गल के गुण जो स्वभावजन्य हैं और पर्याय जो विभावजन्य हैं, उसे ध्यान में रखा जाता है; क्योंकि शुद्ध पुद्गल के गुण स्वाभाविक होते हैं, जबकि स्कन्ध के गुण वैभाविक होते हैं। इसप्रकार परमाणु का अन्य-निरपेक्ष परिणमन 'स्वभाव पर्याय' है और परमाणु का स्कन्धरूप परिणाम अन्य-सापेक्ष होने से विभाव पर्याय' है। यहाँ अन्य-निरपेक्ष परिणमन को जो स्वभाव पर्याय' कहा गया है, उसका तात्पर्य इतना ही है कि वह परिणमन काल-भिन्न अन्य किसी निमित्तकारण की अपेक्षा नहीं रखता; क्योंकि सभी प्रकार के परिणामों में काल ‘कारण' होता ही है।
आत्मा एक स्वतंत्र, शाश्वत, द्रव्य तथा तत्त्व है। उसमें अनंतशक्ति विद्यमान है। प्रत्येक आत्मा परमात्मा बनने की क्षमता रखता है। आत्मा से परमात्मा तक पहुँचने के लिये जीव को कषाय-कौतुक और मोह-मुक्ति परमावश्यक है। इन सभी विभावों से मुक्त्यर्थ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। इसे चरितार्थ करने के लिये तप और संयम की आवश्यकता है। इसप्रकार जीव जन्म-मरण के दारुण दुःखों से मुक्त होकर सिद्धात्मा बन सकता है। सिद्धात्मा ही वस्तुत: परमात्मा है। सन्दर्भ-सूची 1. समयसारो - 6,7, 10, 11, 16, 21, 152-153 । 2. पवयणसारो - 1- 59, 60, 87।
2- 14, 16 और 871 3. णियमसारों - 27, 28, 29, 95, 100, 158। 4. पंचत्थिकायसंगहो - 52।
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प्रेरक व्यक्तित्व
डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल
–श्रीमती ममता जैन
बीसवीं शताब्दी में दिगम्बर जैनसमाज का इतिहास एक ऐस महापुरुष के अनन्य उपकारों का चिरऋणी है, जिसने विद्वानों का ऐसा अक्षयवृक्ष लगाया था, जिसके मधुर फलों से समाज आज तक लाभान्वित हो रही है; वे थे स्वनामधन्य गुरुवर गोपालदास जी बरैया। आपके द्वारा मुरैना (म०प्र०) में स्थापित श्री गोपाल दि०
जैन सिद्धांत महाविद्यालय से शिक्षा ग्रहण कर अनेकों मनीषी विद्वान् निकले हैं, जिन्होंने अपनी ज्ञानज्योति से समाज को तो लाभान्वित एवं गौरवान्वित किया ही है; साहित्य और संस्कृति का पोषण एवं संरक्षण भी प्रचुर परिमाण में किया है। इसी गरिमाशाली विद्वत्सन्तति के एक विशिष्ट विद्वान् हैं डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल।
जीवन-परिचय:-बुन्देलखण्ड की धरती को विद्वानों की खान' अवश्य कहा जा सकता है। कम से कम उन्नीसवीं एवं बीसवीं शताब्दी का इतिहास तो स्पष्ट साक्षी है कि दिगम्बर जैन समाज में जितने भी विद्वान् हये हैं, उनमें से लगभग 80% विद्वान् मात्र बुंदेलखंड अंचल से ही आये हैं। इसका मूलकारण है यहाँ की जैन समाज की जैन तत्त्वज्ञान एवं सदाचार में गहन रुचि। नितान्त अनपढ़ ग्रामीण महिलायें भी भक्तामर स्तोत्र, तत्त्वार्थसूत्र, आलोचनापाठ एवं नित्यपूजन आदि कंठस्थ याद रखती है तथा मंदिरों में नित्यप्रति पूजनपाठ करनेवालों एवं धार्मिक अवसर-विशेष पर उपस्थित होनेवाला विशाल जनसमुदाय स्पष्ट कर देता है कि यहाँ की समाज में धार्मिक संस्कार कितने गहरे बैठे हुये हैं। बिना देवदर्शन किये एक छोटे बच्चे को भी माँ भोजन नहीं देती है, कहती है कि “पहिले मंदिर दर्शन करके आओ, तब भोजन मिलेगा।" ऐसे संस्कारी अंचल के केन्द्र ‘ललितपुर जिले के अन्तर्गत एक छोटा-सा गाँव है 'बरौदास्वामी' । वहाँ के निवासी श्रीमान् हरदास जी एवं उनकी सहधर्मिणी श्रीमती पार्वतीबाई (नन्नीबाई) एक मध्यवर्गीय परिवार के धार्मिक संस्कार-सम्पन्न आदर्श दम्पत्ति थे। इस गाँव के समीप ही एक धार्मिक क्षेत्र है—सिरोंज । वहाँ लगने वाले वार्षिक मेले में ये प्रतिवर्ष जाते तथा वहाँ विद्वानों के धार्मिक व्याख्यान सुनकर ये अत्यन्त प्रभावित होते थे। इनके मन में भी भावना उमड़ती कि काश ! उनके बच्चे भी ऐसे विद्वान् बनें, जो हजारों की जनसभा में जैन तत्त्वज्ञान को सुना-समझा सकें।' संभवत: इसी प्रबल भावना के फलस्वरूप इनके आँगन में ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी, शनिवार, 25 मई 1935 ई० को एक ऐसा पुत्ररत्न
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उत्पन्न हुआ, जिसने देश-विदेश में जैनों एवं जैनेतरों के बीच भी जैनतत्त्वज्ञान का अत्यन्त प्रभावी रीति से प्रचार-प्रसार किया तथा यह समर्पित नैष्ठिक कार्य आज तक निरन्तर चालू है। वही पुत्ररत्न आज 'डॉ० हुकमचंद भारिल्ल' के नाम से विख्यात हैं।
शिक्षा:—आपने अपने अग्रज (पं० रतनचंद भारिल्ल) के साथ प्राईमरी की शिक्षा गाँव से 5 कि०मी० दूर स्थित ननौरा की प्राईमरी पाठशाला से ग्रहण की, जिसके लिए आपको प्रतिदिन पैदल जाना-जाना पड़ता था। फिर आपके पिताश्री ने धार्मिक शिक्षा एवं संस्कारों की प्राप्ति के निमित्त आपको दि० जैन क्षेत्र पपौरा जी भेज दिया, जहाँ आप मात्र चार माह तक ही अध्ययन कर सके। इसके उपरान्त सन् 1945 ई० में आपने देश के सुप्रतिष्ठित 'श्री गोपाल दिगम्बर जैन सिद्धांत महाविद्यालय, मुरैना (म०प्र०)' में प्रवेश लेकर जैनदर्शन, न्याय एवं तत्त्वज्ञान का गहन अध्ययन किया तथा यहीं से शास्त्री' एवं 'न्यायतीर्थ' की परीक्षायें उच्चश्रेणी में उत्तीर्ण की। फिर 1960 ई० में इलाहाबाद से हिंदी की प्रतिष्ठित उपाधि साहित्यरत्न' को भी श्रेष्ठ अंकों के साथ अर्जित किया। किंतु इन सब उपाधियों की विश्वविद्यालय स्तर पर कोई विशेष मान्यता नहीं थी, अत: लौकिक दृष्टि से 1962 में उच्च माध्यमिक (हायर सेकेण्ड्री) एवं 1965 ई० में स्नातक (बी०ए०) की परीक्षायें स्वयंपाठी छात्र के रूप में उत्तीर्ण करने के बाद इन्दौर (म०प्र०) के 'शासकीय आर्ट एण्ड कॉमर्स कॉलेज' से 'स्नातकोत्तर परीक्षा' (एम०ए०) हिन्दी भाषा एवं साहित्य' विषय से उत्तीर्ण की। यहीं से 1971 ई० में आपने अपना विख्यात शोध-प्रबन्ध 'पण्डित टोडरमल : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व' पूर्ण किया, जिस पर आपको देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय, इन्दौर ने डॉक्टरेट (पी-एच०डी०) की सम्मानित उपाधि प्रदान की। __आजीविका:-बीसवीं शताब्दी के चौथे-पाँचवें दशकों में भारतीय ग्राम्य-अंचलों में विवाह का दायित्व माता-पिता जल्दी ही पूर्ण कर लेते थे, तथा भले ही इस बंधन में बंधने वाले दम्पत्ति-युगल को इस बारे में कुछ बोध हो या नहीं, किंतु यह बंधन उन्हें सामाजिकरूप से स्वीकार करना पड़ता था। इसी क्रम में आपका भी विवाह शीघ्र हो गया
और पारिवारिक दायित्व कंधों पर आने से आजीविका की अनिवार्यता देखते हुये आपने सन् 1954 ई० में सर्वप्रथम पारौली के जैन मिडिल स्कूल में प्रधानाध्यापक' के पद पर कार्य प्रारम्भ किया। फिर अधिक तालमेल न बन पाने से सन् 1956 ई० में बबीना (उ०प्र०) में अपना निजी व्यापार प्रारंभ किया। किंतु उसमें भी मन नहीं रम सका, तो 1957-58 के दो वर्षों तक अशोकनगर (म०प्र०) की जनसमाज में धार्मिक शिक्षण का कार्य किया। फिर यहीं पर हायर सेकेण्ड्री स्कूल में संस्कृत एवं हिंदी के शिक्षक के रूप में 1959 से 1965 तक कार्यरत रहे। आगे बढ़ने और कुछ कर दिखाने की ललक आपको इन्दौर ले गयी, जहाँ पर आपने 1966-67 तक 'श्री त्रिलोकचन्द जैन हायर सेकेण्ड्री स्कूल' में संस्कृत एवं हिन्दी विषयों का अध्यापनकार्य किया। अन्तत: जयपुर-निवासी
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रत्नों के पारखी धर्मानुरागी श्री पूरणचन्द जी गोदीका ने आपको एक विद्वद्रत्न के रूप में परखा एवं आपको जयपुर में स्थापित संस्था 'पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट' में कार्य करते- हेतु ले आये, जहाँ पर आज तक आप केन्द्रीय व्यक्तित्व के रूप में निरन्तर अपनी सेवायें प्रदान कर रहे हैं। यह आपके ही श्रम, समर्पण एवं कौशल का सुपरिणाम है कि आज 'टोडरमल स्मारक ट्रस्ट' देश-विदेश में जैनसमाज की प्रतिनिधि संसथा के रूप में जाना जाता है 1
क्रान्तिकारी परिवर्तन:- जब आप बबीना में व्यापार-मग्न हो अर्थार्जन में निमग्न हो गये, तभी संयोगवश आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी का तीर्थराज सम्मेदशिखर जी की यात्रा को जाते हुये बबीना में आगमन हुआ । तब उनके आध्यात्मिक प्रवचनों का इनके मन पर गहरा प्रभाव हुआ तथा पुनः ज्ञानपिपासा बड़ी । तब से आप पुनः समाजसेवा एवं ज्ञानार्जन के क्षेत्र में लौटे। इसप्रकार यह आपका मानो पुनर्जन्म था, जो कि समाज के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ । क्योंकि इसी वैचारिक परिवर्तन से उत्पन्न ऊर्जा ने आपके निमित्त से देश-विदेश में जैनतत्त्वज्ञान का व्यापक प्रचार कराया ।
समाजसेवा एवं धर्मप्रभावना: – समाज के सभी वर्गों में धर्मप्रभावना के निमित्त आपने बहुआयामी कार्यों का प्रवर्तन किया। अपने प्रभावी प्रवचनों द्वारा तो आपने जनजागृति की ही, विभिन्न शिक्षण-प्रशिक्षण शिविरों, धार्मिक आयोजनों, पंचकल्याणकप्रतिष्ठा महोत्सवों आदि के अतिरिक्त बच्चों में तत्त्वज्ञान को सिखाने के लिए धार्मिक पाठशालाओं का देशव्यापी संचालन आपके नेतृत्व में हुआ। आप की नयी पीढ़ी के बच्चों को आधुनिक शिक्षण पद्धति से तत्त्वज्ञान कराया जाये— इस निमित्त आपने समाज के उत्साही युवक-युवतियों को 'प्रशिक्षण शिविरों' में विशेष प्रशिक्षण भी प्रदान किया। इस प्रक्रिया का बड़ा सकारात्मक परिणाम रहा, तथा जो बच्चे धर्म पढ़ने पाठशाला जाने में संकोच करते थे, वे उत्साहपूर्वक पढ़ने जाने लगे। इसीप्रकार समाज में विधिवत् सर्वांगीण अध्ययन-सम्पन्न विद्वानों की व्यापक कमी एवं कार्यरत जैन- विद्याकेन्द्रों की प्राय: अनुत्पादकता को देखते हुये आपने पं० टोडरमल दिगम्बर जैन सिद्धान्त महाविद्यालय का सूत्रपात सन् 1976-77 में किया, जो अनवरत चालू है तथा जिसके सैकड़ों स्नातक देशभर में समाजसेवा कर रहे हैं। आज किसी भी प्रकार के आयोजन के लिए समाज में जहाँ कहीं भी अपेक्षा होती है, यहाँ के विद्वान् एवं कार्यकर्त्ता समर्पित भाव से समाजसेवा के लिए उपलब्ध हो जाते हैं। यह सब डॉ० भारिल्ल जी के दूरदर्शी व्यक्तित्व एवं सुयोग्य प्रबन्धनशैली का ही सुपरिणाम है। समाजसेवा के इस अविरल क्रम में आप सम्पूर्ण देश के अतिरिक्त विदेशों में भी लगभग इक्यावन स्थानों पर धर्मप्रचारार्थ प्रतिवर्ष दो माह के लिए अनेकों बार जा चुके हैं तथा आपकी वहाँ निरन्तर माँग बनी हुई है।
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साहित्यसेवा:-समाज में व्यापक धर्मप्रभावना के लिए आपने कार्यक्रमों एवं प्रवचनों तक ही अपने आपको सीमित नहीं रखा है, अपितु बहुआयामी साहित्य-सृजन कर अपने मिशन को और अधिक व्यापकता प्रदान की है। आपके द्वारा सृजित साहित्य की प्रमुख विशेषता यह है कि वह न केवल धर्म व तत्त्वज्ञान का प्ररूपण करता है, अपितु उसमें समसामयिक भाषा, प्रभावोत्पादक शैली एवं हृदयस्पर्शी शब्दावलि का सुन्दर समावेश होता है। कथा, कविता, निबन्ध, उपन्यास, बालोपयोगी पाठ, संवादपरक संक्षिप्त एकांकी, गंभीर तात्त्विक पुस्तकों के लेखन के अतिरिक्त सम्पादन एवं अनुवाद के क्षेत्र में भी आपने महत्त्वपूर्ण साहित्यिक कार्य किये हैं। आपके द्वारा लिखित, सम्पादित एवं अनूदित कृतियों की कुल संख्या पचास है, जो लगभग आठ भाषाओं में चालीस लाख प्रतियों के रूप में देश-विदेश में प्रसारित हो चुकी हैं। इससे आपके साहित्य की लोकप्रियता एवं प्रभावोत्पादकता स्वत: स्पष्ट है। आपकी अभी लगभग ग्यारह कृतियाँ प्रकाशन-सूची में प्रतीक्षारत हैं।
सम्मान:-समाज में प्राप्त अभिनंदनपत्रों एवं सम्मानपरक आयोजनों की गणना करने बैठे, तो डॉ० भारिल्ल को संभवत: स्वयं भी स्मरण नहीं होगा कि ऐसे छोटे-बड़े आयोजन कितने देश-विदेश में आयोजित हो चुके हैं। तथा समाजसेवी, वाणीभूषण, जैनरत्न, विद्याभूषण' आदि उपाधियाँ जो देश-विदेश के विशिष्ट संस्थानों द्वारा समय-समय पर समारोहपूर्वक दी गयीं हैं; वे भी आपके अगाध वैदुष्य, गरिमामय व्यक्तित्व एवं प्रभावशाली कृतित्व के समक्ष कोई विशेष महत्त्व नहीं रखती हैं। आपको इनके प्रयोग की अपेक्षा भी नहीं है। हाँ ! आपके व्यक्तित्व एवं कार्यशैली से प्रभावित होकर देशभर की अनेकों प्रमुख संस्थाओं ने आपको विभिन्न सम्मानित पदों पर मनोनीत करके आपकी व्यापकता को प्रमाणित कर दिया है।
आपके ‘णमोकार मंत्र' से लेकर 'समयसार' तक का जो देश-विदेश में प्रचारित किया है, उसका यदि पक्षव्यामोह से रहित होकर मूल्यांकन किया जाये, तो बीसवीं शताब्दी के जैन इतिहास में अन्य कोई विद्वान् आपके निकट दृष्टिगोचर नहीं होता है। आपकी यह धर्मयात्रा अनवरत जारी रहे तथा सुस्वास्थ्यपूर्वक दीर्घायुष्य प्राप्त कर आप इसी तरह उन्नतिपथ पर अग्रसर रहें - ऐसी मंगलकामना है।
श्रावक को सभी प्राणियों की रक्षा करनी चाहिये
“गो-बाल-ब्राह्मण-स्त्री पुण्यभागी यदीष्यते। सर्वप्राणिगणत्रायी नितरां न तदा कथम् ।।"
-(आचार्य अमितगति, श्रावकाचार, 11/3) अर्थ: यदि गौ, ब्राह्मण, बालक और स्त्री की रक्षा करनेवाला पुण्यभागी है, तो जिसने सम्पूर्ण प्राणीसमूह की रक्षा का व्रत लिया है, वह उससे विशिष्ट क्यों नहीं? अर्थात् वह अवश्य विशिष्ट है।
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भारतीय शिक्षण व्यवस्था एवं जैन विद्वान्
- श्रीमती अमिता जैन
भारतीय शिक्षण-व्यवस्था में प्राचीनकाल से ही संस्कृत एवं प्राकृतभाषाओं का शिक्षा-माध्यमों के रूप में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । ईसापूर्वकाल से ही प्राचीन शिलालेखों, अभिलेखों, धार्मिक साहित्य, लोक साहित्य (विशेषत: नाटकों) एवं वैज्ञानिक साहित्य (लोकोपयोगी कलाओं, विद्याओं, तकनीकी शिक्षा, रसायन एवं भौतिक ज्ञानविधाओं आदि को प्रस्तुत करनेवाले साहित्य) में इन्हीं दोनों भाषाओं का ही प्रमुखतः योगदान मिलता है। इस तरह से हम संस्कृत एवं प्राकृत भाषाओं को भारतीय ज्ञान - विज्ञान एवं साहित्य-संस्कृति-इतिहास की 'संवाहिका भाषायें' कह सकते हैं ।
भारत में दो प्रधान संस्कृतियाँ रही हैं, एक 'श्रमण-संस्कृति' और दूसरी ‘वैदिक-संस्कृति' । इनमें श्रमण संस्कृति के पुरोधाओं ने जन-जन तक निष्पक्षभाव से ज्ञान का आलोक पहुँचाने की दृष्टि से मूलत: 'प्राकृतभाषा' को अपनाया, किंतु उन्होंने ज्ञान एवं लेखन के लिए 'संस्कृत' को भी समानरूप से प्रश्रय दिया । आज उपलब्ध जैन - वाङ्मय इस तथ्य का प्रबल साक्षी है, कि जहाँ आगम-ग्रंथ 'प्राकृत' में निबद्ध हुये, वहीं उसका अपार व्याख्या- -साहित्य, उपजीवी साहित्य एवं स्वतंत्र लेखन 'संस्कृतभाषा' में विपुल परिमाण में निबद्ध हुआ है। प्रायः सभी जैनाचार्य एवं विद्वान् 'प्राकृत' के साथ-साथ 'संस्कृत' के भी अच्छे ज्ञाता थे। उन्होंने न केवल स्वयं 'प्राकृत' के साथ 'संस्कृत' को विधिवत् सीखा, अपितु 'समाज-व्यवस्था' में भी जनसामान्य के मध्य इस तथ्य को प्रसारित किया । इसीलिए सामान्य जैन श्रावक-श्राविकायें एवं बच्चे 'प्राकृत' एवं 'संस्कृत' को सीखते-समझते रहे 1
प्राचीन भारतीय शिक्षण-व्यवस्था में भी कोई भेदभाव मुख्यतः नहीं था, इसीलिए उन्हें अध्यापकगण ‘गुरुकुलों' में निष्पक्षभाव से भाषाओं एवं शास्त्रों का ज्ञान प्रदान करते रहे। किंतु मुगलों के शासन में भारतीय जनमानस बुरी तरह पददलित होने से कुछ कुंठाग्रस्त हो गया तथा उसके परिणामस्वरूप वैचारिक संकीर्णता उदित हुई। इसका प्रभाव शिक्षाजगत् पर भी पड़ा। जहाँ एक ओर स्त्रीशिक्षा इससे प्रभावित हुई, वहीं जातिवादी - संकीर्णमानसिकता के वर्गविशेष के अतिरिक्त शेष भारतीय समाज को शिक्षा के द्वार बंद कर दिये गये। फिर भी जैनसमाज ने शिक्षा के प्रसार को 'परमात्मा की आराधना के समान आवश्यक' मानते हुये अनेकों प्रतिबंधों के बाद भी येन-केन-प्रकारेण चालू रखा। बच्चों को बाल्यावस्था से ही णमोकार मंत्र, चत्तारिमंगलपाठ, प्रतिक्रमणसूत्र, सामायिक पाठ, द्रव्यसंग्रह आदि के माध्यम से 'प्राकृतभाषा' का अभ्यास कराते रहे, तो भक्तामर स्तोत्र, कल्याणमंदिर स्तोत्र, तत्त्वार्थसूत्र आदि के द्वारा 'संस्कृतभाषा' का बोध जीवित रखा। इसमें उन्होंने स्त्रियों को प्रतिबंधित नहीं किया, तभी तो मात्र चौके-चूल्हे तक सीमित रहने वाली
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महिलायें भी इन पाठों का नित्य पारायण करती रहीं। और इनके माध्यम से संस्कृत-प्राकृत भाषायें उनकी साँसों में प्रतिध्वनित होती रहीं।
जैन समाज की आंतरिक शिक्षण व्यवस्था भले ही कितनी ही उदार रही हो, किंतु भारतीय समाज इस युग में शिक्षण व्यवस्था के प्रति पर्याप्त संकीर्ण विचारधारा में जकड़ चुका था। शैक्षिकरूप से उच्चवर्ग कहे जाने वाले ब्राह्मण-समाज ने निम्नवर्गों के साथ-साथ जैनों एवं बौद्धों को भी शिक्षालयों के द्वार बन्द कर दिये थे। जो जैन विद्वान यदि विधिवत् शिक्षा ग्रहण कर भी सके, तो वह उनके अदम्य साहस, अपूर्व त्याग एवं अनुपम सहिष्णुता का ही निदर्शन था। जैसे बौद्धों के प्रचण्ड प्रभाव के युग में अकलंकदेव ने बौद्ध बनकर गुरुकुल में शिक्षा ली थी और कैसे जान हथेली पर रखकर वे पढ़ सके थे—यह अपने आप में एक रोमांचकारी वृत्तान्त है। उनके भाई निकलंक का बलिदान एवं अकलंक का पद्मसरोवर में छुपकर प्राणरक्षा करना 'शिक्षा व्यवस्था' के वैषम्य का स्पष्ट प्रमाण है। लगभग ऐसी ही विकट स्थितियाँ अट्ठारहवीं सदी के प्रारंभ से लेकर बीसवीं सदी के छठवें दशक तक विद्यमान रही। यद्यपि इस बारे में विधिवत् प्रमाण संकलित कर कोई व्यवस्थित लेखन किया जाये, तो हजारों पृष्ठों का शोधग्रंथ बन सकता है; फिर भी यहाँ मात्र दो दृष्टान्तों को ही संक्षेपत: प्रस्तुत किया जा रहा है
महामनीषी विद्ववर्य पंडित माणिकचन्द्र जी कौन्देय ने 'धर्मफल सिद्धान्त' नामक अपनी पुस्तक में इस दुर्व्यवस्था के प्रति प्रकाश डालते हुए उस समय की स्थिति के रोमांचकारी विवरण प्रस्तुत किये हैं। तदनुसार बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशक में ज्ञाननगरी वाराणसी' में जैनों को पढ़ने-सीखने के लिए कोई विद्यालय नहीं था। संस्कृत शिक्षा के केन्द्र अनेक थे, किंतु उनमें जैनों को प्रवेश नहीं मिलता था। यहाँ तक कि उन्हें अस्पृश्य (अछूत) माना जाता है, वे उनके स्पर्श मात्र से घर, वस्त्र और शरीर को अपवित्र हुआ मानकर उसकी शुद्धि किया करते थे। पराकाष्ठा तो यह थी कि उनके साथ संभाषण मात्र से वे वैदिक विद्वान् अपना मुख अशुद्ध हुआ मानते थे। इसलिए उत्साही एवं लगनशील जैन छात्रों को अपनी धार्मिक पहिचान छिपाते हुए वैदिकों के रूप में ज्ञानार्जन कराना पड़ता था। उक्त पुस्तक के अनुसार पं० नरसिंह दास जी, पं० रणछोरदास जी, न्यायदिवाकर पं० पन्नालाल जी, पं० गौरीलाल जी, पं० रामदयालु ही एवं पं० कलाधर जी आदि उनके (लेखक के) पूर्ववर्ती विद्वानों ने ब्राह्मणवेश में संस्कृतभाषा एवं दर्शन न्याय आदि का शिक्षण प्राप्त किया; ताकि वे जैनग्रंथों का हार्द समझ सकें तथा समाज के अन्य जिज्ञासुओं को पढ़ा-लिखा सकें ग्रंथों का सम्पादन अनुवाद कर सकें। तथा उन्हीं तथ्यों को सरल शब्दों में नवीन पुस्तकों के रूप में लिख भी सकें।
यदि किसी जैन अध्येता की किंचित् भी असावधानी से उसके जैन होने का रहस्य खुल जाता था, जो उसे रातोंरात भागकर अपनी जान बचानी पड़ती थी। ऐसे ही एक
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घटनाक्रम में एक जैन अध्येता को वाराणसी से भागकर नदिया (नवद्वीप - बंगाल) में जाकर छद्मरूप में अपने शेष अध्ययन को पूर्ण करना पड़ा था ।
उक्त बिन्दुओं पर विचार करें, तो हम पाते हैं कि हमारे पूर्वज ने किस कीमत पर समाज में शिक्षण-व्यवस्था चालू रखी और ज्ञानज्योति को अखण्ड प्रज्वलित रखा। आज यह सरकार की समभावीनीति एवं स्वनामधन्य डॉ० मण्डन मिश्र जी एवं प्रो० वाचस्पति उपाध्याय जी जैसे उदारचेता महामनीषियों का ही महान् योगदान है; जिसके फलस्वरूप आज जैनों को संस्कृत-प्राकृत आदि भाषाओं एवं दर्शन - न्याय आदि ज्ञानविधाओं का निष्पक्षभाव से शिक्षण संस्कृत महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में दिया जाता है । यही नहीं, प्राकृतभाषा एवं जैनदर्शन के जितने भी विभाग, अध्ययनकेन्द्र आज देशभर में चल रहे हैं, नये खुल रहे हैं - वे भी इन्हीं के प्रत्यक्ष या परोक्ष योगदान से ही गतिशील हैं ।
प्राचीन व्यवस्था एवं परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में हम पाते हैं कि इन दोनों महामनीषियों ने जैनसमाज में भारतीय परंपरित शिक्षा को निष्पक्षभाव से प्रदान करने के लिए जो योगदान किया है, वह निश्चय ही स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है ।
भगवान् की भविष्यवाणी
'णग्गो मच्छादि आहारा ।'
- ( आचार्य नेमिचंद, त्रिलोकसार, 861, पृष्ठ 663) अर्थ :- कलियुग के अन्त में मनुष्य मछली आदि का भक्षण करने वाले और नग्न ही
होंगे।
राम एवं जनक शुद्ध शाकाहारी थे
'न मांसं राघवो भुंक्ते ।' - ( वा० रामायण, 36/41 ) अर्थ:-श्रीराम मांस नहीं खाते।
'निवृत्त-मांसस्तु तत्रभवान् जनक: ।' – ( भवभूति, 4/1 ) अर्थ ः– आदरणीय जनक महाराज मांस-परित्यागी है ।
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मुनिजन संयमी एवं पवित्र जीवन वाले होते हैं
मधु मांसं च ये नित्यं वर्जयन्तीह धार्मिकाः । जन्मप्रभृति मद्यं च, सर्वे ते मुनयः स्मृताः ।।'
- ( महाभारत, अनुशासनपर्व, 70 ) अर्थ — जो धार्मिक सज्जन लोग कभी भी शहद, माँस एवं शराब (नशाकारक वस्तुओं) का सेवन नहीं करते; उनका आजीवन त्याग करते हैं; वे ही 'मुनि' माने गये हैं ।
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गुरु-वन्दना (परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज को समर्पित)
-डॉ० कपूरचंद जैन हे युगसृष्टा ! हे युगाक्रान्त ! हे युगदृष्टा ! हे युगप्रधान ! हे युगदाता ! हे युगप्रबोध ! पाता तुममें है जगत् बोध ।
हे धर्मरूप ! हे धर्मजनक ! तुम जैसा जग में कौन कनक? हे धर्मसार ! हे ग्रन्थसार ! हे ग्रन्थ-प्रणेता ! बार-बार ! हे धर्म-दिवाकर ! धर्मवीर ! हे कर्मनाशस्त ! कर्मवीर ! हे निष्कलंक निकाम-काम !
हो जगतीतल के तुम ललाम। रत्नत्रय तुममें पा विकास, दशधर्मों ने पाया प्रकाश । षद्रव्यमयी तव विशदरूप, दिक्-अम्बर वातरसन-स्वरूप।। स्वातन्त्र्य वस्तु के उद्घोषक, जीवन-स्वतंत्रता अवबोधक। पाते विद्या में सुख अनन्त, हो इसीलिए विद्यानन्द ।। 'प्राकृतभाषा' के तुम गायक, हो 'शौरसेनी' के उन्नायक। करते हैं तुमको सब वन्दन, मेरे भी लो शत-शत वन्दन।। मेरे भी लो शत-शत वन्दन !
जिनपूजा का फल 'यत्सुखं त्रिषु लोकेषु व्याधि-व्यसन-वर्जितम् । ____ अभयं क्षेममारोग्यं स्वस्तिरस्तु विधायिने ।।' अर्थ:-(यत्सुखं) जो सुख (व्याधिव्यसनवर्जितम्) व्याधि से एवं व्यसन से रहित (त्रिषु लोकेषु) तीनों लोकों में होता है, वह सुख (अभयं) भयरहित (आरोग्य) आरोग्य-युक्त (विधायने) इस शुभ कार्य करनेवाले को (क्षेमं) कल्याणप्रद हो।
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स्थायी स्तम्भ : क्र. 16
समयसार के पाठ
— डॉ० सुदीप जैन
प्रस्तुत स्तम्भ में समयसार के पाठों की उन भूलों की ओर ध्यानाकर्षित किया जा रहा है, जो कि आधुनिक सम्पादकों/प्रकाशकों की असावधानी अथवा मूलपाठ न देखने की प्रवृत्ति अथवा मात्र प्रकाशनरुचि से 'मक्षिकास्थाने मक्षिकानिक्षेप : ' की वृत्ति से छपने के कारण 'समयसार' के कतिपय प्रकाशित संस्करणों में आ गयी है । और जिनके कारण परमज्ञानी आचार्य कुन्दकुन्द के 'समयसार' की स्वरूपहानि हो रही है। उनका परिष्कार एवं आचार्य कुन्दकुन्द के शुद्ध मूलपाठों का प्रस्तुतीकरण ही इस स्तम्भ का एकमात्र लक्ष्य है।
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- सम्पादक
'समयसार' के ‘पुण्य-पाप अधिकार' में आगत गाथा - क्रमांक 147 (आ० अमृचन्द्र की टीका के गाथाक्रमानुसार यह क्रमांक है, जयसेनाचार्यकृत टीका के गाथाक्रमानुसार इसका गाथा क्र०154 है) में एक पाठ आता है 'संसग्गिं' । इस पाठ को सभी प्रकाशित संस्करणों में (मात्र कुन्दकुन्द भारती प्रकाशन को छोड़कर) 'संसग्गं' कर दिया गया है; इसमें से अन्त्य ‘ई' वर्ण के स्थान पर अकारादेश कर दिया गया है। यह क्यों हुआ? और इससे क्या ह हुई? – इस चर्चा के पूर्व सर्वप्रथम यह पाठ मूलगाथा में देखें
“तम्हा दु कुसीलेहि य रागं मा काहि मा व संसग्गिं । साधीणो हि विणासो कुसील - संसग्गि - रागेण । । ”
अर्थ:-इसलिये शुभ और अशुभ इन दोनों कुशीलों के साथ राग मत करो तथा संसर्ग भी मत करो; क्योंकि कुशील के साथ संसर्ग और राग करने से स्वाधीन - सुख का विनाश होता है।
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अमृतचन्द्राचार्यकृत ‘आत्मख्याति' टीका: – “कुशील शुशाशुभकर्मभ्यां सह राग-संसर्गौ प्रतिषिद्धी बंधहेतुत्वात् कुशील- मनोरमामनोरम - करेणुकुट्टिनी- राग-संसर्गवत् । "
जयसेनाचार्यकृत 'तात्पर्यवृत्ति' टीका :- "तम्हा दु कुसीलेहि य रागं मा काहि मा व संसग्गिं – तस्मात् कारणात् कुशीलैः कुत्सितैः शुभाशुभकर्मभि: सह चित्तगतरागं मा कुरु, बहिरंगवचन-कायगत-संसर्गं च मा कुरु । ”
यह 'संसग्गि' पद इसके आगे की दो गाथाओं ( गाथा क्रo 148 एवं 149 ) में भी आया
है।
यद्यपि संस्कृत में इसका रूपान्तर 'संसर्ग' दिया है, किन्तु उसे विशेषतः व्याख्यायित करते हुये ‘कुत्सित' अर्थ को स्पष्ट दोनों टीकाकारों ने किया है । जहाँ अमृतचन्द्राचार्य ने इसे 'करेणु-कुट्टिनी के संसर्ग' के रूप में कहा है, वहीं जयसेनाचार्य ने इसे 'बहिरंग
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वचनगत एवं कायगत संसर्ग' बताया है। ___ वस्तुत: 'संसर्ग' का प्राकृतरूपान्तरण संसग्ग' होता है; किन्तु उस सामान्य 'संसर्ग' शब्द का अभिप्राय 'संगम, मेल-मिलाप, सह अस्तित्व या घनिष्ठ सम्बन्ध, (द्रष्टव्य, आप्टेकृत 'संस्कृत-हिन्दी कोश', पृ० 1050) ही प्राय: होता है। इसका 'कुसंगति' या 'खोटा सम्पर्क' रूप अर्थ को विशेषत: व्यंजित करने के लिए ही यहाँ 'संसग्गि' शब्द का सोदेशिक प्रयोग आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने किया था। क्योंकि वे शुभाशुभ भावों को 'कुशील' की संज्ञा दे रहे हैं, अत: कुत्सित-शीलवालों की संगति तो 'सत्संगति' कदापि नहीं हो सकती है। इसी तथ्य को विशेषत: स्पष्ट करने के लिए यहाँ 'संसग्गि' शब्द का सोद्देशिक प्रयोग किया गया है। क्योंकि इसका अर्थ प्राकृतभाषा में 'कुत्सित' अर्थ में ही लिया गया है। यह कोई स्वप्रयुक्त उपालम्भ नहीं है, अपितु अनेकत्र इसके प्रमाण प्राप्त होते हैं। यथा
1. 'अभिधान राजेन्द्र कोश' (भाग 7, पृष्ठ 244) में 'संसग्गि' के बारे में लिखा है कि यह 'संसर्गिक' शब्द का प्राकृतरूप है, तथा यह पुल्लिंग है। इसका अभिप्राय निम्नानुसार बताया गया है—“कुशीलादि-संसर्गि निषिद्धा। मैथुनसम्पर्क-स्त्रीपुसंसर्गविशेषरूपत्वात् संसर्गजत्वात् संसर्गीत्युच्यते।" यहीं पर स्पष्ट किया है कि 'संसर्ग' शब्द को ही विशेष अर्थ में प्राकृतभाषा में 'संसग्गि' कहते हैं—“प्राकृतत्वात् संसर्गः” ।
2. पाइअ-सद्द-महण्णवो' (पृष्ठ 854) पर इसका अर्थ 'संबंध, संगति या सोहबत' दिया गया है तथा अन्य किसी प्राकृत-ग्रन्थ का उद्धरण भी दिया गया है, जिसमें 'संसग्गिं' पद का ही प्रयोग किया गया है। ___3. 'शब्दकल्पद्रुम' (भाग 5, पृष्ठ 205) में इस शब्द का अर्थ 'संसर्ग-विशिष्ट' किया गया है तथा संसर्गोऽस्मास्तीति इनि:” व्युत्पत्ति के अनुसार संसर्ग' शब्द में 'इनि' प्रत्यय का प्रयोग करके इस शब्द की सिद्धि बतायी गयी है। साथ ही वे स्पष्ट करते हैं कि "विष्णु-व्यास-जाबालवचनैः सामान्येन पापिष्ठसंसर्गी प्राणी भवति इति प्रतिपादनात् संसर्ग पापिष्ठस्यापि संसर्गी पापयुक्तो भवतीति एभिरेव प्रतिपादितम्।” ।
'समयसार' के ही एक अन्य टीकाकार आचार्य बालचन्द्र अध्यात्मी ने अपनी कन्नड़ टीका में भी 'संसग्गि' को ही मूलपाठ मानते हुये इसके अर्थ के रूप में जयसेनाचार्यकृत टीका के शब्दों को ही स्वीकृत किया है तथा “संसग्गिं - बहिरंगवचन-कायगतसंसर्ग” —ऐसा स्पष्ट लिखा है।
यह अत्यन्त खेद की बात है कि ताड़पत्रीय प्रतियों में उपलब्ध आचार्य कुन्दकुन्द के इस सोद्देशिक प्रयोग ‘संसग्गि' को प्राय: सभी विद्वानों/सम्पादकों/प्रकाशकों ने संसग्गं' बना दिया है, जो कि 'संसर्ग' शब्द की तुकान्त परिणति है। इसमें वह अर्थगौरव भी सुरक्षित नहीं है, जो कि 'संसग्गि' पद में है। वस्तुत: आचार्य कुन्दकुन्द ने पुण्य एवं पाप
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- दोनों कर्मों एवं उनके परिणामों (भावों) की सहचरता/संगति की निकृष्टता सूचित करने के लिए ही यहाँ 'संसग्गि' पद का विशेष प्रयोग किया जाता है। लोक में भी अर्थविशेष को सूचित करने के लिए पदविशेष का प्रयोग अनिवार्य माना जाता है। यथा- भोजन करने के लिए मध्यभारत में 'जीम लो, खा लो, ह्स लो' -ये तीन प्रयोग मिलते हैं, किंतु तीनों के अर्थ भिन्न हैं। जहाँ 'जीम लो' का प्रयोग होता है, वहाँ प्रभूत
आदरभाव है। जहाँ ‘खा लो' का प्रयोग होता है, वहाँ सामान्य व्यवहार लिया जाता है। किंतु उसी कार्य के लिए 'ह्स लो' का प्रयोग अत्यन्त निकृष्ट भावना, उपेक्षा एवं तिरस्कार की सूचना देता है। ऐसा ही विशिष्ट निकृष्टतासूचक प्रयोग ‘संसग्गि' है, जिसे सभी संस्करणों में संसग्ग' बना दिया गया है; एकमात्र कुन्दकुन्द भारती द्वारा प्रकाशित 'समयसार' का संस्करण, जो कि अत्यन्त प्रामाणिक संपादन-विधि से निर्मित है, में ही 'संसग्गि' यह मूलपाठ सुविचारित दृष्टि से वास्तविक एवं आधारयुक्त होने से दिया गया है। इसकी पुष्टि के लिए इसके अनेकों संस्करणों में उपलब्ध पाठ यहाँ द्रष्टव्य हैंप्रकाशन
उपलब्ध पाठ पृष्ठ संख्या गुजराती संस्करण
संसग्गं
240 ज्ञानपीठ प्रकाशन
संसग्गं जे०एल० जैनी (अंग्रेजी संस्करण)
संसग्गं
92 'पं० पन्नालाल साहित्याचार्य (वर्णी ग्रंथमाला) संसगं कारंजा (मराठी संस्करण)
संसग्गं
228 सहजानंद संस्करण
संसग्गं
275 अहिंसा मंदिर, दिल्ली
संसग्गं
211 निजानंद जैन ग्रंथमाला
संसग्गं
78 ज्ञानसागर जी की टीका
संसग्गं
133 राजचंद्र ग्रंथमाला, अगास
संसग्गं पं० गजाधरलाल जी कन्नड़ संस्करण
संसग्गं
249 कुन्दकुन्द कहान ट्रस्ट
247 कलकत्ता संस्करण
संसग्गं
250 कन्नड़ ताड़पत्रीय प्रति
संसग्गिं
182 ब्र० शीतलप्रसाद जी
संसग्गं
133 _ आचार्य बालचन्द्र अध्यात्मीकृत कन्नड़ टीका वाली मूड़बद्री प्रति में भी 'संसग्गि' पाठ ही मूल गाथा व टीका में उपलब्ध है।
वस्तुत: भाषातत्त्व का ज्ञान एवं संपादनकला में निष्णात न होने से मात्र संशोधक
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(प्रूफरीडर) स्तर के सतही विद्वान् जब आचार्यों के ग्रंथों का सम्पादन करने लगते हैं, तब ऐसे ही संशोधनों से ग्रंथों के मूलपाठ बदले जाते हैं तथा मूल अभिप्राय धीरे-धीरे लुप्त होने लगता है।
आज की तथाकथित शास्त्री-परिषदों एवं विद्वत्परिषदों के पण्डितों को हमारे आचार्यों की 'शौरसेनी प्राकृतभाषा' का क-ख-ग भी नहीं आता है तथा कई तो इसका नाम भी नहीं जानते हैं; तब इनसे प्रामाणिक संपादन हो पाना एवं मूलपाठों की सुरक्षा हो सकना कैसे संभव है? इनके अज्ञान के कारण विकृत हुये पाठों को यदि कोई विद्वान् मूलप्रतियों एवं प्रमाणों के आधार पर पुन: मूलानुगामी बनाये, तो ये 'शास्त्रों में फेरबदल' का नारा बुलंद करके उसे अपमानित करने में नहीं चूकते हैं। जिन्हें स्वयं को तो कुछ आता नहीं, और दूसरों का अपवाद करने में सदैव अगुआ (अग्रणी) रहनेवाले ऐसे तथाकथित विद्वानों की जमात से कैसे निपटा जाये? —यह समाज के लिए विचारणीय विषय है।
साथ ही यह भी विचारणीय है कि जब कुरान को मुसलमान मूलभाषा उर्दू या अरबी' में ही पढ़ते-सीखते बोलते हैं तथा उसके लिए प्रत्येक मुसलमान को वह भाषा अनिवार्यत: सीखनी होती है; हिंदू धर्मग्रंथ 'संस्कृत' एवं वेद 'छान्दस्' में ही पढ़े-सीखे जाते हैं, उनको पढ़ने के लिए यह भाषा सीखना अनिवार्य होता है। इसीप्रकार अन्य विविध धर्मों एवं सम्प्रदायों में अपनी-अपनी भाषा के ज्ञान की अनिवार्यता है। श्वेताम्बर जैन साधु, साध्वी, समणियाँ आदि भी अनिवार्यत: 'अर्धमागधी' प्राकृत सीखते हैं। तब दिगम्बर जैन सम्प्रदाय की मूलभाषा 'शौरसेनी प्राकृत' इस वर्ग के साधुओं व विद्वानों को अनिवार्यत: क्यों नहीं सिखायी जाती? क्या यह हमारी अपने मूलग्रंथों को उपेक्षित करने की कुप्रवृत्ति नहीं है। मेरा तो समाज से निवेदन है कि जब तक कोई व्यक्ति इसे विधिवत् सीख न ले, तब तक उसे साधु-दीक्षा ही नहीं दी जानी चाहिये तथा पण्डित को शास्त्रसभा की गद्दी पर बैठने या ग्रंथ-सम्पादन का अधिकार नहीं होना चाहिये। अन्यथा ये हमारे आगमग्रंथों का मूलस्वरूप विकृत किये बिना नहीं रहेंगे। हमारी भाषा व मूल प्रतिपाद्य को जैनेतरों व हमसे विद्वेष करनेवालों से इतना खतरा नहीं है, जितना कि इस भाषा से अनभिज्ञ हमारे ही साधुओं व पण्डितों से है। क्योंकि विद्वेषी तो हमारी भाषा के बारे में अधिक से अधिक 'अपलाप' ही करेंगे या उपेक्षा करेंगे; जिससे इसके मूलपाठ व अभिप्राय विकृत नहीं होंगे। किंतु हमारी शौरसेनी-प्राकृत-विषयक अज्ञानता से ही हमारे ग्रंथों के मूलपाठ आज तक विकृत हुये हैं और यदि हम समय रहते नहीं सुधरे, तो आगे भी यह विकृति की परम्परा चलती रहेगी। __विचार करें कि क्या हम अपने आचार्यों की इस अमूल्य धरोहर के प्रति वस्तुत: गम्भीर हैं, या मात्र उसे ढोक (प्रणाम) देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री' कर लेना चाहते हैं? ध्यान रहे, यदि हम समय रहते नहीं सुधरे/सावधान हुये; तो आगे आने वाली पीढ़ी
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हमें कभी माफ नहीं करेगी तथा इस शताब्दी के इन भाषा-उपेक्षाकारी विद्वानों को शास्त्रों, आम्नाय एवं मूल अभिप्राय का सर्वाधिक घातक' कहा जायेगा। क्योंकि इसका जो अनिष्ट सहस्राब्दियों में नहीं हुआ, वह इन तथाकथित पण्डितों एवं इन्हें प्रोत्साहन देने वाले श्रमणवर्ग के द्वारा बीसवीं शताब्दी में होने जा रहा है। आज आवश्यकता है कि हम समय रहते सावधान हो जायें, तथा पूरी शताब्दी में हुई असावधानी को शताब्दी के अंतिम चरण में 'शौरसेनी प्राकृत' को सीखकर सुधार लें तथा अंत भला सो भला' की उक्ति को जीवन में चरितार्थ करें - ऐसा विनम्र अनुरोध साधुवर्ग, विद्वज्जनों एवं सम्पूर्ण समाज से है।
‘समयसार के पाठ' नामक इस स्तम्भ के माध्यम से ऐसे पाठों का क्रमश: सप्रमाण विस्तृत विवेचन इसी दृष्टि को जागृत करने के लिए किया जा रहा है, और आगे भी होता रहेगा।
ऐसे संसार से पलायन ही जीवन है 'राजा राक्षस-रूपेण व्याघ्ररूपेण मन्त्रिणः ।
लोकाश्चित्ररूपेण य: पलायति स जीवति।।' अर्थ:-जहाँ पर शासक राक्षसरूप से है, मन्त्री व्याघ्ररूप से है और प्रजा के लोक चित्र से है, वहाँ से जो भाग जाता है, वही जीवित रहता है। .. प्रजा की भलाई-बुराई का सारा भार शासक के ऊपर होता है। यदि शासक सदाचारी एवं न्यायशील होता है, तो प्रजा में भी ये सारे गुण क्रमश: उतर जाते हैं। **
निरोगी कौन? 'नरो हिताहारविहारसेवी, समीक्ष्याकारी विषयेष्वसक्तः ।
दाता सम: सत्यपर: क्षमावनाप्तोपसेवी च भवत्यरोगः।।' अर्थ:-हित-मित आहार और विहार का सेवन करनेवाला, विचारपूर्वक कार्य करनेवाला, काम-क्रोधादि विषयों पर आसक्त न रहनेवाला, दान देनेवाला, सभी प्राणियों पर समता दृष्टि रखनेवाला, सत्यनिष्ठ, सहनशक्तियुक्त और आप्त पुरुषों की सेवा करनेवाला मनुष्य रोगरहित होकर सदा सुखी रहता है।
व्याकरण-शास्त्र का महत्त्व "न्यायशास्त्र और व्याकरणशास्त्र पढ़ने वालों की भी तली का बैल, चिल्लाता हुआ मेंढा' आदि दृष्टान्तों द्वारा खिल्लियाँ उड़ाई जाती थीं; किन्तु ये सब मूर्खता के युग अब नहीं रहे हैं। विचारवान् परीक्षक उक्त उपहासों से नहीं घबड़ा कर बहुत कुछ आगे बढ़ गये हैं। और अपना ध्येय भी प्राप्त कर लिया है।"
-पं० माणिकचंद्र कौन्देय, न्यायाचार्य, धर्मफल सिद्धान्त, पृष्ठ 35 **
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जैनदर्शन के प्रतीक पुरावशेष
- डॉ० कस्तूरचन्द्र 'सुमन'
भारतीय संस्कृति के सम्पूर्ण क्षेत्रों में जिनधर्मानुयायियों का समर्पित अनन्य योगदान रहा है। चाहे वह विविध विषयों के साहित्य-निर्माण का क्षेत्र हो, या चौंसठ कलाओं का; सभी में उन्होंने अपने योगदान से राष्ट्र का सांस्कृतिक गौरव बढ़ाया है। इसी क्रम में शिल्पकला' के क्षेत्र में विशिष्ट एवं सोदेशिक प्रयोगों से भरपूर कतिपय पुरावशेषों का वर्गीकृत परिचय एवं समीक्षण यहाँ प्रस्तुत किया गया है। इस विषय में जो दृष्टिकोण लेखक ने अपनाया है, वह अन्यत्र भी अनुकरणीय है ।
-सम्पादक
जैनदर्शन साहित्य का ही विषय नहीं रहा है । कलाकारों ने उसे 'कला' का विषय भी बनाया है। 'शिल्पकला' के माध्यम से जैनदर्शन के सिद्धान्तों को समझने / समझाने का प्रयत्न किया गया है। राजस्थान ऐसी कला में अग्रणी रहा प्रतीत होता है । श्रीमहावीरजी स्थित 'दिल्लीवाली धर्मशाला' के पिछले प्रांगण में विद्यमान ऐसे कलावशेषों का परिचय निम्नप्रकार है:
1
1. कर्म-प्रकृति स्तम्भ
जैन-ग्रंथों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय —ये आठ कर्म और इन आठ कर्मों की क्रमश: 5, 9, 2, 28, 4, 93, 2 और 5. इसप्रकार कुल 148 उत्तर - प्रकृतियाँ कही गयी हैं ।
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प्रस्तुत संग्रहालय में पश्चिमाभिमुख 40 इंच ऊँचा और 101⁄2 इंच चौड़ा एक ऐसा चौकोर प्रस्तर-फलक है, जिसे सीमेंट से छोटी दीवार में लगा दिया है। इस फलक को तीन भागों में दर्शाया गया है। मध्यभाग में 7 इंच अवगाहना में निर्मित तीन प्रतिमायें खड्गासनस्थ विराजमान हैं। इन प्रतिमाओं के ऊपरी भाग में 5 इंच अवगाहनावाली तीन प्रतिमायें पद्मासनस्थ भी अंकित हैं । मध्यवर्ती प्रतिमाओं की दायीं बायीं ओर भी 3-3 प्रतिमायें पद्मासनस्थ तथा उनके पास 'पद्मासन मुद्रा' में अंकित 12-12 प्रतिमायें विद्यमान हैं। इसप्रकार एक ओर कुल 36 प्रतिमायें अंकित हैं। इस अंश की उत्तराभिमुखी 12 प्रतिमाओं से ज्ञात होता है कि ऐसी रचना स्तम्भ के चारों ओर रही है । स्तम्भ का ऊपरी अंश नहीं है। अनुमानत: उसमें चारों दिशाओं में एक - एक अर्हन्त-प्रतिमा विराजमान रही है।
इसप्रकार एक ओर 37 तथा चारों ओर 148 प्रतिमायें निर्मित रही हैं। प्रतिमाओं की इस संख्या से हमारा ध्यान जैनदर्शन के कर्म - सिद्धान्त की ओर आकर्षित होता है। संभवत: कलाकार का मन्तव्य कला के माध्यम से जन-जन को जैनदर्शन के प्रमुख सिद्धान्तों से 1. आचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, पर्व 58, श्लोक 233 से 282 ।
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परिचित कराना तथा कर्मों से मुक्ति की ओर प्रेरित करना रहा है। यह अवशेष संग्रहणीय है। इसका निर्माण रेतीले, देशी, भूरे पाषण से हुआ है। 2. तिरेसठ कर्म-प्रकृतिनाशक अर्हन्त आदिनाथ ___इस प्रतिमा का निर्माण बलुए भूरे पाषण से हुआ है। ‘पद्मासन-मुद्रा' में इस प्रतिमा की ऊंचाई 58 इंच और चौड़ाई 32 इंच है। सर्वोपरि भाग में वाद्य लिए दुन्दुभिवादक और उसके नीचे क्रमश: आकार में बड़े होते हुए तीन छत्र अंकित किये गये हैं। पृष्ठभाग में वर्तुलाकार, कलापूर्ण भामण्डल दर्शाया गया है। प्रतिमा को केशराशि का अंकन कुषाणकाल के समान हुआ है। दोनों स्कंधों पर 3-3 केशावलियाँ लटक रही हैं। ये आदिनाथ के उग्र और दीर्घकालीन तपश्चरण की प्रतीक हैं। प्रतिमा के नेत्र, नासिका, मुख क्षरित हो गये हैं। गले में 'त्रिवली' दर्शाई गयी हैं तथा नाभि की गहराई आदिनाथ के गाम्भीर्य का प्रतीक है। करतल खण्डित है। दायें पैर के घुटने का अंश भी भंजित है। आसन के मध्य 'धर्मचक्र' और 'चक्र' की दोनों ओर चिह्न-स्वरूप वृषभ अंकित रहा है। अलंकरण-स्वरूप सामने की ओर मुख किये दो सिंह अंकित किये गये हैं। ___इस प्रतिमा के सर्वोपरि भाग में दस प्रतिमायें पद्मासन बनीं होंगी, जिनमें से अब दसवीं प्रतिमा नहीं है। उसका फलक टूटकर नष्ट हो गया है। दूसरे खण्ड में पद्मासनस्थ आठ प्रतिमाएं हैं और तीसरे खण्ड में चार। चौथे एवं पाँचवे खण्ड में दोनों और दो-दो प्रतिमायें 'पद्मासन-मुद्रा' में अंकित की गयी हैं। इनके नीचे दोनों ओर दो-दो प्रतिमायें खड्गासन-मुद्रा' में भी अंकित हैं। इन खड्गासन-प्रतिमाओं के नीचे दोनों ओर एक-एक पद्मासनस्थ प्रतिमा भी विराजमान है। इसके नीचे दोनों ओर एक-एक चँवरवाही देव सेवारत खड़ा है। बायीं
ओर एक के नीचे एक पद्मासनस्थ तेरह प्रतिमायें हैं। दसवीं प्रतिमा की दाँयी ओर एक प्रतिमा कायोत्सर्ग-मुद्रा' में अंकित की गयी है। इसीप्रकार मूलनायक प्रतिमा की दायीं ओर चँवरवाही इन्द्र के ऊपरी भाग में एक पद्मासनस्थ प्रतिमा और उसके ऊपर कायोत्सर्ग-मुद्रा' में दो प्रतिमाएँ अंकित की गयी हैं। दाँयी ओर फलक के आदि में ऊपरी भाग के नीचे 13 पदमासनस्थ प्रतिमायें भी दर्शायी गई हैं। इसी ओर दसवीं प्रतिमा के पास एक प्रतिमा कायोत्सर्ग-मुद्रा' में भी अंकित है। इसप्रकार सम्पूर्ण फलक में कुल पाँच प्रतिमायें कायोत्सर्ग-मुद्रा' में और अट्ठावन ‘पद्मासन-मुद्रा' में प्रदर्शित हैं। दायीं ओर 'गोमुख यक्ष' है, किंतु इसका मुँह गाय के समान नहीं होकर, मानवाकृति लिए है। इसके गले में एक नली-हार है। आसन के मध्य में अंकित चिह्न-स्वरूप वृषभ के पैर मात्र शेष बचे हैं।
इस फलक में अंकित प्रतिमाओं की तिरेसठ संख्या अर्हन्त-परमेष्ठी से सम्बन्धित हैं। देव-शास्त्र-गुरु पूजा' में प्रतिदिन पढ़ने में आता है
कर्मन की त्रेसठ प्रकृति नाशि, जीते अष्टादश-दोषराशि । जो परम सुगुण हैं अनंत धीर, कहवत के छयालिस गुण गंभीर ।।
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अर्थात् अर्हन्त परमेष्ठी घातिया कर्मों की (ज्ञानावरण-5, दर्शनावरण-9, मोहनीय-28, अन्तराय-5) 47 और अघातिया कर्मों की सोलह (नरकगति, तिर्यञ्चगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रि-इन्द्रिय, चउ-इन्द्रिय, उद्योत, आतप, स्थावर, साधारण, सूक्ष्म —ये नामकर्म की तेरह और नरक, तिर्यंच तथा देवायु से आयुकर्म की तीन) -इसप्रकार कुल त्रेसठ कर्म-प्रकृतियों को को नष्ट करते हैं।
प्रस्तुत फलक में अंकित तिरेसठ-संख्यक प्रतिमाएँ संभवत: इसी तथ्य की प्रतीक है। अर्हन्त ने घाति-अघाति कर्मों की उक्त तिरेसठ कर्म-प्रकृतियों का नाश किया है। पंच-परमेष्ठियों में तिरेसठ कर्मप्रकृतियों का नाश कर वे ही प्रथम परमेष्ठी' पद प्राप्त कर सके हैं। कोई भी तपस्वी इन तिरेसठ कर्मप्रकृतियों का नाश कर 'अर्हन्तपद' प्राप्त कर सकता है। जीवोद्धारकला-प्रतीक 'सुपार्श्वनाथ-फलक'
दिल्लीवासी धर्मशाला में तीसरा प्रतीकात्मक फलक है तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ प्रतिमा का। इसका निर्माण बलुए भूरे देशी पाषाण से उल्टे अर्द्धचन्द्राकार में हुआ है। इसकी ऊँचाई 17 इंच है। ऊपरी भाग में ही तीन खण्डों में छत्र की स्थिति दर्शाई गयी है। इसी भाग में गंधकुटियाँ हैं। मध्यवर्ती गंधकुटी में छह इंच अवगाहना में एक पद्मासनस्थ प्रतिमा निर्मित की गयी है। इस प्रतिमा का करतल-भाग खण्डित है। इस मध्यवर्ती गंधकुटी' की दायीं-बायीं ओर निर्मित गंधकुटियों में एक-एक छोटी खड्गासनस्थ प्रतिमा भी अंकित की गयी है। इसप्रकार इस भाग में तीन प्रतिमाएं हैं। ___ फलक की मध्यवर्ती रचना को छह खंडों में विभाजित किया गया है। मूलनायक प्रतिमा 'पद्मासन-मुद्रा' में ऊपरी प्रथमखण्ड में विराजमान है। इसका मुँह छिल गया है। इसकी ऊँचाई लगभग आठ इंच है। सिर पर पाँच फणोंवली रही प्रतीत होती हैं। इस फणावली से प्रतिमा तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ की कही जा सकती है। प्रतिमा के पीछे वर्तुलाकार 'भामण्डल' दर्शाया गया है। इस भामण्डल से दो लतायें उदित होती हुई भी निर्मित हैं। प्रतिमा 'श्रीवत्स-चिह्न' से मण्डित है। हथेलियाँ और पैर छिले हुए हैं। मूलनायक प्रतिमा की दायीं बायीं दोनों ओर तीन-तीन प्रतिमायें गंधकुटियों में पद्मासन-मुद्रा' में अंकित हैं। इस रचना की दोनों ओर दो-दो भाग हैं। ऊपर भाग में दोनों ओर मध्य में एक पद्मासनस्थ और उसकी दोनों ओर एक-एक कायोत्सर्ग-ध्यानस्थ प्रतिमा भी विराजमान रही है; एक ओर की खड्गासनस्थ प्रतिमा अब नहीं है। इसीप्रकार निचले भाग में दोनों ओर मध्य में दो-दो पद्मासन प्रतिमायें तथा उनकी दोनों ओर एक-एक खड्गासन-प्रतिमा विराजमान है। इसप्रकार इस मध्यवर्ती खंड तक कुल 9+6+8=23 प्रतिमाएँ हैं।
निचले भाग में चार खण्ड हैं। प्रत्येक खण्ड में ग्यारह-ग्यारह पद्मासन प्रतिमायें होने से इस भाग में कुल चवालीस प्रतिमायें हैं।
अंतिम ग्यारह प्रतिमाओं की दोनों ओर एक-एक 'गंधकुटी' निर्मित है। इनमें मध्य में
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पद्मासन तथा उसकी दोनों ओर एक-एक खड्गासन प्रतिमा है। इस सम्पूर्ण फलक में 59 प्रतिमाएँ पद्मासन-मुद्रा में तथा 13 प्रतिमायें 'कायोत्सर्ग-मुद्रा' में अंकित है। एक कायोत्सर्ग-मुद्रावाली प्रतिमा का पाषाण ही शेष नहीं है, किन्तु इतरभाग की रचना से उसके विद्यमान रहने का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। यह फलक पश्चिमाभिमुख एक लाल दीवाल में खचित है।
प्रस्तुत फलक में बहत्तर प्रतिमाओं का अंकन बहत्तर कलाओं का प्रतीक है। कहा भी जाता है- “कला बहत्तर पुरुष की, तामें दो सिरदार ।
एक जीव की जीविका, एक जीव-उद्धार।।" ___ इस दोहे के आलोक में कहा जा सकता है कि इस फलक के माध्यम से शिल्पकार ने भव्य जीवों को यह समझाने का प्रयत्न किया है कि प्रत्येक संसारी संसार में में संसरण करता हुआ जीविका का ध्यान रखता है; किन्तु वे जीव धन्य हैं, जो अपना आत्मोद्धार किया करते हैं। आत्मोद्धार ही श्रेष्ठ कला है। जो पुरुष उसमें पारंगत हैं, वे ही इस संसार-सागर से पार हुए हैं। __ प्रस्तुत फलक में यद्यपि आज बहत्तर प्रतिमाएं हैं; किन्तु फलक की रचना से तिहत्तर प्रतिमाओं के होने का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। ऊपर भाग में दायीं ओर मध्य में एक पदमासनस्थ और उसकी दोनों और एक-एक कायोत्सर्ग-मुद्रा में अंकित प्रतिमा से इसी क्रम में ऐसी ही तीन प्रतिमाएँ बायीं और भी रही हैं। इस ओर के शिलाखण्ड का छोर लगता है टूट गया है, जिस भाग में एक कायोत्सर्ग-मुद्रा' में अर्हन्त- प्रतिमा अंकित रही है। इस फलक में मूलनायक प्रतिमा जीवोद्धार कला की तथा शेष प्रतिमाएँ बहत्तर कलाओं की सूचक हैं। ___ यह फलक एक छोटी लाल पत्थर से निर्मित दीवार पर पश्चिमाभिमुख खचित है। ऐसे अवशेष शीत, धूप और वर्षायों से संभावित हानियों से सुरक्षित रखे जाना चाहिये। आशा है किसी सुरक्षित भवन में उन्हें स्थान दिया जायेगा।
दिव्यध्वनि 'केरिसा सा 'दिव्वझुणी' सव्व भासासरूवा अक्खराणक्खरप्पिया, अणंतत्थ-गब्भबीयपदधरिय-सरीरा।।' -(आचार्य वीरसेन, जयधवल, भा० 1, पृ0 116)।
अर्थ:—वह दिव्यध्वनि किस प्रकार की है? वह सर्व भाषास्वरूप है। अक्षरात्मक, अनक्षरात्मक है; अनंत अर्थ हैं गर्भ में जिसके ऐसे बीजपदों से निर्मित शरीरवाली है अर्थात् उसमें बीजपदों का समुदाय है।
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आचार्यश्री के संकलन से......
___-प्रस्तुति : डॉ० सुदीप जैन जैन आचार-व्यवस्था में सल्लेखना' या 'समाधिमरण' का अतिविशिष्ट महत्त्व माना गया है। इसे 'निष्प्रतिकार मरण' भी कहा गया है अर्थात् जब शरीर के उपचार का कोई सात्त्विक साधन/प्रक्रिया संभव न रह जाये तथा मरण सुनिश्चित प्रतीत होने लगे, तब सम्यकरूप से 'काय' (शरीर) और कषाय' को कृश (कमजोर) करने के लिए तथा आत्मिक स्वास्थ्य के संरक्षण के लिए जो प्रक्रिया अपनायी जाती है; उसे 'सल्लेखना' या 'समाधिमरण' कहा जाता है।
ऐसी अवस्था प्राप्त होने पर निरन्तर उपयोग धर्मध्यान में बना रहे —इस दृष्टि से अनेकों मांगलिक स्तुतियाँ, वैराग्यप्रद गीतियाँ, आध्यात्मिक भजन एवं ध्यानपरक मंत्रों का स्वयं एवं समागत धर्मानुरागी भाई-बहिनों द्वारा शांतभाव से गान/उच्चारण किया जाता है; ताकि सल्लेखना' ग्रहण करनेवाले जीव का चित्त संसार से विरक्त होकर, शरीर की ममता छोड़कर आत्मस्थ हो सके। व्याकुलता दूरकर शांतिपूर्वक देहत्याग की यह अनुपम विधि है। - इसमें पढ़े/गाये जाने वाले भजनों, आध्यात्मिक पाठों व स्तुतियों से तो प्राय: जन परिचित हैं, किन्तु इस स्थिति में जपे/सुनाये जाने वाले मंत्रों का बोध प्राय: अधिकांश जनों को नहीं है। इसी दृष्टि से पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज के निजी संकलन के रूप में उनके हस्तलिखित नोट्स में से ऐसे मंत्रों के परिशुद्ध पाठ यहाँ दिये जा रहे हैं।
ॐ ह्रीं अर्ह णमो जिणाणं ।। 1।। अर्थ:—यहाँ पर 'ॐ' सुखबीज है, 'ह्रीं' कल्याणबीज है तथा 'अहं' ब्रह्मबीज है। इन तीनों बीजों से युक्त जिनेन्द्र भगवन्तों को नमस्कार है। (विशेष:---उपर्युक्त आद्य तीनों बीजाक्षर आगे के मंत्रों में भी जुड़कर प्रयुक्त होंगे।)
णमो ओहिजिणाणं ।। 2 ।। अर्थ:—अवधिज्ञान (भूतनैगमनय की अपेक्षा से) युक्त जिनेन्द्र भगवंतों के लिए नमस्कार है।
णमो परमोहिजिणाणं ।। 3 ।। अर्थ:-परमावधिज्ञान-युक्त जिनेन्द्र भगवन्तों के लिए नमस्कार है।
णमो सव्वोहिजिणाणं ।। 4।। अर्थ:-सर्वावधिज्ञान के धारक जिनेन्द्र भगवन्तों के लिए नमस्कार है।
णमो अणंतोहिजिणाणं ।। 5।। अर्थ: अनंतावधिज्ञान के धारक जिनेन्द्र भगवन्तों के लिए नमस्कार है।
(विशेष:—अवधि-परमावधि-सर्वावधि – ये तीन भेद तो अवधिज्ञान के हैं, किंतु 'अनन्तावधि' के नाम से अवधिज्ञान का कोई भेद नहीं है। अत: यह 'जिस ज्ञानस्वभाव की
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अवधि/मर्यादा अनन्त है, ऐसे ज्ञान के धारक जिनेन्द्र भगवंत' – ऐसा अर्थ लेना चाहिये।)
णमो कोट्ठबुद्धीणं ।। 6।।। अर्थ:-'कोष्ठबुद्धि' (नामक ऋद्धि) के धारक जिनेन्द्र भगवन्तों को नमस्कार है।
णमो बीजबुद्धीणं ।। 7।। अर्थ:-'बीजबुद्धि' (एक बीजपद से अनेक पदार्थों के ज्ञान में समर्थ) के धारक जिनेन्द्र भगवन्तों को नमस्कार है।
णमो पादाणुसारीणं ।। 8।। अर्थ:-‘पदानुसारी' (एक पद के अर्थ को सुनकर पूरे ग्रन्थ के अर्थ को समझ लेना) ऋद्धि के धारी जिनेन्द्रों को नमस्कार है।
णमो संभिण्णसोदराणं ।। 9।। अर्थ:-'संभिन्न-श्रोतृत्व' (सभी शब्दों को एक काल में सुन सकना) ऋद्धि के धारी जिनेन्द्रों को नमस्कार है।
णमो सयंबुद्धाणं ।। 10।। अर्थ:—स्वयंबुद्ध (जो स्वयं ही वैराग्य लें) जिनेन्द्रों को नमस्कार है।
णमो पत्तेयबुद्धाणं ।। 11।। अर्थ:—प्रत्येक बुद्ध (जो वैराग्यकारण देखकर विरक्त हों) जिनेन्द्रों को नमस्कार है।
णमो बोहिदबुद्धाणं ।। 12।। अर्थ:-बोधितबुद्ध (दूसरों के एक बार समझाने मात्र से समझ जाने वाले) जिनेन्द्रों को नमस्कार है।
णमो रिजुमदीणं ।। 13।। अर्थ: ऋतुमति मन:पर्यायज्ञान के धारी जिनेन्द्रों को नमस्कार है।
णमो विवुलमदीणं ।। 14।। अर्थ:-विपुलमति-मन:पर्ययज्ञान के धारक जिनेन्द्रों को नमस्कार है।
णमो दसपुवीणं ।। 15।। अर्थ:—दशपूर्वज्ञान के धारक जिनेन्द्रों को नमस्कार है।
णमो चोद्दसपुवीणं ।। 16।। . अर्थ:-चौदहपूर्वज्ञान के धारक जिनेन्द्रों को नमस्कार है।
___णमो अलैंग-महाणिमित्त-कुसलाणं ।। 17 ।। अर्थ:—अष्टांग महानिमित्त-विद्या में प्रवीण जिनेन्द्रों के लिए नमस्कार है।
___ णमो विवुलरिद्धिपत्ताणं ।। 18।। अर्थ:-विपुल ऋद्धिप्राप्त जिनेन्द्रों के लिए नमस्कार है।
णमो विज्जाहरणं ।। 19।। अर्थ:-विद्या (तपोविद्या) के धारी जिनेन्द्रों के लिए नमस्कार है।
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णमो चारणाणं ।। 20।। अर्थ:-'चारणऋद्धि' के धारक जिनेन्द्रों के लिए नमस्कार है।
__ णमो पण्हसमणाणं ।। 21 ।। अर्थ:- (असाधारण प्रज्ञाशक्ति के धारक) प्रज्ञाश्रमण जिनेन्द्रों के लिए नमस्कार है।
___णमो आगासगामिणं ।। 22 ।। अर्थ:-'आकाशगामी ऋद्धि' के धारक जिनों के लिए नमस्कार है।
___णमो आसीविसाणं ।। 23।। अर्थ:-'आशीविष' (भयंकर विषयुक्त आहार भी जिनके मुख में जाकर निर्विष हो जाता है, ऐसी) ऋद्धि के धारक जिनेन्द्रों के लिए नमस्कार है।
णमो दिट्ठिविसाणं ।। 24।। अर्थ:-'दृष्टिविष' (जिनके देखने मात्र से विषैले प्राणी भी विषरहित हो जाते हैं, ऐसी) ऋद्धि के धारक जिनेन्द्रों के लिए नमस्कार है।
णमो उग्गतवाणं ।। 25।। अर्थ:-उग्र तपस्वी जिनेन्द्रों के लिए नमस्कार है।
णमो दित्त-तवाणं ।। 26।। अर्थ:-दीप्त तपवाले (घोर तपस्या करने से जिनके शरीर की कांति बढ़ गयी है) जिनेन्द्रों को नमस्कार है।
णमो तत्त-तवाणं।। 27।। अर्थ:-तप्त तपश्चरण वाले (तपस्या के कारण जिनका अल्प आहार सूख जाता है, मल आदि रूप में परिणमित नहीं होता) जिनेन्द्रों के लिए नमस्कार है।
णमो महातवाणं ।। 28 ।। अर्थ:—महातपस्वी (सिंह-निष्क्रीडित आदि महान् उपवासों के अभ्यस्त) जिनेन्द्रों को नमस्कार है।
णमो घोरतवाणं ।। 29 ।। अर्थ:-घोर तपस्वी (शारीरिक व्याधि रहने पर भी कठिन तपश्चरण में लीन एवं श्मसान आदि भयंकर प्रदेशों में रहकर तप करनेवाले) जिनेन्द्रों के लिए नमस्कार है।
णमो घोरगुणाणं ।। 30।। अर्थ:–घोर गुणवाले जिनेन्द्रों के लिए नमस्कार है।
णमो घोरगुणपरक्कमाणं ।। 31।। अर्थ:-घोर पराक्रम गुणवाले (जिनकी ऋद्धि के कारण सिन्धु-जलशोषण एवं उल्कापात आदि भी संभव होते हैं) जिनेन्द्रों के लिए नमस्कार है।
णमोऽघोरगुणबंभचारिणं ।। 32 ।।
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अर्थ:—अघोर ब्रह्मचर्यगुणधारी (जिनके तप के प्रभाव से महामारी, दुर्भिक्ष, बन्धन आदि दर हो जाता है, तथा महायुद्ध आदि का संकट टल जाता है—ऐसे) जिनेन्द्रों को नमस्कार है।
___णमो आमोसहिपत्ताणं ।। 33।। अर्थ:-जिनके निमित्त बनाया गया अपक्व (कच्चा) आहार भी औषधि का कार्य करे अथवा जिनके स्पर्श मात्र से ही रोगी निरोग हो जायें, ऐसे जिनेन्द्रों को नमस्कार है।
णमो खेल्लोसहिपत्ताणं ।। 34।। अर्थ:-जिनका थूक/कफ आदि भी औषधि का कार्य करे, उन जिनेन्द्रों के लिए नमस्कार है।
णमो जल्लोसहिपत्ताणं ।। 35।। अर्थ:-जिनके पसीनेयुक्त धूलि भी औषधि का कार्य करे, ऐसे जलौषधि ऋद्धि धारक जिनेन्द्रों के लिए नमस्कार है।
णमो विट्ठोसहिपत्ताणं ।। 36।। अर्थ:-जिनका मल भी औषधि का कार्य करे, ऐसे जिनेन्द्रों के लिए नमस्कार है।
णमो सव्वोसहिपत्ताणं ।। 37।। अर्थ:-जिनका सर्वांग (नख-केश आदि भी) औषधि का कार्य करें, —ऐसे जिनेन्द्रों को नमस्कार है।
णमो मणोबलीणं ।। 38।। अर्थ:-मनबलीण (अन्र्मुहूर्त में सम्पूर्ण श्रुत के चिंतन में सक्षम) जिनेन्द्रों को नमस्कार है।
णमो वचोबलीणं ।। 39।। अर्थ:-वचनबली (अन्तर्मुहूर्त में सूर्पण श्रुत के उच्चारण में सक्षम) जिनेन्द्रों को नमस्कार है।
णमो कायबलीणं ।। 40।। अर्थ:—कायबली (जिन्हें मासिक, चातुर्मासिक, वार्षिक प्रतिमायोग करते हुये भी थकान न हो, ऐसे) जिनेन्द्रों को नमस्कार है।
णमो खीरसवीणं ।। 41।। अर्थ:-'क्षीरस्रावी ऋद्धि' (नीरस भोजन भी जिनके हाथों में क्षीर-दुग्धयुक्त हो जाता है,) के धारक जिनेन्द्रों के लिए नमस्कार है।
णमो सप्पिसवीणं ।। 42 ।। अर्थ:-'घृतस्रावी ऋद्धि' (रूखा भोजन भी जिनके हाथों में घृतयुक्त हो जाता है) के धारक जिनेन्द्रों को नमस्कार है।
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णमो महुरसवीणं ।। 43।। अर्थ:—'मधुम्रावी' (बस्वाद भोजन भी जिनके हाथों में मधुर हो जाता है) ऋद्धि के धारक जिनेन्द्रों को नमस्कार है।
णमो अमिय-सवीणं ।। 44।। अर्थ:-'अमृतस्रावी' (जिनके हाथों में कोई भी भोज्यपदार्थ अमृततुल्य हो जाता है) ऋद्धि के धारक जिनेन्द्रों को नमस्कार है।
णमो अक्खीण-महाणसाणं ।। 45।। अर्थ:-'अक्षीणमहानस' (जिनके आहार के बाद उस चौके में चक्रवर्ती की सेना भी भोजन करे, तो भी भोजन कम न पड़े) ऋद्धि के धारक जिनेन्द्रों के लिए नमस्कार है।
णमो वड्ढमाणाणं ।। 46।। अर्थ:-'वर्द्धमान ऋद्धि' के धारक जिनेन्द्रों को नमस्कार है।
णमो सव्वसिद्धायदणाणं ।। 47।। अर्थ:-सम्पूर्ण सिद्धायतनों/सिद्धक्षेत्रों को नमस्कार है।
णमो भगवदो महदि-महावीर-वड्ढमाणाणं बुद्धरिसीणं ।। 48।। अर्थ:-भगवान् श्रेष्ठ महावीर वर्द्धमान बुद्धऋषि (केवलज्ञानी) को नमस्कार है। —यह 'गणधरवलय मंगल दंडक' है। इसके बारे में कहा जाता है
“नित्यं यो गणभृन्मन्त्रं, विशुद्ध: सन् जपत्यमुम्, आम्रवस्तस्य पुण्यानां, निर्जरा पापकर्मणाम् । नश्यादुपद्रव: कश्चिद् व्याधि-भूत-विषादिभः,
सदसद्-वीक्षणे स्वप्ने समाधिश्च भवेन्मृतौ ।।" अर्थ:-जो भव्यात्मा (श्रमण या श्रावक) प्रतिदिन प्रात:काल शुद्ध उच्चारण के साथ 'गणधरवलयदण्डक' के इन मंत्रों का एकाग्रचित्त होकर जप करता है, उसके पुण्य का आस्रव होता है एवं पापकर्मों की निर्जरा होती है। उस व्यक्ति को रोग, भूतबाधा, विषबाधा इत्यादि कोई पीड़ा नहीं होती है। अपने शुभ और अशुभ को वह स्वप्न में देख सकता है। तथा उसे मरण-समय में समाधि (सल्लेखना या मृत्युमहोत्सव) की प्राप्ति होती है।
उपर्युक्त दण्डक का पूज्य आचार्य शांतिसागर जी मुनिराज (प्रथम) नित्यप्रति जप करते थे। उन्हीं से परम्परा में यह जप करना सीखा है। ___ यह दण्डक आचार्य भूतबलि-प्रणीत 'महाबन्ध' के मंगलाचरण-स्वरूप भी आया है। किंतु वहाँ प्रतिलिपिकार की असावधानी से चार मंत्र छूट गये हैं; कुछ पाठ भी थोड़े-बहुत परिमाण में अशुद्ध छपे हैं।' एकाध स्थल पर क्रम-व्यव्यय (आगे-पीछे होना) भी पाया जाता है। अत: यहाँ व्यापक अनुशीलन एवं पूर्वापर समीक्षण के बाद जो परिशुद्ध पाठ मिले हैं, उन्हें ही पूर्णरूप में दिया गया है। इसका अभ्यास प्रत्येक धर्मानुरागी साधक व्यक्ति को अवश्य करना चाहिये।
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जल-गालन की विधि तथा महत्ता
-डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री __ जैनधर्म की सनातन, अनादि-अनिधन परम्परा में जल को छानकर पीने और उससे वस्त्रादि धोने की एक विशद-परम्परा रही है। जल को प्रासुक कर उपयोग में लेने की क्रिया वास्तव में वैज्ञानिक है। यह विज्ञानमात्र भौतिक न होकर धार्मिक भी है। इस धर्म-विज्ञान में आत्महित का संरक्षण मुख्य है। निज चैतन्यतत्त्व के संरक्षण के साथ इसमें अन्य प्राणियों के प्राणों के संरक्षण का विधान किया गया है। अत: केवल पानी छानने से अन्य जीवों की दया का ही नहीं, अपित आत्महित की प्रवृत्ति का प्रारम्भ होता है। किन्तु यह तभी सम्भव है, जब जल को 'गालन-विधि' के अनुसार छानकर प्रासुकरूप में काम में लिया जाए। 'भावपाहुड' की टीका में कहा गया है कि “वर्षा ऋतु में मुनिजन वर्षायोग धारण करते हैं, वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान करते हैं। उस समय वृक्ष के पत्तों पर पड़ा हुआ वर्षा का जो जल साधु के शरीर पर गिरता है, उससे जलकायिक जीवों की विराधना का दोष नहीं लगता; क्योंकि वह जल 'प्रासुक' होता है।" शौच तथा स्नान के लिए ताड़ित पर्वतीय झरनों का जल, उष्ण जलवाले झरनों का जल, बावड़ी का गर्म जल 'प्रासुक' कहा गया है। 'रत्नमाला' (श्लोक 63-64) के उल्लेख के अनुसार “पाषाण को फोड़कर निकला हुआ अर्थात् पर्वतीय झरनों का अथवा रँहट के द्वारा ताड़ित हुआ जल और वापियों का गर्म-गर्म ताजा जल 'प्रासुक' है। इनके सिवाय अन्य सभी जल चाहे गंगा आदि का ही क्यों न हो, वह 'अप्रासुक' ही है।" 'व्रत-विधान-संग्रह' में कहा गया है—“छना हुआ जल दो घड़ी तक, हरड़ आदि से प्रासुक किया गया जल छह घण्टे तक और उबाला हुआ जल चौबीस घण्टे तक प्रासुक या पीने योग्य रहता है; उसके पश्चात् बिना छने हुए जल के समान हो जाता है।"
इसप्रकार जैन श्रावकाचार के अनुसार निर्जन्तु शुद्ध जल छानकर ही काम में लेना चाहिए। कविवर पं० राजमल्लजी तो स्पष्ट रूप से कहते हैं
"गालितं दृढवस्त्रेण सर्पिस्तैलं पयो द्रवम् । तोयं जिनागमाम्नायादाहरेत्स न चान्यथा ।।"
-(लाटीसंहिता, सर्ग 2, श्लोक 23) अर्थात् घी, तेल, दूध आदि तरल पदार्थों को जैनशास्त्र में कही हुई विधि के अनुसार मजबूत गाढ़े वस्त्र से छानकर ही खाने/पीने के काम में लेना चाहिए; पतले (तरल) द्रव्यों को बिना छाने कभी भी काम में नहीं लेना चाहिए। पानी क्यों छानना चाहिए?
पानी छानने का मूल प्रयोजन 'स्वस्थ' रहना है। आत्मिक दृष्टि से, शारीरिक
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स्वास्थ्य की दृष्टि से भी पानी छानने का विशेष महत्त्व है। क्योंकि बाहर ही नहीं, भीतर की भी शुद्धता अपेक्षित है, जो निजशुद्धात्म-स्वभाव में रहने से उपलब्ध होती है। बाहर की स्वस्थता मन और शरीर पर अवलम्बित है। दया के परिणाम से पर के प्राणों के संरक्षण के भाव से मन शुद्ध होता है और जीव-जन्तुओं के बचावपूर्वक पानी छानकर पीने से शरीर शुद्ध रहता है, व्यक्ति का शारीरिक स्वास्थ्य ठीक रहता है। परंपरित मान्यता के अनुसार जल की एक बूंद में इतने जीव आते हैं कि यदि वे कबूतर के बराबर होकर उड़ें, तो उनसे यह जम्बूद्वीप लबालब भर जाएगा। आधुनिक विज्ञान के आधार पर डॉ० जगदीशचन्द्र बसु ने यह सिद्ध कर दिखाया था कि जल की एक बूंद में 39,450 जीव पाए जाते हैं। ___ पण्डितप्रवर आशाधर जी ने जलगालन का प्रयोजन राग और हिंसा को दूर करना बतलाया है। उनके ही शब्दों में
“रागजीव-वधापायं भूयस्त्वात्तद्वदुत्सृजेत् ।
रात्रिभक्तं तथा युंज्यान्न पानीयमगालितम् ।।" – (सागार धर्मामृत, 2/14 )
अर्थात् धर्मात्मा पुरुषों को मद्य, मांस, मधु आदि की भाँति राग और जीवहिंसा से बचने के लिए रात्रिभोजन का त्याग करना चाहिए। जो दोष रात्रिभोजन में लगते हैं, वही दोष अगालित पेय-पदार्थों में भी लगते हैं - यह जानकर बिना छने हुये जल, दूध, घी, तेल आदि द्रव्यों के सेवन का त्याग करना चाहिए।
पानी छानने की विधि:-जलगालन-विधि समझने के पहले यह जान लेना आवश्यक है कि कौन-सा पानी पीने योग्य है और कौन-सा पीने योग्य नहीं है।' ब्र० पं० रायमल्लजी जल की शुद्धता के विषय में लिखते हुए कहते हैं कि तालाब, कुण्ड, अल्प जलवाली बहती हुई नदी, अकढ कुआँ (जिसे कुयें का पानी उँटता नहीं है) और छोटी बावड़ी का पानी तो छना हुआ होने पर भी पीने योग्य नहीं है। इस पानी में त्रस जीवों की राशि पाई जाती है। इसलिये जिस कुएँ का पानी पनघट पर छंटता हो, वह पीने योग्य है। नगरपालिका के नलों से होकर गन्दे स्थानों में मल-मूत्रादि तथा चमड़े को स्पर्श करता हुआ पाईप से बहने वाला जल पीने योग्य नहीं है। इसीकारण नल का पानी शुद्धता की दृष्टि से पीने के योग्य नहीं है।
पानी को छानने के लिए दुहरा, मजबूत, गाढ़ा वस्त्र काम में लेना चाहिए। पतला कपड़ा, रूमाल, रंगीन, गांठ या गुड़ी (सलवटों) वाला, सिला हुआ तथा पहनने का वस्त्र पानी छानने के काम में नहीं लेना चाहिए। इस सम्बन्ध में पं० दौलतरामजी ने 'जैन क्रिया-कोष' में बहुत सुन्दर वर्णन किया है। उनके ही शब्दों में
"इह तौ जल की क्रिया बताई, अब सुनि जलगालन विधि भाई। रंगे वस्त्र नहिं छानौ नीरा, पहरे वस्त्र न गालो रीरा ।।
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नाहिं पातरे कपडे गालो, गाढ़े वस्त्र छाणि अघ टालो । रेजा दृढ़ आंगुल छत्तीसा, लंबा अर चौड़ा चौबीसा।। ताको दो पुड़ता करि छानो, यही नातणा की विधि जानो। जल छाणत इक बूंद हु धरती, मति डारहु भाषे महावरती।। एक बूंद में अगणित प्राणी, इह आज्ञा गावै जिनवाणी। गलना चिउंटी धरि मति दाबो, जीवदया को जतन धराबो।। छाणे पाणी बहुते भाई, जल गलणा धाबे चित लाई। जीवाणी को जतन करो तुम, सावधान है विनवै क्या हम ।। राखहु जल की किरिया शुद्धा, तब श्रावकव्रत लहौ प्रबुद्धा।" इससे स्पष्ट है कि पानी छानने की शुद्ध क्रिया का पालन किए बिना कोई श्रावक नहीं हो सकता। वास्तुव में पानी छानने की विधि क्या है? वही क्रिया शुद्ध हो सकती है जिसमें जीवदया का पालन हो। पानी को गिराने में, ढोलने में, बहाने में अनेक जीवों का घात होता है। उन जीवों की रक्षा करना ही यथार्थ में जल-गालन है। इसलिये पानी औधाकर गलना-प्रमाण छानें । पानी गलने (छन्ने) में औंधा करने पर तत्काल छनता नहीं है; धीरेधीरे पानी अनुक्रम से छनता है। इसलिये गलने का प्रमाण यह है कि जिस बर्तन में छानना हो, उससे तिगुना लम्बा-चौड़ा दुहरा करने पर समचौकोर हो। पानी छानते समय जल की एक बूंद भी बर्तन से बाहर नहीं गिरनी चाहिए। इसीप्रकार अनछने पानी की एक बूंद भी छने पानी में नहीं गिरना चाहिए। इसलिये पं० आशाधरजी कहते हैं कि “छोटे छेदवाले या पुराने कपड़े से पानी छानना योग्य नहीं है।" - (सागार धर्मामृत, 3/16)
यह भलीभाँति ध्यान में रखने योग्य है कि जैन-परम्परा/आम्नाय में जल को एकेन्द्रिय जीवकाय माना गया है। ओस, बर्फ, धुयें के समान पाला, स्थूलबिन्दुरूप जल, सूक्ष्मबिन्दुरूप जल, चन्द्रकान्त मणि से उत्पन्न शुद्ध जल, झरने का जल, मेघ का जल, घनोदधिवात जल -ये सब जलकायिक जीव हैं। जल का वर्ण धवल माना गया है। जब तक जल को प्रासुक नहीं किया जाता है, तब तक उसमें सूक्ष्म जीवों का संचार बना रहता है। इसलिये छना हुआ जल अड़तालीस मिनट के भीतर काम में ले लेना चाहिए। ___ जल-गालन में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य जीवानी' का है। पं० दौलतरामजी के शब्दों में- ' "ऊपर सं डारौ मति भाई, दया धर्म धारी अधिकारी।
भंवरकली को डोल मॅगावो, ऊपर-नीचे डोर लगावो।। द्वै गुण डोल जतन करि वीरा, जीवाणी पधरावो धीरा। छाण्या जल को इह निरधारा, थावरकाय कहें गणधारा।।
-(जैन क्रियाकोष, 74-75) अर्थ:-पानी छानने के पहले अनछने पानी के बर्तन में अनछने पानी के हाथ और
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फिर बर्तन धो लीजिए। छने पानी से बर्तन को तीन बार धोना चाहिए। उसके पश्चात् बर्तन के मुख पर गलना या छन्ना लगाइये। बायें हाथ में छना पानी प्राप्त करने का बर्तन लीजिए और दाहिने हाथ से पानी की भरी हुई बाल्टी या डोल बर्तन के ऊपर उँडेल दीजिए। इसप्रकार क्रम-क्रम से थोड़ा-थोड़ा पानी छानिए। इसके बाद गलना या छन्ना खाली बाल्टी में उलट दीजिए और उसे छने पानी से धोकर जीवानी' कीजिए। ___'जीवानी' करने के लिए बाल्टी या लोटा में 5-7 अंगुल की लकड़ी बाँधकर भीतर आड़ी लगा देने से वह बर्तन कुआँ में सीधा चला जाता है। उसकी बर्तन की डोरी में उल्टा फंदा बाँध कर कुएँ के पैंदे तक बाल्टी या लोटा पहुँचाना चाहिए और जब वह पानी तक पहुँच जाए, तभी ऊपर से डोरी हिला देने से उस बर्तन से लकड़ी निकल जाती है।
और वह औंधा हो जाता है। उसी समय बर्तन को ऊपर खींच लेना चाहिए—इस विधि को जीवानी करना' कहा जाता है। आज के युग में बाल्टी के सबसे नीचे पिछली तरफ एक कड़ा लगवा लेना चाहिए। उस कड़े की रस्सी को इशारे से खींचते ही बाल्टी औंधी हो जायगी और पानी छानने का 'जीवानी' किया हुआ पानी बिना चोट पहुँचाए आराम से कुएँ में वापस पहुँच जाएगा - इसे ही जीवानी करना' कहते हैं। 'जीवानी' किया हुआ पानी ही वास्तव में 'छना पानी' कहलाता है। यही जल-गालन की विधि है।
ब्र० पं० राजमलजी के शब्दों में— “या भाँति जीवाणी पहोंचावै, तिनिधैं छाण्या पानी पीया कहिये। अर पूर्ववत जीवाण्या न पहोचे, ता. अणछाण्या पानी पीया कहिये वा सूद्र सादृश्य कहिये। जिनधर्मविर्षे तौ दया ही का नाम क्रिया है, दया बिना धर्म नाम पावै नाहीं। जाके घट दया है, तेई पुरुष भव-समुद्र कूँ तिरै हैं। -ऐसा पानी की शुद्धता का स्वरूप जानना।"
बिन्धि सब के पल्ले लाल, लाल बिना कोई नहीं।
याते भयो कंगाल, गांठ खोल देखी नहीं।। यह आत्मरूपी लाल (मणि) सब के अंचल में बन्धी हुई है। इससे वंचित कोई नहीं है फिर भी लोग यदि कंगाल (निर्धन) दिखायी देते हैं, तो उसका कारण यही है कि उन्होंने गांठ खोलकर अपने 'लाल' को देखने का कष्ट कभी उठाया नहीं। आत्मदर्शन मनुष्य की सबसे बड़ी; पूँजी है; किन्तु उसमें साँसारिकता की गाँठ पड़ी हुई है। उस 'गाँठ' को खोलकर 'णिगण्ठ' हुये बिना इस निर्धनता से छुटकारा नहीं मिल सकता।
भतार्थ ॐ हीं अहं भूतार्थभावना-सिद्धाय नमः। -(सिद्धचक्र विधान, 814, पृ0 189) ॐ हीं भूर्तार्थभक्तचेतनाय नमः। -(नयचक्र, 908)
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प्राकृत तथा अपवंश काव्य और संगीत प्राकृत के वसुदेव-हिण्डी, पउमचरियं, समराइच्चकहा, कुवलयमाला आदि ग्रन्थों में संगीत के अनेक सिद्धान्त आए हैं। ‘वसुदेव-हिण्डी' में वसुदेव, यशोभद्रा और गन्धर्वसेना आदि के आख्यानों में गीत, नाट्य और नृत्य का कथन आया है। आख्यानों को प्रभावोत्पादक बनाने के लिए नृत्य, अभिनय आदि की पूर्ण व्यवस्था थी। वसुदेव-हिण्डी' के आख्यानों से यह स्पष्ट है कि कला और शिक्षा के अन्तर्गत गीत, वाद्य और नृत्य, उदक वाद्य, वीणा, डमरू आदि की शिक्षा कन्याओं के लिए आवश्यक थी। वीणा, वंशी, दुन्दुभि, पटह आदि वाद्यों का विशेष प्रचार था। ____ 'पउमचरियं' में कैकयी की शिक्षा के अन्तर्गत नाट्य और संगीत को विशेष स्थान दिया गया है। संगीत के बिना अशेष कलाओं की शिक्षा सारहीन मानी जाती थी। लिखा है- “पढें सलक्खणगुणं, गंधव्वं सरविहत्ति-संजुत्तं ।
जाणइ आहरणविही, चउव्विहं चेव सविसेसं ।।" इसके अतिरिक्त अनेक स्थानों पर गीत, वाद्य, नृत्य का वर्णन आया है। बताया है कि जो जिनमंदिर में गीत-वाद्य एवं नृत्य से महोत्सव करता है, वह देव होकर उत्तम विमान में वास करता हुआ ‘परम उत्सव' प्राप्त करता है। यथा
"गंधव्व-तूर-णटें जो कुणइ महुस्सवं जिणाययणे।
सो वरविमाणवासो पावइ परमुस्सवं देवो ।।" 'समराइच्चकहा' में बहत्तर कलाओं के सन्दर्भ में नृत्य, गीत, वादित्र, और समताये चार संगीत के भेद आए हैं। उत्सवों और त्यौहारों के अवसर पर राजे, महाराजे, सेठ, सामन्तों के अतिरिक्त साधारण जनता भी गीत और नृत्य का आनन्द लेती थी। लोग अपनी-अपनी टोलियाँ बनाकर गाते-नाचते और आनन्द मनाते थे। इस ग्रन्थ में वाद्य, नाट्य, गेय और अभिनय — इन चारों भेदों का पूर्णतया निरूपण आया है। गुणसेन अपने साथियों की टोली द्वारा गायन-वादन करता हुआ अग्निशर्मा को चिढ़ाता है। 'समराइच्चकहा' की कथा का आरम्भ ही संगीत से होता है और अन्तिम भव की कथा में समरादित्य को संसार की ओर उन्मुख बनाने के लिए उसके मित्र गोष्ठियों की योजना करते हैं। इन गोष्ठियों में वीणा-वादन, अभिनय एवं गीत संगोष्ठी विशेषरूप से निर्दिष्ट हैं। वाद्यों में पटह, मृदंग, वंग, कांस्यक, तन्त्री, वीणा, दुन्दुभि, तूर्य आदि प्रधान हैं। विवाह, जन्मोत्सव, राज्याभिषेक आदि के प्रसंगों का संगीत से आरम्भ होना लिखा है। कुवलयमाला' में भी कलाओं के अन्तर्गत संगीत का उल्लेख है। इस ग्रन्थ में संगीत को मंगलसूचक और आत्मोत्थानकारक बतलाया है।
अपभ्रंश के कवियों में पुष्पदन्त, वीर, पद्मकीर्ति, धनपाल आदि ने संगीत के तथ्यों
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का वर्णन किया है। इन अपभ्रंश ग्रंथों में वाद्य-वृन्द और गायक-वृन्दों का पूर्णतया कथन आया है। वीणा-वादन परम मांगलिक माना गया है। 'गन्धर्वशास्त्र' के अन्तर्गत स्वर, ताल और पद इन तीनों का निर्देश है। स्वर के अन्तर्गत, स्वर, श्रुति, ग्राम, मूर्च्छना, स्थान, साधारण, अठारह जातियाँ, चार वर्ण, अलंकार तथा गीतिका का समावेश माना गया है.। ताल में आवाप, निष्काम, विक्षेप, प्रवेशक आदि एवं पद में स्वर, व्यंजन, वर्ण, संधि समाहित हैं। पद्मकीर्ति ने विभिन्न वाद्यों और ध्वनियों का अपने 'पासणाहचरिउ' में उल्लेख किया है
“महाणंदिणं णंदिघोसं सुघोसं झुझूवं झिझीवं रणंतं ठणंटं। । वरं सुंदरं सुंदरंगं वरंगं पसत्थं महत्थं विसालं करालं ।। हयाटट्टरी मद्दलं ताल कंसाल उप्फाल कोलाहलो ताबिलं । काहलि भेरि भंभोरि भंभारवं भासुरा वीणा-वंसा, मुटुंगा रओ।। सूसरो संख-सद्दो हुडुक्का कराफालिया झल्लरी रुजं सद्दालओ। बहु-विह-तुर-विसेसहिं मंगल-घोसहिं पडिबोहिय गब्भेसरि।
उट्टिय थिय सीहासणि पवर-सुवासिणि वम्मदेवि परमेसरि।।" इस काव्य-ग्रन्थ में विभिन्न वाद्यों के साथ गीतों और अभिनय का कथन है। पार्श्वनाथ के जन्माभिषेक के अवसर पर जो देवों ने संगीत प्रस्तुत किया है, वह आज की संगीत-गोष्ठियों से अधिक महत्त्वपूर्ण है। विभिन्न वादक गायकों की संगति करते हैं और उनके स्वर के अनुसार वाद्यों का स्वर उत्पन्न करते हैं
"तहिं कालि विविह हय पवरतर, भविया-यणज्जण-मण-आस-पूर। केहिमि आऊरिय धवल संख, पडु पडह घंट हय तह असंख ।। केहिमि अप्फालिय महुर-सद्द, ददुरउ भेरि काहल मउद्द। केहिमि उव्वेलिउ मरह-सत्थु, णव रसहिं अट्ठ-भावहिं महत्थु ।। केहिमि आलविउ वीण-वाउ, आढत्तु गेउ सूसरू सराउ। केहिमि उग्घोसिउ चउपयारू, मंगलु पवित्तु तइलोय-सारु ।। केहिमि किय सत्थियवर चउक्क, बहुकुसुम-दामगयण-यल-मुक्क। केहिमि सुरेहिं आलविविगेउ, णच्चिउ असेसु जम्माहिसेउ।।"
वीर कवि ने वीरता की वृद्धि करनेवाली वाद्य और गीत-ध्वनि का सुन्दर चित्रण किया है। युद्ध के वाद्यों को सुनकर कायर व्यक्ति भी शूरवीर हो जाते थे और उनके हृदय में भी वीरता की लहर उत्पन्न हो जाती थी। इस ग्रन्थ में पटह, तरड, मरदल, वेणु, वीणा, कंसाल, तूर्य, मृदंग, दुन्दुभि, घंटा, झालर, काहल, किरिरि, ढक्का, डमरू, हुडुक्का, तक्खा, खुन्द, ततखुन्ड आदि वाद्यों के नाम आए हैं। इन ध्वनियों का निर्देश भी 'जम्बूसामि चरिउ' की पंचम संधि में किया गया है
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“तरुणीमहाथट्टसंघट्टतुत आहरणमणिमंडिया चउप्पहा । छड्डियपडिपट्ट-पट्टोलपंडीपहावंतनेत्तेहिं संछइयमंडववियाणेसु लंबंतमुक्ताहलादाम-अल्लंतमाणिक्क झुंबुक्कसक्काउहायार-पसरंतकस्णावलीजालचित्तलिधरपंगणं । पहय पडुपडह पडिरडियदडिडंबरं, करडतडतण-तडिवडण-फुरियंबरं । घुमुघुमुक्क-घुमुघुमियमद्दलवरं, सालकंसालसलसलिय-सुललियसरं। डक्कडमडक्क-डमडमियडमरुब्भडं, घंट-जयघंटटंकाररहसियभडं । ढक्क त्रं त्रं हुडुक्कावलीनाइयं, रुं जगुर्जत-संदिण्ण-समधाइयं । थगगद्ग-थगगदुख-थगगदुग सज्जियं, करिरिकिरि-तट्ठकिरिकिरिरिकिर वज्जियं । तरिवरिवतरिव-तक्खि-तरिवतत्तासुंदरं, तदिदिबुदि-खुदखुदखुंदभामासुरं। थिरिरिकटतट्टकटथिरिरिकटनाडियं, किरिरितटखंदतटकिरिरि-तडताडियं । पहय-समहत्थसुपसत्यवित्यारियं, मंगलं गंदिघोसं मणोहारिय । तूरसद्देण चलियं महाकलयलं, रायराएण सह चाउरंगं बलं ।” ___ इसीप्रकार करकण्डु चरिउ, भविसयत्तकहा, सुगन्धदहमीकहा, मयणपराजय आदि ग्रन्थों में भी संगीत के प्रमुख सिद्धान्त आए हैं।
सन्दर्भ-सूची:1. 'पउमचरियं', प्राकृत टेक्सट सोसाइटी, सिरीज, वाराणसी, डॉ० एच० जैकोबी द्वारा
सम्पादित, सन् ई०, पृ० 213, पद्य संख्या 5। 2. 'पउमचरियं' प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी सिरीज वाराणसी, डॉ० एच० जैकोबी द्वारा सम्पादित,
सन् 1962 ई०, पृ० 260, पद्य-संख्या 84। 3. 'पासणाहचरिउ', प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी सिरीज, वाराणसी, सन् 1965 ई०, प्रो० प्रफुल्लकुमार
मोदी द्वारा सम्पादित, पृ० 62, संधि 8/7। 4. वही, पृ० 67, संधि 8/12। 5. 'जंबूसामिचरिउ', 4/91 6. 'जंबूसामिचरिउ', भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, पृ० 97, पद्य 5-6।
-(साभार उद्धृत, संगीतशती, पृष्ठ 809-84)
जैब-ज्योतिष के सम्बन्ध में डॉ0 हजारीप्रसाद का कथन है कि _.....इस बात से स्पष्ट प्रमाणित होता है कि 'सूर्यप्रज्ञप्ति' ग्रीक-आगमन से पूर्व की रचना है.... जो हो, सूर्य आदि को द्विव्यरूप प्रदान अन्य किसी जाति ने किया हो या नहीं, इसमें कोई सन्देह नहीं कि जैन-परम्परा में ही इसको वैज्ञानिकरूप दिया गया है। शायद इसप्रकार का प्राचीनतम उल्लेख भी जैन शास्त्रों में ही है।...... जैनधर्म कई बातों में आर्यपूर्व जातियों के धर्म और विश्वास का उत्तराधिकारी है।"
__-(तीर्थंकर महावीर, विजयेन्द्रसूरि, पृष्ठ 41-42) **
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जैनधर्म और अन्तिम तीर्थंकर महावीर
-डॉ० रमेश चन्द जैन जैन शब्द 'जिन' से बना है। जो रागादि कर्म शत्रुओं पर विजय प्राप्त करते हैं, वे 'जिन' कहलाते हैं।'- 'जिन' के द्वारा प्रणीत धर्म जैनधर्म कहलाता है । जैनधर्म में चौबीस तीर्थंकर माने गए हैं। इनमें से प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव थे। 'भागवत पुराण' में ऋषभदेव को विष्णु का आठवाँ अवतार स्वीकार किया गया है। 'भागवत' के अनुसार उनका जीवन महान् था तथा उन्होंने बड़ा तप किया। श्रमणों को उपदेश देने के लिए उन्होंने अवतार लिया था। अन्त में ऋषभदेव कर्मों से निवृत्त होकर महामुनियों को भक्ति, ज्ञान, वैराग्यमय परमहंस धर्म की शिक्षा देने के लिए सब त्याग कर नग्न तथा बाल खुले हुए 'ब्रह्मावर्त' से चल दिए थे। राह में कोई टोकता था, तो वे मौन रहते थे। लोग उन्हें सताते थे, पर वे उससे विचलित नहीं होते थे। वे 'मैं' और मेरे' के अभिमान से दूर रहते थे। परम रूपवान् होते हुए भी वे अवधूत की तरह एकाकी विचरण करते थे।
'अग्नि पुराण' में कहा गया है कि उस 'हिमवत प्रदेश' (भारतवर्ष) में बुढ़ापा और मरण का कोई भय नहीं था, धर्म और अधर्म भी नहीं था। प्राणियों में मध्यभाव (समभाव) था। ऋषभ ने राज्य भरत को प्रदान कर संन्यास ले लिया। 'भरत' के नाम से इस देश का नाम भारतवर्ष हुआ। भरत के पुत्र का नाम सुमति' था। ___ प्रसिद्ध ऐतिहासिक प्रमाणों से ऋषभदेव की मान्यता का समर्थन होता है। ऋषभदेव के पश्चात् अन्य तेईस तीर्थंकर और हुए, इनमें अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान या महावीर थे। 'यजुर्वेद' में तीन तीर्थंकरों के नामों का उल्लेख है—ऋषभदेव, अजितनाथ एवं अरिष्टनेमि।' तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ऐतिहासिक व्यक्ति थे और उन्होंने महावीर से ढाई सौ वर्ष पहले इस देश को अपने जन्म से अलंकृत किया था। इनके पिता काशी के राजा विश्वसेन तथा माता महारानी वामादेवी थी। काशी नगरी में 874 विक्रम पूर्व = 817 ई०पूर्व० में इनका जन्म हुआ था। तीस वर्ष के पश्चात् इन्होंने प्रव्रज्या अंगीकार की तथा कैवल्य को प्राप्तकर सारे भारतवर्ष में उपदेशों द्वारा धर्म प्रचारकर अन्त में बिहार के सम्मेदशिखर नामक स्थान से मुक्ति प्राप्त की।"
वर्द्धमान महावीर का जन्म 599 ई०पू० में बिहार प्रान्त के 'कुण्डपुर' नामक ग्राम में महाराजा सिद्धार्थ की पत्नी प्रियकारिणी त्रिशलादेवी की कुक्षि से हुआ था। लगभग तीस वर्ष की उम्र में उन्होंने गृहत्याग किया और 12 वर्ष, 5 मास, 15 दिन तक घोर तपस्या करने के पश्चात् उन्हें केवलज्ञान की उपलब्धि हुई। इसके पश्चात् वे सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और जिन हुए। अन्य तीर्थंकरों की भाँति प्रव्रज्या-काल से ही उन्होंने नग्न रहना
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प्रारम्भ किया, इसी कारण उनका धर्म ‘अचेलक धर्म' कहलाया।" उन्होंने अंग, बंग, मगध, काशी, कोशल आदि अनेक देशों में भ्रमण कर सम्पूर्ण भारतवर्ष में धर्म-पताका फहराई। उनका निर्वाण 527 ई० पूर्व में 'पावा नगरी में हुआ। - जैनधर्म के सिद्धान्त:-जैनधर्म में पाँच प्रकार के व्रतों को धारण करने का उपदेश दिया गया है। 1. अहिंसा, 2. सत्य, 3. अस्तेय (चोरी नहीं करना), 4. ब्रह्मचर्य और 5. अपरिग्रह (सांसारिक पदार्थों में आसक्ति न रखना)। जैन मुनि इन व्रतों का सम्पूर्ण रूप से पालन करते हैं, अत: वे 'महाव्रती' कहलाते हैं और गृहस्थ इन व्रतों का आंशिक पालन करते हैं, अत: वे 'अणुव्रती' कहलाते हैं।" जैन आचार का मूल अहिंसा है। संसार के समस्त प्राणी सुख चाहते हैं, दु:ख से दूर भागते हैं; सभी को अपना वय: प्रिय है तथा सभी जीवन से प्यार करते हैं, अत: किसी भी प्राणी का न तो वध करना चाहिए
और न किसी को कष्ट पहुँचाना चाहिए। प्रत्येक वस्तु में अनन्त गुण-धर्म हैं, अत: हम वस्तु का वर्णन भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से ही कर पाते हैं, अत: हमें दूसरे के अभिप्रायों को समझकर दूसरे के दृष्टिकोण को भी पर्याप्त महत्त्व देना चाहिए, यह अनेकान्त-दृष्टि जैन धर्म की विशेषता है। ___ यद्यपि भगवान् महावीर ने मुनियों पूर्णरूप से अपरिग्रही होने का उपदेश दिया था, किन्तु आचार्य भद्रबाहु के समय मगध में जब द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष पड़ा, मुनिचर्या का ठीक तरह से निर्वाह न होते देखकर बारह हजार मुनियों का समुदाय भद्रबाहु के नेतृत्व में दक्षिण भारत की ओर विहार कर गया। जो मुनि उत्तरभारत में अवशिष्ट रहे, उनमें से कुछ ने वस्त्र को परिग्रह न मानकर वस्त्र धारण करना प्रारम्भ कर दिया। जो साधु अपरिग्रह के अन्तर्गत नग्नत्व को आदर्श मानते रहे, वे 'दिगम्बर' और जो साधु शिथिलआचार को स्वीकार कर श्वेतवस्त्र धारण करने लगे, वे 'श्वेताम्बर' कहलाए। दिगम्बर मुनियों के अनुयायी गृहस्थ भी दिगम्बर' और श्वेताम्बर साधुओं के अनुयायी गृहस्थ भी 'श्वेताम्बर' कहे जाने लगे। इसप्रकार भद्रबाहु के समय तक अविभाजित जैन-संघ 'दिगम्बर' और 'श्वेताम्बर' दो भागों में विभाजित हो गया।"
जैनधर्म में ऊँच-नीच, राजा-रंक सभी को समान स्थान था। आचार्य समन्तभद्र ने महावीर के तीर्थ को सर्वोदय तीर्थ' कहा है; जिसमें सबका उदय हो, उसे 'सर्वोदय' कहते हैं। तीर्थंकरों की धर्म सभा 'समवसरण' कही जाती थी; उसमें देव, दानव, मानव, पशु सभी उपदेश सुनने के लिए उपस्थित होते थे। ये सभी अपनी-अपनी भाषा में उपदेश सुनते थे। जैनधर्म में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र—इन तीनों को 'त्रिरत्न' की संज्ञा से विभूषित किया गया है। इन तीनों की एकता ही मोक्ष का मार्ग है।" प्रत्येक जीवात्मा अपने में इन तीनों गुणों का विकास कर परमात्मा बन सकता है। __ जैन गृहस्थों को कृषि, सेवा, वाणिज्य, शिल्प आदि द्वारा जीविकोपार्जन करने का
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उपदेश दिया गया है"; क्योंकि गृहस्थ पूर्ण हिंसा का परित्यागी न होकर संकल्पपूर्वक की गई हिंसा का ही त्यागी होता है। अत: हिंसाकार्य छोड़कर जैन गृहस्थ सब प्रकार के कार्यों से आजीविकोपार्जन करते हुए देखे जाते हैं।
जैनधर्म का प्रसार:-'हरिवंशपुराण' के अनुसार भगवान् महावीर ने काशी, कौशल, कुसन्ध्य, अस्वष्ट, साल्व, त्रिगर्त, पंचाल, भद्रकार, पटच्चर, मौक, मत्स्य, कनीय, सूरसेन, बृकार्थ, कलिंग, कुरुजांगल, कैकेय, आत्रेय, कम्बोज, बाल्हीक, यवन, सिन्धु, गान्धार, सौवीर, सूर, भीर, दशरूक, वाडवान, भरद्वाज, क्वाथतो और समुद्रवर्ती देश, उत्तर के तार्ण, कार्ण और पृच्छाल नामक देशों में विहार किया था, जैसाकि तीर्थंकर आदिनाथ ने किया था। उनकी धर्मदशना को तत्कालीन प्रमुख राजाओं और जनसाधारण ने सुना। इसप्रकार जैनधर्म का सारे भारत में व्यापक प्रसार हुआ। अनेक राजाओं, राजवंशों, सेनापतियों, मन्त्रियों, श्रेष्ठियों एवं व्यापारियों ने इसे प्रश्रय दिया। महावीर के समय से पश्चात्काल तक श्रेणिक, चेटक, प्रसेनजित्, उदयन, नन्दवंशीय राजा, चन्द्रगुप्त मौर्य, सम्प्रति, कलिंगचक्रवर्ती खारवेल, कलचुरि नरेश, गुजरात के चालुक्य नरेश, राष्ट्रकूट नरेश, दक्षिण के चालुक्य और होयसल राजवंश, गंगवंश, आन्ध्रवंशी राजा, नहपान, गुर्जर प्रतिहार, कदम्ब वंश, विजयनगर के राजा, सेनापति चामुण्डराय, गंगराज, हुल्ल, वस्तुपाल और तेजपाल, भामाशाह तथा राजस्थान के जैन दीवानों के संरक्षण में जैनधर्म खूब फला-फूला। किसी समय दक्षिण में तो जैनधर्म की राजधर्म' जैसी स्थिति रही। __ साहित्य के क्षेत्र पर हम ध्यान दें, तो ज्ञात होता है कि महावीर निर्वाण के 980 वर्ष बाद वलभीनगर में क्षमाश्रमण देवर्द्धिगणि के सान्निध्य में श्वेताम्बर-परम्परा के प्रमाणभूत' आगम-ग्रन्थों का संकलन किया गया। दिगम्बर-परम्परा के सिद्धान्त-ग्रन्थों में 'षट्खण्डागम' के लेखक पुष्पदन्त तथा भूतबति एवं कषाय प्राभृत' के रचयिता आचार्य गुणधर बहुत प्राचीन हुए। इस परम्परा में आचार्य सिद्धसेन, आचार्य कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, पात्रकेशरी, विद्यानन्द, जिनसेन, गुणभद्र, वादीभसिंह, सोमदेवसूरि, प्रभाचन्द्र, वादिराज और अमृतचन्द्र जैसे समर्थ आचार्य हुए। श्वेताम्बर-परम्परा में आचार्य हरिभद्र, मल्लिषेणसूरि, हेमचन्द्र, यशोविजय आदि अनेक आचार्य हुए; जिन्होंने प्रभूत मात्रा में साहित्य-सृजन किया। जैनाचार्यों ने संस्कृत के साथ तत्कालीन समय में प्रचलित प्राकृत, अपभ्रंश, तमिल, कन्नड़, गुजराती, मराठी, राजस्थानी आदि अनेक लोकभाषाओं को अपनाया। कला के क्षेत्र में भी मन्दिरों, मूर्तियों, स्तूपों, चैत्यगृहों और गुहाचित्रों, राजगृह उड़ीसा, बुन्देलखण्ड और मथुरा में प्राप्त मूर्तियों के अतिरिक्त दक्षिण के श्रवणबेलगोला, वेणूर, कारकल, धर्मस्थल आदि स्थानों पर विराजमान भगवान् बाहुबली की प्रतिमायें अपने ढंग की अनूठी हैं। उड़ीसा की हाथी-गुफा के भित्तिचित्र जहाँ ईसवी पूर्व द्वितीय शताब्दी के माने जाते हैं, वहाँ ग्वालियर के पास चट्टानों पर जैनमूर्तियों के नमूने 15वीं सदी तक के उपलब्ध हैं।
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भारतीय चित्रकाल का मध्य एवं उत्तरमध्यकालीन इतिहास जैन चित्रकला का इतिहास है। दसवीं ग्यारहवीं शती से पन्द्रहवीं शती तक जैन हस्तलिखित-ग्रन्थों में स्थान पाने वाले चित्र व पट्टावलियाँ ही चित्र सामग्री के रूप में चित्र-इतिहास के कोष को भरते हैं। 'मोहनजोदड़ों' और 'हड़प्पा' के बाद भारत की प्राचीन मूर्तियाँ जैन मूर्तियाँ ही हैं। शिलालेखों में भी ‘कलिंग जिन' की मूर्ति का उल्लेख सबसे प्राचीन है। 'मोहनजोदड़ों' और 'हड़प्पा' की योगी की मूर्तियों में भी विद्वानों ने 'कायोत्सर्ग-मुद्रा' को ढूँढ निकाला है, जो कि जैन मूर्तियों की विशेष मुद्रा है। इसप्रकार कला और स्थापत्य के क्षेत्र में भी जैनों का अमूल्य योगदान है।
सन्दर्भ-सूची
1. मूलाचार, 561 2. “जिनस्य सम्बन्धी जिनेन प्रोक्तं वा जैनम्।” –(प्रवचनसार-तात्पर्यवृत्ति, 206)। 3. एम० हिरियन्ना, भारतीयदर्शन, पृ० 156। 4. श्री सतीशचन्द्र चट्टोपाध्याय एवं धीरेन्द्रमोहनदत्त, 'भारतीयदर्शन', पृ० 46। 5. आचार्य बलदेव उपाध्याय : 'भारतीय दर्शन', पृ० 90। 6. बैरिस्टर चम्पतराय : ‘आदि ब्रह्मा ऋषभदेव' (अनुवाद की ओर से)। 7. अग्निपुराण, 10/10/11। 8. आदिब्रह्मा ऋषभदेव (अनुवाद की ओर से)। 9. डॉ० राधाकृष्णन: 'भारतीय दर्शन' (भाग-1), पृ० 233। 10. आचार्य बलदेव उपाध्याय: भारतीय दर्शन, पृ० 91। 11. वही, पृ० 91। 12. विद्यानन्द मुनि : 'तीर्थंकर वर्द्धमान', पृ० 33। –आचार्य जिनसेन: हरिवंशपुराण 9/211-5; निर्वाणभक्ति 4 । 13. जयधवला, भाग 1, पृ० 81; निर्वाणभक्ति: 12। 14. “आचेलक्को धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स" अर्थात् ऋषभदेव के पहिले और बाद के महावीर भी धर्म अचेलक (निर्वस्त्र) था। (श्वेताम्बर) पंचाशक मूल-17, प्रकाशक ऋषभदेव केसरीत्मव श्वेताम्बर संस्था रतलाम 1928। जैन आचार, पृ० 153। 15. निर्वाणभक्ति, 251 16. तत्त्वार्थसूत्र, 7/1-2। 17. एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका खण्ड-25, ग्यारहवाँ संस्करण सन् 1911। - H.H. Wilson-Essays and lectures on the religion of Jains. 18. आचार्य समन्तभद्र, 'युक्त्यनुशासन', 61। 19. विद्यानन्द मुनि : तीर्थंकर वर्द्धमान, पृ०60। 20. तत्वार्थसूत्र 1/1। 21. स्वयम्भूस्तोत्र-2। 22. सागारधर्मामृत 4/8-9। 23. सागारधर्मामृत 4/1213। जिनसेन : हरिवंशपुराण 3/3/7। 24. पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री : जैनधर्म, पृ० 47। 25. जैनों का साहित्य के क्षेत्र में योगदान हेतु देखिए—डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री कृत 'तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा' एवं पार्श्वनाथ शोध संस्थान वाराणसी से कई भागों में प्रकाशित 'जैन साहित्य का वृहद् साहित्य'। 26. कला के क्षेत्र में जैनों के योगदान हेतु भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली से प्रकाशित ग्रन्थ 'जैन कला और स्थापत्य' भाग 1-3, देखें।
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गुणों का भंडार लौंग' 'लौंग' मर्टेसी प्रजाति के यूजीनिया कैरियोफाइलेटा नामक मध्यम कद वाले सदाबाहर वृक्ष के सूखे हुए फूल की कली है। लौंग का अंग्रेजी पर्यायवाची क्लोव है, जो लेटिन शब्द क्लेविको से निकला है। इस शब्द से कील या कांटे का बोध होता है, जो लौंग की आकृति से मिलते हैं।
छोटा-सा दिखाई देने वाली लौंग अन्य मसालों की तुलना में कहीं अधिक गुणकारी है। इसकी सुगंध भी इतनी भीनी-भीनी होती है कि दूर से ही अलग महसूस की जा सकती है। इसके रत्ती भर उपयोग से खाना जायकेदार बनाया जा सकता है। यहाँ तक कि टूथपेस्ट, साबुन, मंजन, इत्र और तेल को सुगंधित करने के लिये इसका उपयोग किया जाता है। दाँत के दर्द में लौंग का तेल रामबाण साबित होता है। लौंग को चबाने से सांस की दुर्गंध दूर होती है और दाँतों में छिपे हुए कीटाणु भी मर जाते हैं। लौंग का प्रयोग पाचन-शक्ति को ठीक रखने के अलावा गले की खराश को भी दूर करता है।
चीन में ईसा से तीन शताब्दी पूर्व से ही लौंग प्रचलन में आ गया था। यूरोप के अन्य देशों में इसकी जानकारी 16वीं शताब्दी में उस समय हुई जब पुर्तगालियों ने इसे मलैका द्वीप में खोज निकाला। वर्षों तक इस पर पुर्तगालियों और डचों का एकाधिकार रहा।
लौंग अब सभी उष्णकटिबंधीय देशों में पैदा होता है। जंजीबार में 90 प्रतिशत तथा सुमात्रा, जमैका, ब्राजील और वेस्टइंडीज में भी इसकी काफी पैदावार होती है। ____लौंग के बीज से पौधा लगाया जाता है और जब पौधे तीन-चार फुट के हो जाते हैं, तो उन्हें 20 से 30 फुट की दूरी पर लगा दिया जाता है। लौंग के पेड़ पर छठे वर्ष फूल लगने शुरू हो जाते हैं और 12 से 25 वर्ष तक अच्छी फसल होती है। एक बारे में एक पेड़ से तकरीबन तीन से चार किलोग्राम लौंग मिलती है।
लौंग के फूल गुच्छों में सुर्ख लाल रंग के खिलते हैं। जैसे ही इन कलियों का रंग हल्का गुलाबी होता है और वे खिलती हैं उन्हें चुन-चुनकर हाथ से तोड़ लिया जाता है। कभी-कभी पेड़ के नीचे कपड़ा बिछाकर शाखा को पीटकर कलियों को गिरा लिया जाता है। इसे धूप में रखकर सुखाया जाता है, लेकिन खराब मौसम होने पर इसे आग में (सेककर) भी सुखाते हैं। कभी-कभी कलियों को सुखाने से पहले गर्म पानी में धो लेते हैं। सूखने के बाद 40 प्रतिशत लौंग बचता है।
असली लौंग बेहद सुगंधित होता है, उसके ऊपरी सिरे को दबाने पर तेल निकलने लगता है, जबकि सस्ते किस्म का लौंग तेलरहित बिकता है। तेलयुक्त लौंग को ही
औषधीय गुणों वाला माना जाता है, जिसका उपयोग वैद्य और हकीम बड़े पैमाने पर करते हैं।
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खाद्य पदार्थों के साथ-साथ पान तथा बड़े पैमाने पर सौंदर्य प्रसाधनों में भी किया जाता है। हकीमों के अनुसार 'लौंग' तासीर के लिहाज से गर्म, उत्तेजक और खुश्क होता है और अनेक प्रकार के दर्द को दूर करता है। आयुर्वेद में इसे दर्द, अपच तथा वायुविकार-नाशक बताया गया है। ___ लौंग का सेवन खाने के प्रति रुचि पैदा करता है। सर्दी-खांसी, पित्त, कफ, रक्त विकार में भी उपयोगी है। खांसी की शिकायत होने पर लौंग को तवे पर गर्म कर चबाकर देर तक चूसना चाहिए। दांत के दर्द में लौंग को दर्द के स्थान पर दबाने अथवा लौंग के तेल में भीगी रुई को दर्द के स्थान पर रखने से राहत मिलती है।
सिरदर्द में लौंग का लेप कनपटी पर लगाने से दर्द भागता है। लौंग चबाने से मसूड़े मजबूत होते हैं। शरीर के किसी हिस्से में सूजन आने पर उस स्थान पर लौंग का लेप करने से सूजन दूर होती है। गर्भवती महिलाओं को उल्टी की शिकायत होने पर लौंग को पानी में भिगोकर उस पानी को पीना चाहिए। इस पानी में मिश्री मिलाना भी लाभदायक होता है। इस पानी को पीने से शरीर में पानी की कमी की शिकायत भी दूर होती है।
दिखने में भले ही छोटा लगे, लेकिन अपने गुणों के कारण सामान्य रोगों को दूर भगाने में इसके महत्त्व को कम करके नहीं आंका जा सकता है।
- (साभार उद्धृत – स्वागत' पत्रिका, अंक जनवरी 1999)
तम्बुओं का शहर लड़ाई के बाद अरब की सेनाओं का सेनापति इब्ने अल अस अपना तम्बू उखड़वा रहा था, तो उसने देखा तम्बू के एक कोने में मैना ने घोंसला बना रखा है।
सेनापति ने तम्बू तोड़ना रुकवा दिया और मैना का घर उजाड़ने के बजाए अपने शिविर को ही अपना मुख्यालय बना लिया और वहीं रहने लगा। धीरे-धीरे यहीं एक बड़ा नगर बस गया, जिसे अलफुस्तर (अरबी भाषा में तम्बुओं का शहर) कहा जाने लगा। आज भी मिस्र में अलफुस्तर नाम का शहर है, किन्तु अब वहाँ तम्बू नहीं हैं। **
-(साभार उद्धृत, 'नवभारत टाईम्स' दिल्ली)
परीक्षक 'आचार्य सर्वचेष्टासु लोक एव हि धीमतः । अनुकुर्यात्तमेवातो लौकिकेऽर्थे परीक्षकः ।।'
-(आचार्य वाग्भट्ट, अष्टांगहृदये, 2/45) अर्थ:-बुद्धिमान् मनुष्य के लिये सब क्रियाओं में लोक (समाज) ही आचार्य है; उससे भी सीखे। परीक्षक (विचारक) मनुष्य लौकिक व्यवहार में लोक का ही अनुकरण करें।
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केला औषधि भी है ईसा पूर्व 327 में सिकंदर ने भारत की 'सिंधु घाटी' में केले की खेती देखी थी। रोमन इतिहासकार प्लिनी (23-79 ईसवी) कदलीफल का वर्णन करनेवाला सबसे पहला व्यक्ति था। उसने लिखा था कि भारत के ज्ञानी लोग कदलीवक्ष के नीचे बैठकर धर्म-दर्शन की चर्चा करते हैं और प्राय: केले के अतिरिक्त और कुछ नहीं खाते। बाद में 18वीं शताब्दी के वनस्पति-विज्ञानी लाइनेस ने इसका वर्गीकरण कर इसे 'मूसा सोपाइंटम' यानी ज्ञानी चिंतन' नाम दिया था। सातवीं शताब्दी तक यह स्वादिष्ट फल केवल एशिया तक सीमित था। बाद में अरबी व्यापारियों द्वारा 'पश्चिम अफ्रीका' पहुँचा। यहीं से शायद 'बाना', 'अबाना', 'गबाना', 'फुनाना', 'बुनाने' जैसे अफ्रीकी शब्दों से इसके प्रचलित विचित्र नाम बनना शुरू हुये। लगभग इन्हीं दिनों स्पेनी और पुर्तगाली अन्वेषक तथा धर्मप्रचारक इस पौधे को अपने साथ कनेरी द्वीप तथा बाद में मध्य और दक्षिण अमरीका ले गए। एक शताब्दी पहले तक पश्चिमी यूरोप और अमरीका में केला बड़ा दुर्लभ और विदेशी फल समझा जाता था। 19वीं शताब्दी के शुरू में जब मध्य अफ्रीका से केले की पहली खेप अमरीका पहुंची, तो न्यूयार्क और बोस्टन के बंदरगाहों पर उसे देखनेवालों की भीड़ लग गई। लोग इस फल को देखकर चकित रह गए। ___ केला सम्पूर्ण भोजन होने के साथ ही सिरदर्द, खसरा और पेट की कुछ बीमारियों के लिए काम आता है। हाल ही में अध्ययन से पता चला है कि केला अतिसार और आंत के कुछ रोगों के लिए औषधि का काम करता है। केला सादा, वायु न बनाने वाला तथा सुपाच्य होता है। और एकमात्र ऐसा ताजा फल है, जो पेट के 'अलसर' के रोगियों को दिया जाता है। यह सबसे ज्यादा पौष्टिक होता है। उच्चरक्तचाप-नियंत्रण के लिए जरूरी पोटेशियम से समृद्ध केले में विटामिन 'ए', 'बी' और 'सी' भी होते हैं। दूध पीनेवाले शिशु के लिए रोज विटामिन की, नियासीन, राइबोल्फेविन और थायमीन की जितनी मात्रा जरूरी होती है; उसका चौथाई अंश एक केले में मिल जाता है। केले में 'सोडियम' कम होता है। कोलेस्टरॉल' बिल्कुल नहीं होता। इसमें सेब से डेढ़ गुनी अधिक 'शर्करा' होती है। केला चर्बी भी नहीं बढ़ाता, हालाँकि लोग आम तौर पर ऐसा सोचते हैं। सामान्यत: एक इंच के केले में 85 कैलोरी होती है, इतनी ही कैलोरी एक संतरा या सेब में होती है। इस अद्भुत फल का कभी अकाल नहीं पड़ सकता। इस फल को चाहनेवाले इसे हर मौसम में और हर जगह पा सकते हैं।
'अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नमः।।' -(कातन्त्र, 6) अर्थ:—अज्ञानरूप अन्धकार से अन्धे हुए लोक के चक्षुओं को जिन्होंने सम्यग्ज्ञानरूप | कज्जल-शलाकाओं से उन्मीलित किया, उन सुगुरुओं को मेरा नमस्कार है। **
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अभिमत
० 'प्राकृतविद्या' के सभी अंक मुझे बराबर मिलते रहे हैं। उसके सामग्री-चयन एवं उसके शुद्धरूप में प्रकाशन को देखकर मैं सदा प्रभावित हुई हूँ। पर इस बार का वर्ष 10, अंक 2, जुलाई-सितम्बर 1998 ने मुझे प्रेरित किया आपको पत्र लिखने के लिए। सर्वप्रथम पत्रिका के आकर्षक बाह्य आवरण ने आकृष्ट किया। नीला आसमानी रंग, उस पर गन्ने (ताजा पत्तों सहित) के टुकड़ों से बने अक्षर-विन्यास ने 'प्राकृतविद्या' की प्रकृति को अभिव्यक्ति दी है। पर उसके नीचे वृत्त में अंकित तथा वृत्त की परिधि से बाहर जाते हुए वृश्चिक' ने कुछ उत्सुकता ऐसी जगाई कि क्या कहूँ? और उसके नीचे लिखे शब्द विद्वत्ता का प्रतीक' । जैसे आप को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रकाशित गजेटियर' ने चिंतनशील बनाया, वैसे ही मुझे भी। पर मुझे चिंतन का कष्ट करना नहीं पड़ा, क्योंकि 'आवरण पृष्ठ के बारे में आपने जो जानकारी दी, उससे जिज्ञासा शांत हुई। सूचनाएं तथा नई बातें जानने को मिली। रूढ़ियाँ मनुष्य को संकीर्ण बना देती हैं। 'बिच्छू' के संबंध में आम आदमी नकारात्मक रुख रखता है। वृश्चिक राशि का नाम है और स्वाभाविक है कि उसमें जिनमें व्यक्ति अच्छे-बुरे दोनों गुणों से युक्त होंगे। विद्वान् की तुलना वृश्चिक से कर उसकी जो व्याख्याएँ आपने की हैं, वे बहुत ही युक्तियुक्त हैं। बधाई स्वीकारें।
सम्पादकीय विद्या विवादाय' आत्मचिंतन के लिए प्रेरित करता है। आचार्यश्री विद्यानन्द मुनि जी का 'युवकों को संदेश' युवकों के लिए उनका आशीर्वचन ही है। इसके अतिरिक्त 'वास्तुविधान में मंगलवृक्ष' (श्रीमती अमिता जैन) तथा शिक्षा की पर्याय-सरस्वती' (श्रीमती रंजना जैन) रुचिकर लगे। प्राकृत में मेरी गति नहीं है, पर फिर भी उससे संबद्ध लेखों को रुचिपूर्वक पढ़ती हूँ।
-डॉ० (श्रीमती) प्रवेश सक्सैना, दिल्ली ** o आपके संपादन में 'प्राकृतविद्या' दिनोंदिन प्रगति पथ पर अग्रसर है, यह लिखते प्रसन्नता होती है। प्राकृतभाषा के साथ-साथ अन्य उपयोगी एवं ज्ञानवर्द्धक सामग्री चयन करने का भी आपने जो विशेष प्रयास किया है, जिससे कि पत्रिका सर्वजनोपयोगी बनती जा रही है – सराहनीय है। इस अंक में प्राय: सभी लेख पठनीय हैं—आचार्यश्री का 'युवकों को संदेश' प्रेरणास्पद है तथा सम्राट् खारवेल सत्संग मंदिर के शिलालेख संबंधी झलकियाँ अनुपस्थितजनों को दर्शनीय हैं।
-नाथूराम डोंगरीय, इन्दौर ** 0 आपके द्वारा संपादित 'प्राकृतविद्या' के अंक प्राप्त हो जाते हैं, तदर्थ आभारी हूँ। 'प्राकृतविद्या' में संकलित सामग्री खोजपूर्ण एवं महत्त्वपूर्ण रहती है। प्राकृत की नई-नई रचनायें एवं लेखकों के परिचय प्राप्त कर प्रसन्नता होती है।
___-डॉ० नेमिचन्द्र जैन, सागर, म०प्र० ** ० 'प्राकृतविद्या' का अंक मिला पढ़कर मन को बहुत प्रसन्नता हुई, आवरण-पृष्ठ पर बिच्छू' का विद्वत्ता का प्रतीक अंकन एवम् उस बारे में आलेख बौद्धिक लगे। विद्या-विवादाय
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....? 'सम्पादकीय' अत्यंत सामयिक है ही, साथ ही वर्तमान युग प्रामाणिक शोधपरक, वैज्ञानिक भी है। वादे-वादे जायते तत्त्वबोधः । तीर्थंकर भगवन्तों की देशनाएँ, भाष्य, टीका एवम् हिन्दी, अंग्रेजी एवं अन्य भाषा जर्मन आदि में उपलब्ध है। क्या उनके शुद्धिकरण की आवश्यकता है?
-कन्हैयालाल बॉठिया, कानपुर ** ० 'प्राकृतविद्या' जुलाई-सितम्बर अंक प्राप्त हुआ। हर अंक नई साज-सज्जा, शोधपूर्ण सामग्री एवं नूतन चिन्तन बिन्दुओं को लेकर आता है। अंक मे पूर्ण पर्याप्त पठनीय सामग्री रहती है। मुद्रण शुद्ध और प्रामाणिक होता है। विद्वत्ता का प्रतीक वृश्चिक' के बारे में आपकी दृष्टि अत्यन्त चिन्तनपूर्ण है। इस ज्ञान-ज्योति को प्रकाशित रखने के लिए आपको धन्यवाद।
-लाल चन्द्र जैन प्राचार्य, गंज बासोदा, (म०प्र०) ** 0 'प्राकृतविद्या' का प्रत्येक अंक शोध-सामग्री से परिपूर्ण रहता है। हार्दिक बधाई।
-डॉ० रत्नचन्द्र अग्रवाल, जयपुर ** 0 'प्राकृतविद्या' का जुलाई-सितम्बर '98 अंक मिला। इसके माध्यम से हमारी मूल भाषा प्राकृत, विशेषत: शौरसेनी प्राकृत के बारे में जो महत्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध होती है, वह सम्पूर्ण समाज एवं देश के जिज्ञासुवर्ग के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण उपादान है। उक्त अंक के आवरण पृष्ठ पर वृश्चिक (बिच्छू) को विद्वत्ता का प्रतीक रूप में अभिहित कर उसका सम्यक् समाधान प्रस्तुत कर सम्पादक महोदय ने समाज की अप्रियकर घटनाओं के संदर्भ में प्रतीकात्मक रूप से बहुत कुछ कह दिया है। बिच्छु जैसा डंक मारने की प्रवृत्ति वर्तमान में फैशन जैसी हो गयी है। आरोप-प्रत्यारोप, स्पष्टीकरण-समाधान आदि बिच्छू के डंक जैसे जहरीले हो गये हैं। सभी जन गुणदोष का विचार कर बिच्छु की एकानतस्थलीय ज्ञानसाधना से प्रेरणा लेंगे, जिसमें समाज/संस्कृति का हित निहित है। विद्याविवादाय' सम्पादकीय सामयिक, सारगर्भित एवं दिशाबोधक हैं?
प्रो० डॉ० राजाराम जैन, प्रो० माधव श्रीधर रणदिवे, पं० जयकुमार उपाध्ये, राजकुमार जैन आदि के लेख विविधतापूर्ण उपयोगी सामग्री से भरपूर हैं, जो पठनीय हैं। पत्रिका का स्वरूप नित-नवीन शोध-खोजपरक होता जा रहा है, जिसके लिए प्राकृतविद्या परिवार बधाई का पात्र है।
-डॉ० राजेन्द्र कुमार बंसल, अमलाई ** 0 प्राकृतविद्या' का जुलाई-सितम्बर 98 अंक मिला। बिच्छू का आवरण चित्र तथा विद्वान् से उसकी तुलना बौद्धप्रद पायी। आपके लेख 'औचित्यपूर्ण उत्सव...', पं० नाथूलाल जी शास्त्री का लेख सिद्ध क्षेत्रों में चरण चिन्हों का महत्त्व' अतिउपयुक्त है। चरणचिह्न का जो विश्लेषण उन्होंने किया, वह प्रामाणिक है। तीर्थंकरों के सिवा अन्यों की प्रतिमायें (जो सिद्ध हुए हैं) नहीं होनी चाहिये । प्रतिष्ठाचार्य वर्ग तथा आयोजक इस और अवश्य ध्यान दे। शौरसेनी प्राकृत के बारे में अतिशय उपयुक्त जानकारी इस पुस्तक में है। यह डॉ० रमेशचंद्र जैन और डॉ० उदयचंद्र जैन के लेखों से सहज प्राप्त है। सामग्री सुंदर और ज्ञानवर्धक है।
-मनोहर मारवडकर, नागपूर **
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(पुस्तक-समीक्षा
मूलकर्ता
प्रकाशक
पुस्तक का नाम • पाहुडदोहा
- मुनि रामसिंह संपादक व अनुवादक - डॉ० देवेन्द्र कुमार शास्त्री संस्करण
- प्रथम संस्करण 1998, पक्की जिल्द, आकर्षण मद्रण - भारतीय ज्ञानपीठ, 18 इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड,
नई दिल्ली-110003 मूल्य
- 55 रुपये, पृष्ठ संख्या 260 भारतीय ज्ञानपीठ की प्रतिष्ठा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों/कृतियों के स्तरीय प्रकाशन की रही है। इसी श्रृंखला में एक नवीनतम प्रकाशन आया है 'दोहापाहुड', जो ग्यारहवीं शताब्दी ई० के संत मुनि रामसिंह द्वारा विरचित उत्कृष्ट आध्यात्मिक रचना है।
इस कृति की सर्वप्रथम शोध स्वनामधन्य विद्वद्वर्य डॉ० हीरालाल जी जैन ने की थी, तथा उन्होंने इस पर गवेषणापूर्ण विशद प्रस्तावना, मूलानुगामी हिन्दी अनुवाद, उपलब्धपाठभेद एवं आवश्यक टिप्पणियों के साथ कारंजा से सन् 1933 में प्रकाशित कराया था। तदुपरान्त उन्हीं के संस्करण के आधार से कुछ न्यूनाधिक्य-सहित एक-दो स्थानों से किन्हीं सज्जनों ने अपने संपादकत्व में इसे प्रकाशित कराया, जो विशेष उल्लेखनीय भी नहीं हैं। ___ डॉ० हीरालाल जी ने इसके पाठ-सम्पादन व अनुवाद में व्यापक सावधानियाँ रखीं थीं, किंतु सीमित प्रतियों की उपलब्धता तथा अन्य कुछ कारणों से इस कार्य में अभी कई दृष्टियों से गुंजाइश प्रतीत होती थी। अब यह कृति कई दृष्टियों से परिमार्जित एवं पुष्ट होकर यथायोग्य नवीन कलेवर में विद्वद्वर्य डॉ० देवेन्द्र कुमार जी शास्त्री के द्वारा सम्पादित एवं अनूदित होकर इस संस्करण के रूप में प्रकाशित हुई है, जो निश्चितरूप से स्वागत-योग्य है।
इसकी प्रस्तावना' में विद्वान् सम्पादक ने ग्रन्थ के नामकरण, विषयवस्तु, ग्रंथकर्ता एवं प्रतियों का संक्षिप्त किंतु विद्वत्तापूर्ण परिचय दिया है; किंतु पूर्व-प्रकाशित संस्करणों के बारे में परिचय एवं उनके वैशिष्ट्य का उल्लेख भी यदि इसमें होता, तो इस संस्करण की नवीनता एवं विशेषता पाठकों को अति स्पष्ट हो जाती। फिर भी जो श्रम सम्पादक-विद्वान् ने किया है, वह अपने आप में स्वत: मुखरित है।
ग्रंथ के मूलपाठों के अधिकांश पाठान्तर 'पादटिप्पण' में प्रदत्त हैं, ताकि तुलनात्मक
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अध्ययन की रुचिवाले गवेषियों को स्पष्टता हो सके। किंतु प्रतीत होता है कि जिस प्रति के मुखपृष्ठ की छायाप्रति इस संस्करण के आवरण पर मुद्रित है, उसके पाठान्तर संभवत: विद्वान् सम्पादक ने नहीं लिए हैं; क्योंकि उसमें प्रथम दोहा में 'गुरुदेव' पाठ है, जबकि इसमें 'गुरु देउ' पाठ ही रखा गया है, इसका पाठान्तर पादटिप्पण' में नहीं दिया गया है। इसीप्रकार इस संस्करण में प्रकाशित द्वितीय पद्य भी मुद्रित आवरण पृष्ठ पर मुद्रित छायाचित्रवाली प्रति में नहीं है, परन्तु विद्वान् सम्पादक ने उसका कोई उल्लेख नहीं किया है। वस्तुत: उन्होंने आवरणपृष्ठ के चित्र की प्रति का उल्लेख भी नहीं किया है कि यह प्रकाशित छायाचित्र किस प्रति का है।
मूलपाठों का शब्दार्थ, अर्थ एवं भावार्थ - इन तीन शीर्षकों से विशदीकरण इस संस्करण में विद्वान् सम्पादक ने किया है तथा भावार्थों में यथायोग्य अन्य ग्रंथों के प्रमाण देकर विषय को पुष्ट किया गया है। चूँकि इस ग्रंथ की कोई प्राचीन टीका अद्यावधि उपलब्ध नहीं है, अत: कुछ पाठों एवं उनके अर्थ की पुष्टि के लिए पूर्ण आधार नहीं मिल पाता है। फिर भी ग्रन्थान्तरों के प्रमाणों से विद्वान सम्पादक ने यथायोग्य रीति से इसमें समर्थन देकर अधिकांश स्थलों को स्पष्ट करने का नैष्ठिक प्रयत्न किया गया है।
'शब्दार्थ' के अन्तर्गत किसी-किसी शब्द का व्याकरणिक परिचय दिया गया है। यथा—दोहा क्र० 3 में 'जि' को पारपूरक अव्यय' कहा गया है। जबकि इसी में इसका पुनः प्रयोग होने पर ही' —ऐसा निश्चयार्थक अर्थ दिया गया है। उसी प्रकार द्वितीय दोहे में 'हुंतउं' पद का अर्थ से (पंचमी विभक्ति)' किया गया है। ऐसे प्रयोग विचारणीय हैं। ___ इस ग्रंथ पर श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, मानित विश्वविद्यालय, नई दिल्ली-16 से एक छात्रा ने शोधकार्य (पी-एच०डी०) भी किया है, जिसका शोधप्रबन्ध विश्वविद्यालय में प्रस्तुत होने के लिए टंकण-प्रक्रियान्तर्गत है। __इस उत्तम प्रकाशन के लिए भारतीय ज्ञानपीठ एवं डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री निश्चय ही साधुवाद एवं अभिनंदन के पात्र हैं।
–सम्पादक **
(2) पुस्तक का नाम - सम्राट् खारवेल (कन्नड़ भाषा में) लेखक
- जी० ब्रह्मप्पा - रत्नत्रय प्रकाशन, एफ० ब्लॉक, चित्रभानुरस्ते, कुवेम्पु नगर,
__ मैसूर-570023 (कर्नाटक) मूल्य
- 15/- रुपये, पिपर बैक, पॉकेट बुक साइज) संस्करण - प्रथम संस्करण 1965 ई०, पृष्ठ संख्या 160
हमारी संत-परम्परा के असीम विद्यानुरागी रत्नों में पूज्य आचार्य विद्यानन्द जी का नाम अग्रगण्य है। मुनिदीक्षा से पूर्व क्षुल्लक अवस्था (नाम-पार्श्वकीर्ति) से ही वे अहर्निश
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स्वाध्याय में लीन रहकर नितनूतन तथ्यों के अन्वेषण एवं उनकी प्रभावी प्रस्तुति में सतत संलग्न रहे हैं। 'कल्याणमुनि और सम्राट् सिकन्दर' जैसी कालजयी कृतियों का सृजन उसी अवस्था में आपने वर्षों तक व्यापक अध्ययन. एवं शोध के बाद किया था। आप कलकत्ता की नेशनल लाइब्रेरी में महीनों तक सम्राट् खारवेल के विषय में अध्ययन करते रहे और सन् 1964 ई० में आपने इस कृति के विद्वान् लेखक को व्यापक विचार-बिन्दु एवं शोध-निषेचित सामग्री देकर एक लघु पुस्तिका के निर्माण की प्रेरणा दी थी; जिसके फलस्वरूप इस पुस्तिका का निर्माण हुआ था। इसका सादर उल्लेख लेखक ने 'नन्न मातु' (अपनी बात या आत्मकथ्य) शीर्षक से लिखित प्रारम्भिक वक्तव्य की शुरूआत में किया
__यह कृति प्राञ्जल, सरल एवं साहित्यिक कन्नड़ भाषा में सम्राट् खारवेल के जीवन एवं यशस्वी कार्यों का विशद विवेचन करती है। लघुकाय होते हुए भी इसमें निहित सामग्री जहाँ प्रस्तुत तथ्यों की दृष्टि से महनीय है, वहीं भाषाशैली की रोचकता, प्रस्तुतीकरण की मौलिकता एवं प्रभावोत्पादकता विशेषत: श्लाघनीय है। यह पुस्तक मैसूर विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में भी निर्धारित है।
आज जब पूज्य आचार्यश्री की कृपा से दिग्विजयी जैन सम्राट् खारवेल के ऊपर व्यापक कार्य किये जा रहे हैं, उसी श्रृंखला में मैसूर से यह कृति 'प्राकृतविद्या' में समीक्षार्थ प्राप्त हुई है। इसकी प्राचीनता एवं गरिमा को देखते हुये कन्नड़वेत्ताओं को इसका अध्ययन एवं संकलन अवश्य करना चाहिये तथा सम्राट् खारवेल के विषय में शोधकर्ताओं को इसके तथ्यों का अवलोकन अवश्य करणीय है। इसका अन्य भाषाओं में अनुवाद भी प्रकाशित होना चाहिये, ताकि इसकी व्यापक उपयोगिता हो सके। –सम्पादक **
पुस्तक का नाम - प्रतिष्ठा-प्रदीप लेखक व सम्पादक - पं० नाथूलाल जैन शास्त्री प्रकाशक
वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति, गोम्मटगिरि, इन्दौर-452001 संस्करण - द्वितीय संस्करण, जुलाई 1998 ई० मूल्य - 150/- (एक सौ पचास रुपये), पक्की जिल्द, आकर्षक मुद्रण पृष्ठ-संख्या - 24+234+36=294 पृष्ठ, छायाचित्र अतिरिक्त, शास्त्राकार ___ वर्तमान में प्रतिष्ठाचार्यों एवं प्रतिष्ठा-महोत्सवों की बहुलता होने लगी है। जहाँ प्रतिमा जी की विधिपूर्वक प्रतिष्ठा होकर भव्यजीवों को वीतरागी जिनेन्द्र परमात्मा के दर्शन का सौभाग्य सुलभ होना अत्यन्त सुखद प्रसंग है, वहीं इसके कई प्रतिष्ठाचार्यों का विधिवत् रूप से प्रशिक्षित न होना एक चिंता का विषय था। इस निमित्त सर्वाधिक वयोवृद्ध (विशेषत: प्रतिष्ठा-क्षेत्र में) विद्वद्वरेण्य पं० नाथूलाल जी शास्त्री संहितासूरि के द्वारा ऐसे
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विशेष प्रशिक्षण-पाठ्यक्रमों का चलाना एवं उनके निमित्त आदर्श मार्गदर्शिका के रूप में 'प्रतिष्ठा प्रदीप' नामक इस प्रमाणिक एवं सुव्यवस्थित कृति का निर्माण किया जाना वास्तव में एक अनन्य योगदान है।
इसमें आगत कतिपय तथ्य तो समाज के प्रत्येक व्यक्ति को सीखने योग्य हैं। यथा-"सूर्य के दक्षिणायन' रहने पर पंचकल्याणक प्रतिष्ठायें कदापि नहीं करनी चाहिये। विशेषज्ञ विद्वान् से शुद्ध मुहूर्त लिए बिना मनमर्जी से पंचकल्याणक प्रतिष्ठायें नहीं करानी चाहिये । तथा भगवान् के माता-पिता नहीं बनाने चाहिये।" यदि इन बातों का कोई उल्लंघन करता है, तो वह वज्रमूर्खता का कार्य करता है तथा इससे होने वाली बाधाओं एवं धर्म की मर्यादा के उल्लंघन से वह घोर पाप का बंध करता है। ___ यह कृति मुद्रग की दृष्टि से जितनी नयनाभिराम एवं दीर्घजीवी है, विषय-सामग्री की दृष्टि से भी उतनी ही महनीय एवं सर्वांगीण है। साथ ही इसमें विषयों का व्यवस्थित क्रमबार प्रस्तुतीकरण एवं अपेक्षित निर्देशों की यथास्थान उपलब्धि विशेषत: उल्लेखनीय है। विद्वद्वर्य पं० नाथूलाल जी शास्त्री जैसे वरिष्ठतम विद्वान् द्वारा लिखे जाने से इसकी प्रामाणिकता स्वत: असन्दिग्ध हो गयी है। साथ ही पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज का 'आशीर्वचन' इस तथ्य को और अधिक पुष्ट करता है। - इसके परिशिष्ट में विविध यंत्रों के प्रामाणिक चित्रों का मुद्रण इसका उपादेयता को और अधिक वृद्धिंगत करता है। अन्य अपेक्षित रंगीन चित्रों का भी समुचित ढंग से मुद्रण हुआ है। लेखन के साथ-साथ संपादन शैली का वैशिष्ट्य इसमें भलीभाँति लक्षित है। .
प्रत्येक विद्वान्-विदुषी को तो यह अनिवार्यत: संग्रहणीय है ही, समाज के प्रत्येक जिनमंदिर, पुस्तकालय एवं संस्थाओं में भी इसकी प्रतियाँ अवश्य रहनी चाहिये; ताकि अपेक्षित जिज्ञासाओं का तत्काल प्रामाणिक समाधान मिल सके। इस महनीय कार्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक हार्दिक अभिनंदनीय हैं।
–सम्पादक **
पुस्तक का नाम - अंगकोर के पंचमेरु मंदिर लेखक व सम्पादक - डॉ० जिनेश्वर दास जैन प्रकाशक - श्री भारतवर्षीय दि० जैन (तीर्थसंरक्षिणी) महासभा, ऐशबाग,
लखनऊ (उ०प्र०) मूल्य - साठ रुपये, पृष्ठ संख्या मूल्य 56 (4 आर्ट पेपर सहित) संस्करण - प्रथम, जनवरी 1999 ई०, डिमाई साईज़, पेपर बैक
कम्बोडिया में भारतीय संस्कृति के प्राचीनरूप उपलब्ध होते हैं। प्राचीन वृहत्तर भारतवर्ष में से कई देश आज स्वतंत्र हो गये हैं, यथा—कैकेय प्रदेश (अफगानिस्तान)
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ब्रह्मदेश (बर्मा) एवं कांबोज (कम्बोडिया) आदि। पहिले ये सभी हमारे वृहत्तर राष्ट्र के अभिन्न अंग रहे हैं —ऐसा प्राचीन इतिहास के अवलोकन से स्पष्ट विदित होता है तथा भारतीय संस्कृति की प्राचीनतम मूलधाराओं में श्रमणसंस्कृति का अन्यतम योगदान रहा है। अत: इस देश की भूमि पर श्रमण-संस्कृति के प्राचीन अवशेष मिलना स्वाभाविक है। किन्तु उसको एक सुनिश्चित पहिचान (Confirm Identification) प्रदान करना समय की माँग है। इस दशा में यह पुस्तक एक प्रारंभिक सही, किन्तु प्रशंसनीय प्रयास है।
इसमें विद्वान् लेखक ने सिद्ध किया है कि अंगकोर के प्राचीन मंदिर जैन संस्कृति के 'पंचमेरु मंदिर' हैं। जो प्रतिमाओं के चित्र दिये गये हैं, उनमें स्थापत्यशैली भले ही कम्बोडिया की रही हो, परन्तु स्पष्टत: वे दिगम्बर जैन प्रतिमायें हैं - यह कोई भी कह सकता है। अन्य जो वर्णन दिया गया है, उससे भी इसके 'पंचमेरु मंदिर' होने का तथ्य पुष्ट होता है। जैनसंस्कृति की परंपरित अवधारणाओं के अधिकृतरूप से जानकर व्यक्ति द्वारा यदि इनका विश्लेषण किया जाता, तो संभवत: यह तथ्य एकदम अकाट्यरूप से प्रमाणित हो जाता। किंतु इसके लिए अपेक्षित है कि कोई विशेषज्ञ जैनविद्वान् इस विषय पर कार्य करे। फिर भी जो कार्यलेखक ने श्रमपूर्वक किया है, वह निश्चय ही प्रेरणास्पद है। ' हमारे ग्रंथों में उल्लेख है कि सौ नये मंदिर बनवाने से अधिक पुण्य का कार्य है एक प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार एवं संरक्षण-संवर्धन करना। कदाचित् हमारे समाज का नेतृत्व इस दृष्टि से इस विषय में चिंतन करे, तो अच्छा होगा। पुस्तक का मुद्रण अच्छा हुआ है। कागज भी ठीक है। यदि प्रस्तुत तथ्यों को किसी सुयोग्य सम्पादक द्वारा व्यवस्थित रूप दिया जाता, तो संभवत: इसकी प्रभावोत्पादकता और भी बढ़ जाती। फिर भी यह पठनीय, मननीय एवं संग्रहणीय कृति हैं।
–सम्पादक **
मंगलायरण 'सिद्धं सिद्धत्थाणं ठाणमणोवमसुहं उवगयाणं। कु-समय विसासणं सासणं जिणाणं भवजिणाणं ।।'
। – (आयरिय सिद्धसेण, सम्मइसुत्तं, 1/1/पृष्ठ 1) अर्थ:-(सिद्धत्थाणं ठाणं) प्रमाण प्रसिद्ध अर्थों का स्थानभूत तथा (कुसमय विसासण) कु-पृथ्वी के (समस्त) एकान्तवाद से दूषित ऐसे मिथ्यामतों का समन्वय करके विशेषरूप से शासन करनेवाले जिनेन्द्र भगवान् का जो कि (अणोवमसुहं भुवगयाणं) निखिलोपमारहित अव्याबाध सुख को भोक्ता एवं (भव जिणाणं) जिन्होंने संसार-सागर को जीत लिया, ऐसा (सासणं) अनेकान्तवादरूपी जैनशासन जो कि (सिद्धं) स्वत:सिद्ध है।
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(समाचार दर्शन
भुवनेश्वर में ‘खारवेल महोत्सव' व राष्ट्रीय गोष्ठी का आयोजन
जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के निर्वाण दिवस पर यहाँ सूचना विभाग सभागार' में आयोजित तीन दिवसीय खारवेल-महोत्सव एवं राष्ट्रीय गोष्ठी में मुख्य अतिथि उड़ीसा के राज्यपाल महामहिम सी० रंगराजन ने कहा कि “भारतीय संस्कृति पर जैनधर्म का व्यापक प्रभाव है और वह उसका अभिन्न अंग है। उड़ीसा में उसका अत्यंत गौरवशाली इतिहास रहा है। ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में सम्राट् खारवेल कलिंग का ऐसा ही एक प्रतापी जैन सम्राट् था, जिसने सारे भारत को एक सूत्र में बांधकर विशाल कल्याणकारी शासन की स्थापना की थी।"
इस कार्यक्रम का आयोजन ऋषभदेव प्रतिष्ठान, दिल्ली एवं एडवांस सेंटर फॉर इण्डोलॉजिकल स्टडीज, भुवनेश्वर के संयुक्त तत्त्वावधान में किया गया। गोष्ठी में देश भर से आए तीस से अधिक प्रख्यात विद्वानों और पुरातत्वविदों ने सम्राट् खारवेल के संबंध में अपने शोधपत्र प्रस्तुत किए। साथ ही उड़ीसा में जैनकला, शिल्प, पुरातत्व तथा सम्राट खारवेल के कार्यों को दर्शानेवाली एक प्रदर्शनी का भी आयोजन हुआ। राष्ट्रसंत आचार्यश्री विद्यानंद जी मुनिराज का इस संपूर्ण आयोजन को आशीर्वाद प्राप्त था।
राज्यपाल ने कहा कि “सम्राट् खारवेल के काल में जैन कला तथा संस्कृति का उड़ीसा में व्यापक रूप से विकास हुआ। राज्य सरकार ने उस महान् सम्राट् की स्मृति में यह वर्ष 'खारवेल वर्ष' के रूप में घोषित किया है, जिसमें पुरातत्व के महत्त्व के अनेक स्थलों को. संरक्षण प्रदान किया जायेगा। उन्होंने कहा कि हमें अपने गौरवशाली इतिहास को जानना चाहिए, किन्तु अतीत की भूलों से सबक लेना चाहिए, ताकि भविष्य में सावधान रहें। उदयगिरि पर्वत पर हाथीगुम्फा में जो जैन शिलालेख हैं, उनसे सम्राट् खारवेल की महानता का परिचय मिलता है। शासक के रूप में उन्होंने अपनी प्रजा का सदा ध्यान रखा और लोक कल्याण के कार्य किए। वह सभी धर्मों का आदर करते थे। उनके राज्य में सभी धर्म फले-फूले।" भगवान् ऋषभदेव को जैनधर्म का प्रवर्तक बताते हुए उन्होंने कहा कि "चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह के जिन सिद्धांतों का उपदेश दिया, वे आज भी प्रसंगिक हैं।"
सभा के अध्यक्ष साहू रमेशचंद्र जैन ने सम्राट् खारवेल को एक महान शासक बताते हुए कहा कि “खारवेल ने सदैव जनता की भलाई के कार्यों को महत्त्व दिया तथा देश को एक सूत्र में बांधा। उन्होंने भारत पर हमला करने वाले विदेशी आक्रमणकारियों को भी देश से बाहर खदेड़ा। उनके काल में कला और शिल्प का विकास हुआ। जैनधर्म का पालन करते हुए भी खारवेल ने सभी धर्मों को समान आदर दिया। वर्तमान में आचार्यश्री विद्यानंद जी मुनिराज ने सम्राट् खारवेल के प्राचीन गौरवशाली इतिहास की खोज की प्रेरणा दी है।"
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उड़ीसा के मुख्यमंत्री श्री जानकीवल्लभ पटनायक ने हाल में दिल्ली में सम्राट् खारवेल की स्मृति में एक भवन का शिलान्यास आचार्यश्री विद्यानन्द जी के सान्निध्य में किया था। उन्होंने उदयगिरि-खण्डगिरि क्षेत्र को पर्यटन-स्थल व तीर्थक्षेत्र के रूप में विकसित करने पर बल दिया।
राज्य के विकासमंत्री श्री मतलुब अली तथा सूचना मंत्री श्री सिंह ने सम्राट् खारवेल को कलिंग का महान् सम्राट् बताते हुए कहा कि “जैनधर्म का उसके समय में व्यापक प्रसार हुआ। एक प्रकार से उस समय यह राजधर्म था, लेकिन साथ ही अन्य सभी धर्म भी समान आदर पाते थे।" __ कलकत्ता के प्रो० मुखर्जी, सर्वेक्षण विभाग के डॉ० शाह, डॉ० अग्रवाल एवं डॉ० दास ने अपने शोधपत्रों में विस्तार से खारवेल की महान् उपलब्धियों का उल्लेख किया। प्रो० मुखर्जी ने कहा कि उड़ीसा में भगवान् पार्श्वनाथ तथा भगवान् महावीर का विचरण हुआ था। सम्राट् खारवेल कलिंग में पूजित कलिंग-जिन की मूर्ति मगध से वापस लाए थे, जो नंदराजा ले गए थे।" उन्होंने पुरा महत्त्व के स्थलों उदयगिरि-खण्डगिरि तथा इसकी गुफाओं की रक्षा व विकास पर विशेष रूप से बल दिया।
इस संगोष्ठी के एक भव्य सत्र में सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ० जी० ब्रह्मपा जी को उनकी यशस्वी कृति सम्राट् खारवेल' के लिए एक लाख रुपयों की राशि का प्रथम 'खारवेल श्री पुरस्कार' सादर समर्पित किया गया। उड़ीसा के मुख्यमंत्री माननीय जानकीवल्लभ पटनायक ने सम्मान्य विद्वान् को शाल-श्रीफल एवं प्रशस्तिपत्र अर्पित किया तथा ऋषभेदव प्रतिष्ठान के अध्यक्ष श्री स्वरूपचंद जैन ने पुरस्कार-राशि का ड्राफ्ट समर्पित किया। इस अवसर पर 'ऋषभ सौरभ' तथा 'उड़ीसा रिव्यू' स्मारिकाओं का विमोचन भी हुआ। **
सम्राट् खारवेल की स्मृति में कई महत्त्वपूर्ण कार्यों का प्रवर्तन
उड़ीसा प्रान्त के यशस्वी मुख्यमंत्री श्री जानकी वल्लभ जी पटनायक ने दिनांक 5 फरवरी '99 के नववर्ष में आयोजित प्रथम विशाल पत्रकार सम्मेलन' में राज्य सरकार की अनेकों आगामी महत्त्वपूर्ण योजनाओं योजनाओं की घोषणा की। इनमें बहुत-सी योजनायें कलिंगाधिपति सम्राट् खारवेल की पावन स्मृति में विनयांजलि-स्वरूप प्रवर्तित होने जा रही हैं। ऐसी प्रमुख योजनाओं में कतिपय निम्नानुसार हैं:1. उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर में विधानसभा-भवन के सामने सम्राट् खारवेल की
विशाल एवं भव्य कांस्य-प्रतिमा स्थापित की जायेगी। 2. राजधानी भुवनेश्वर से उदयगिरि जाने वाले मार्ग का नाम 'सम्राट् खारवेल मार्ग' रखा
जायेगा। 3. वर्ष 1999-2000 को उड़ीसा सरकार कलिंग-खारवेल वर्ष' के नाम से मनायेगी।
तथा इस अवसर पर पूरे वर्ष सम्पूर्ण उड़ीसा राज्य में सम्राट् खारवेल की स्मृति में अनेकों कार्यक्रम आयोजित किये जायेंगे।
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4. वर्ष 1999 से वर्ष 2001 तक सम्पूर्ण उड़ीसा प्रान्त में सम्राट् खारवेल की पावन-स्मृति
में बीस हजार नलकूप लगाये जायेंगे, ताकि राज्य की पेयजल समस्या का निदान हो सके।
इनके अतिरिक्त दिग्विजयी कलिंगाधिपति सम्राट् खारवेल की यशोगाथा को चिरस्थायी एवं सर्वजनविदित बनाने के लिए भी अनेकों यशस्वी कार्यों का प्रवर्तन किया जायेगा। इस बारे में उच्चस्तरीय विचार-विमर्श अभी चल रहा है।
प्राथमिक कार्य के रूप में मंगलाचरणवत् ‘सम्राट् खारवेल-विषयक राष्ट्रिय संगोष्ठी' भुवनेश्वर में दिनांक 16-17-18 जनवरी 99 को आयोजित होने जा रही हैं; जो कि उड़ीसा सरकार के सूचना मंत्रालय एवं ऋषभदेव होने जा रही है; जो कि उड़ीसा सरकार के सूचना मंत्रालय एवं ऋषभदेव प्रतिष्ठान, नई दिल्ली के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित है।
–महावीर शास्त्री **
ब्र० कमलाबाईजी (श्री महावीरजी) को साक्षरता पुरस्कार दिनांक 9 दिसम्बर 1998 को कलकत्ता के साइन्स सिटी सभागार में ब्र० कमलाबाईजी (श्री महावीरजी) को बंगाल के राज्यपाल महामहिम ए०आर० किदवई द्वारा रोटरी इन्टरनेशनल' के रोटरी इण्डिया साक्षरता अवार्ड 1998' से सम्मानित किया गया। राज्यपाल महोदय ने ब्र० कमलाबाईजी को शॉल, मेमेंटो और 2 लाख रुपयों का चैक भेंट किया।
इस अवसर पर रोटरी इन्टरनेशनल प्रेसिडेन्ट एलेक्ट श्री कारलो रविज्जा, इटली और पास्ट प्रेसिडेन्ट रोटरी इन्टरनेशनल श्री लुइस विसेन्टे गिये, अर्जन्टाइना, रोटरी अवार्डस फोर सर्विस टू हूमेनिटी (इन्डिया) ट्रस्ट के चेयरमेन राजेन्द्र के० साबू विशेषरूप से उपस्थित थे। महामहिम राज्यपाल ने सम्बोधित करते हुए कहा कि “सेलेक्सन कमेटी ने एक हीरे को खोज निकाला है और ये पुरस्कार की सही हकदार हैं।" इनके द्वारा किये कार्यों की राज्यपाल महोदय ने भूरि-भूरि प्रशंसा की। श्री कारलो रविज्जा, इटली, प्रेसिडेन्ट इलेक्ट, रोटरी इन्टरनेशनल ने कहा कि “महिलाओं को साक्षर बनाने से पूरा परिवार और जाने वाली पीढ़ियाँ भी साक्षर हो जाती हैं।"
श्री लुइस विसेन्टे गिया, अर्जेन्टाइना, पास्ट प्रेसिडेन्ट रोटरी इन्टरनेशनल ने श्रोताओं का ध्यान आकृष्ट करते हुए बताया कि इतनी विषम परिस्थितियों में जनजातियाँ और पिछड़ी जातियों की बालिकाओं को साक्षर बनाने का कार्य किया है, वह अपने आप में अभूतपूर्व है।
श्री ओ०पी० वैश्य ने ब्र० कमलाबाईजी की पूरी जीवनी पर प्रकाश डाला। इस समारोह में रोटरी इन्टरनेशनल के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर रोटेरियन्स और जैनसमाज के अनेक गणमान्य लोग उपस्थित थे।
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TERVICE TO HU
HUMANITY
AWARDS FOR
OTARY AW
ROTARY INDIA AWARD 1998
Presented to Brahmacharini Kamla Bai
CITATION
UTY (INDIA)
DIA) TRUST
Hailing from a middle class family in Rajasthan, Brahmacharini Kamla Bai became an unfortunate victim of widowhood at the tender age of 14, barely two years after her marriage. As she was totally illiterate, she found herself in wilderness, with no one to offer support or sustenance in an age when widowhood was considered a curse. Confronted with these heavy odds, Brahmacharini Ji realised well in time that the only way to survive with dignity was to cast away the artificial social barriers and equip herself with sound education. She found for herself a place in Shri Mahavir Mumuksha Mahila Ashram, an orphanage for women, at Shri Mahavirji, an economically and educationally backward town in Sawai Madhopur district. For nearly a decade and a half, Brahmacharini Ji involved herself in acquiring not only formal education but also extensive knowledge of Indian history and culture as also the ancient scriptures. Deeply concerned as she was over the dismal state of female literacy in Rajasthan, which made young girls the hapless victims of social prejudices. Brahmacharini Ji took the initiative of establishing a model girls' school, Digambar Jain Adarsh Vidyalaya, in Shri Mahavirji itself in 1953 with just six girls. By dint of consistent zeal and dedication, the Vidyalaya has by now grown into an ideal seat of learning with over 1800 girls on the rolls. Impressed by her splendid achievemnts, several philanthropists willingly came forward with liberal donations to help in the construction of school and hostel buildings and acquisition of other equiipment in response to her appeal for support. Apart from imparting formal education, the Vidyalaya lays emphasis on inculcation of discipline, character-building and knowledge of scriptures to prepare the students to face life with confidence. Dedicating her entire life to the cause she holds dear, through penance and renunciation, Brahmacharini Ji has provided opportunities to thousands of girls from tribal communities and other deprived sections of society to come out of the dark recesses of illiteracy, overcome social barriers and become economically independent. She has also successfully motivated her students and teachers to provide a new thrust to the literacy promotion programmes in remote rural areas. In recognition of her outstanding contribution to promotion of literacy, especially among girls, ROTARY INDIA AWARD 1998 is hereby conferred on Brahmacharini Kamla Bal.
Calcutta : December 9, 1998
Rajendra K. Saboo
Chairman
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हैदराबाद में जैनविद्या-सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण राष्ट्रिय संगोष्ठी सम्पन्न
"राज्यपाल डॉ० चक्रवर्ती रंगराजन ने जैनधर्म को भारत का प्राचीन धर्म बताते हुए कहा कि जैनधर्म ने न केवल भारतीय विचारधारा व दर्शनशास्त्र को प्रभावित किया है, अपितु भारत के कई प्राचीनतम धर्मों पर भी अपनी छाप छोड़ी है।"
बिरला पुरातत्व एवं सांस्कृतिक शोध संस्थान, सालारजंग संग्रहालय एवं उस्मानिया विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में आज उस्मानिया विश्वविद्यालय परिसर में जैनधर्म, कला, पुरातत्व, साहित्य एवं दर्शनशास्त्र पर आयोजित 3 दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए डॉ० रंगराजन ने उक्त उद्गार व्यक्त किये। उन्होंने कहा कि "जैनधर्म 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर के नाम से जाना जाता है, परन्तु प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे तथा 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ थे। उन्होंने कहा कि महावीर एक ऐतिहासिक पुरुष हैं, जिनका वर्णन इतिहास में मिलता है। भगवान महावीर ने कोई नवीन धर्म की स्थापना नहीं की थी, अपितु धर्म को एक आधार व ढांचा प्रदान किया था।" ___ श्री रंगराजन ने कहा कि “भगवान् महावीर को महावीर इसलिए नहीं कहा जाता कि उन्होंने कई राज्यों को जीता और अपने राज्य का विस्तार किया, अपितु उन्होंने अपने आप पर विजय प्राप्त की थी। उन्हें इसलिए 'जिन' भी कहा जाता था अर्थात् 'विजेता'।" ।
राज्यपाल श्री रंगराजन ने आगे बोलते हुए कहा कि "विश्वास ही सभी धर्मों का सहारा बनता है। धर्म का कला एवं संस्कृति पर भी कड़ा प्रभाव पड़ता है और जैनधर्म के संबंध में भी यह कहा जा सकता है।" उन्होंने कहा कि “अन्य प्रकार कला जैसे मंदिर वास्तुकला, शिल्प आदि पर जैनधर्म का प्रभाव बहुत गहरा है। आन्ध्र प्रदेश के विभिन्न स्थानों पर उनके शिलालेखों, वास्तुकला एवं साहित्य पर भी जैनधर्म की छाप है।"
कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास और सभ्यता विभाग के प्रोफेसर बी०एन० मुखर्जी ने अपने सम्बोधन भाषण में कहा कि विश्व के महान धर्म एक निश्चित समयावधि में विकसित होते हैं, जिनमें जीवन के उद्देश्य, नैतिक मूल्य, अध्यात्म एवं दर्शनशास्त्र सम्मिलित होते हैं और जैनधर्म इन सबका समन्वय है। जैनधर्म का प्रभाव केवल भक्तों पर ही नहीं, अपितु प्रशासन, कला, साहित्य, विज्ञान एवं वैज्ञानिक विचारों पर भी पड़ा है। जैनधर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर ने स्वयं आन्ध्र प्रदेश के उत्तरी क्षेत्र में अपनी शिक्षाओं का प्रचार किया है।
श्री मुखर्जी ने जानकारी देते हुए बताया कि आन्ध्र प्रदेश में जैनधर्म ने कर्नाटक की ओर से प्रवेश किया। पूर्वी चालुक्य राजा कुबेर विष्णुवर्धन की रानी अयनामहादेवी ने बीजावाड़ा (विजयवाड़ा) के नडुम्बी बस्ती नामक ग्राम को जैन मंदिर निर्माण के लिए दान दे दिया था। आन्ध्र में जैनधर्म का विस्तार ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी या उससे भी पहले हुआ था, परन्तु तीसरी व सातवीं शताब्दी में इसका पूर्ण प्रचार हुआ। राज्यपाल रंगराजन ने इस अवसर पर जैनधर्म, कला, पुरातत्व, साहित्य एवं दर्शनशास्त्र पर आधारित संस्मारिका का विमोचन किया। श्रीमती हरिप्रिया रंगराजन ने स्वागत भाषण दिया। उस्मानिया विश्वविद्यालय
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के कुलपति वी० रामकिष्टय्या ने समारोह का संचालन किया। राष्ट्रीय ग्रामीण विकास संस्था की परामर्शदात्री वी० वेदकुमारी ने धन्यवाद दिया।
इस संगोष्ठी में डॉ० सुदीप जैन ने दिग्विजयी जैन सम्राट् खारवेल के हाथीगुम्फा शिलालेख मे कतिपय अभिनव तथ्य' विषय पर शोध-आलेख प्रस्तुत किया। इसकी व्यापक सराहना हुई। सेमीनार के समापन सत्र में समागत विद्वानों एवं आयोजकों की ओर से जैन समाज के शिरोमणि व्यक्तित्व साहू अशोक जैन जी के बारे में उस्मानिया विश्वविद्यालय के कुलपति ने प्रभावी उल्लेख किया तथा विनम्र श्रद्धांजलि समर्पित की गयी। **
पत्राचार प्राकृत पाठ्यक्रम दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी द्वारा संचालित अपभ्रंश साहित्य अकादमी से अब ‘पत्राचार प्राकृत सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम' प्रारम्भ किया जा रहा है। सत्र 1 जुलाई 1999 से प्रारम्भ होगा। इसमें प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी एवं अन्य भाषाओं/विषयों के प्राध्यापक, अपभ्रंश, प्राकृत शोधार्थी एवं संस्थानों में कार्यरत विद्वान् सम्मिलित हो सकेंगे। नियमावली एवं आवेदन-पत्र दिनांक मार्च से 15 मार्च, 1999 तक अकादमी कार्यालय, दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी, सवाई रामसिंह रोड़, जयपुर-4 से प्राप्त करें। कार्यालय में आवेदन-पत्र पहुँचाने की अन्तिम तारीख 30 अप्रैल 1999 है। डॉ० कमलचन्द सोगाणी, जयपुर **
प्रो० (डॉ०) विद्यावती जैन 'डी०लिट' की उपाधि से विभूषित 'जैन महिलादर्श' की सम्पादिका प्रो० (डॉ०) विद्यावती जैन, आरा (धर्मपत्नी प्रो० राजाराम जैन) को बाबासाहेब अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर (बिहार) की ओर से डी०लिट् की उपाधि से विभूषित किया गया है। श्रीमती जैन ने 'संत कवि देवीदास और उनके अद्यावधि अप्रकाशित हिन्दी साहित्य का समीक्षात्मक अध्ययन' विषय पर सन् 1997 में 609 पृष्ठीय उच्चस्तरीय मौलिक शोध-प्रबन्ध मूल्यांकन-हेतु प्रस्तुत किया था। ___ यह उल्लेखनीय है कि श्रीमती जैन, जैनविद्या के क्षेत्र में दुर्लभ अप्रकाशित पाण्डुलिपियों की खोज, सम्पादन, तुलनात्मक तथा विस्तृत समीक्षात्मक अध्ययन कर डी०लिट' की उपाधि प्राप्त करनेवाली सम्भवत: प्रथम विदुषी महिलारत्न हैं। बुन्देली के एकमात्र उत्तरमध्यकालीन हिन्दी जैनकवि देवीदास की 66 पाण्डुलिपियों पर सर्वप्रथम उच्चस्तरीय कार्य कर इन्होंने महारत हासिल की है और आगामी शोध-जगत् के लिए एक प्रशस्त मार्ग तैयार किया है। आपकी इस सफलता के लिए हार्दिक अभिनन्दन एवं भूरिश: बधाइयाँ ।
-डॉ० रमेशचन्द जैन, बिजनौर (उ०प्र०) ** कु० आरती जैन पी-एच०डी० उपाधि से अलंकृत जैन साहित्य के तत्त्वरसिक आत्मज्ञ विद्वान् पंडित सदासुखदास जी पर शोध-प्रबन्धहेतु डॉ० हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर ने कुमारी आरती जैन, छिन्दवाड़ा (म०प्र०) को पी-एच०डी० की उपाधि से सम्मानित किया है। उनके शोध विषय जैन साहित्य के परिप्रेक्ष्य
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में पंडित सदासुखदास जी कासलीवाल के व्यक्तित्व एवं कर्तव्य का अनुशीलन' उन्होंने डॉ० (श्रीमति) आशालता पाठक के निर्देशन में पूर्ण किया। अपने शोधकार्य के प्रसंग में क० आरती जैन ने कुन्दकुन्द भारती शोध संस्थान, नई दिल्ली से भी महत्त्वपूर्ण दिशानिर्देश एवं साहित्यिक सहयोग प्राप्त किया था।
-अशोक जैन, छिन्दवाड़ा ** अहिंसा इण्टरनेशनल के वर्ष 1998 के पुरस्कार अहिंसा इण्टरनेशनल नई दिल्ली के वर्ष 1998 के लिए विभिन्न पुरस्कारों का विवरण निम्नानुसार है:
1. अहिंसा इण्टरनेशनल डिप्टीमल आदीश्वरलाल जैन साहित्य पुरस्कार (31,000/-रू०) डॉ० देवेन्द्र कुमार शास्त्री, नीमच वालों को प्रदान किया जाएगा। 2. अहिंसा इण्टर० भगवानदास शोभालाल जैन विशेष शाकाहार पुरस्कार (15,000/- रू०) डॉ० नेमीचन्द जैन, इन्दौर को प्रदान किया जाएगा। 3. अहिंसा इण्टरनेशनल भगवानदास शोभालाल जैन शाकाहार पुरस्कार (11,000/- रू०) सुरेश चन्द जैन, जबलपुर को प्रदान किया जाएगा। 4. अहिंसा इण्टरनेशनल रघुवीर सिंह जैन जीवरक्षा पुरस्कार (11,000/- रू०) मौहम्मद शफीक खान, सागर को प्रदान किया जाएगा। 5. अहिंसा इण्टरनेशनल गोल्डन जुबली फाउंडेशन पत्रकारिता पुरस्कार (5,100/- रू०) डॉ० नीलम जैन, सहारनपुर को प्रदान किया जाएगा। ये पुरस्कार शीघ्र ही दिल्ली में भव्य समारोहपूर्वक प्रदान किये जाएंगे।
___-सतीश कुमार जैन ** धर्मानुरागिणी श्रीमती ललिता दोशी दिवंगत
समाजसेवा एवं राष्ट्र की उन्नति में समर्पित यशस्वी दोशी-परिवार की वयोवृद्ध-प्रमुखा धर्मानुरागिणी श्रीमती ललिता दोशी जी का दि० 23 फरवरी '99 को 83 वर्ष की अवस्था में धर्मध्यानपूर्वक देहावसान हो गया। धर्मप्राण श्रेष्ठिवर्य स्व० श्री लालचन्द हीराचन्द जी दोशी की सहधर्मिणी श्रीमती ललितादोशी
जी सारे जीवन धार्मिक कार्यों में समर्पित रहीं, उन्होंने कुछ ही दिन पूर्व पूज्य श्री नेमिसागर जी मुनिराज को भक्तिपूर्वक आहारदान दिया तथा अन्य अनेकविध धर्मध्यान के कार्यों में लगी रहीं। सम्पूर्ण दोशी परिवार को पारस्परिक सौहार्द एवं एकता के सूत्र में पिरोकर रखने में आपका अनन्य योगदान रहा है। साथ ही सम्पूर्ण परिवार को धार्मिक संस्कार प्रदान करने में आपका ही प्रमुख श्रेय था। कुन्दकुन्द भारती एवं प्राकृतविद्या' से आपका विशेष वात्सल्य था।
ऐसी भद्रपरिणामी, धर्मप्राण, उदारमना नारीरत्न को प्राकृतविद्या-परिवार की ओर से बोधिलाभ एवं सुगतिगमन की मंगलकामना के साथ विनम्र विनयांजलि अर्पित है।
-संपादक **
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इस अंक के लेखक/लेखिकायें
1. स्व० पं० माणिकचन्द्र कौन्देय—आप दिगम्बर जैन समाज के सुप्रतिष्ठित प्रकाण्ड विद्वान थे। जैन न्याय एवं दर्शन के क्षेत्र में आपकी विशेष प्रतिष्ठा थी। आपकी शिष्य-परम्परा में कई सुयोग्य विद्वान् निकले हैं। ___इस अंक में प्रकाशित 'गृहस्थों को भी धर्मोपदेश का अधिकार' शीर्षक आलेख आपकी पुस्तक का अंश है।
2. आचार्य नगराज जी आप श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन समुदाय के क्रान्तिकारी आचार्य हैं। आपकी सूक्ष्म एवं निष्पक्षप्रज्ञा से प्ररित लेखनी से अनेकों महत्त्वपूर्ण रचनायें सृजित हुईं हैं। इस अंक प्रकाशित 'धरसेन की एक कृति : जोणिपाहुड' नामक आलेख आपकी पुस्तक से उद्धृत है।
3. पं० नाथूलाल जी शास्त्री—आप संपूर्ण भारतवर्ष में जैनविद्या के, विशेषत: प्रतिष्ठाविधान एवं संस्कार के क्षेत्र में सर्वाधिक प्रतिष्ठित वयोवृद्ध विद्वान् हैं। आपने देश भर के अनेकों महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों का दिग्दर्शन किया है तथा सामाजिक शिक्षण के कार्य में आपका अन्यतम योगदान रहा है। आपने विविध विषयों पर अनेकों प्रामाणिक महत्त्वपूर्ण पुस्तकें भी लिखीं हैं।
इस अंक में प्रकाशित 'तीर्थंकी की दिव्यध्वनि की भाषा' शीर्षक आलेख आपके द्वारा विरचित है।
स्थायी पता-42, शीश महल, सर हुकुमचंद मार्ग, इंदौर-452002 (म०प्र०)
4. डॉ० देवेन्द्र कुमार शास्त्री— आप जैनदर्शन के साथ-साथ प्राकृत-अपभ्रंश एवं हिंदी भाषाओं के विश्वविख्यात विद्वान् एवं सिद्धहस्त लेखक हैं। पचासों पुस्तकें एवं दो सौ से अधिक शोध निबंध प्रकाशित हो चुके हैं। संप्रति आप भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली में उपनिदेशक (शोध) के पद पर कार्यरत हैं।
इस अंक में प्रकाशित 'जलगालन की विधि तथा महत्ता' नामक लेख आपकी लेखनी से प्रसूत है।
स्थायी पता—243, शिक्षक कालोनी, नीमच-458441 (म०प्र०)
5. डॉ० राम सागर मिश्र—आप संस्कृत व्याकरण के सुप्रसिद्ध विद्वान् हैं। सम्प्रति आप जयपुर (राज०) स्थित केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ में रीडर' पद पर कार्यरते हैं। इस अंक में प्रकाशित 'कातन्त्र व्याकरण एवं उसकी दो वृत्तियाँ' शीर्षक आलेख आपके द्वारा लिखित है। ____ 6. डॉ० महेन्द्र सागर प्रचंडिया-आप जैनविद्या के क्षेत्र में सुपरिचित हस्ताक्षर हैं, तथा नियमित रूप से लेखनकार्य करते रहते हैं। इस अंक में प्रकाशित 'आचार्य कुन्दकुन्द का आत्मवाद' शीर्षक आलेख के रचयिता आप हैं।
स्थायी पता—मंगल कलश, 394, सर्वोदय नगर, आगरा रोड़, अलीगढ़-202001 (उ०प्र०)
7.डॉ० कस्तूरचंद 'सुमन'–सम्प्रति आप जैनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी (राज०) में शोधअधिकारी के पद पर कार्यरत हैं तथा प्राचीन पाण्डुलिपियों के संपादन, अनुवाद, समसामायिक लेखन के साथ-साथ संस्कृत-प्राकृत, अपभ्रंश आदि अनेकों भाषाओं के विद्वान् हैं। इस अंक में
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प्रकाशित 'जैनदर्शन के प्रतीक पुरावशेष' शीर्षक आलेख आपकी लेखनी से प्रसूत है ।
पत्राचार-पता—जैनविद्या संस्थान, श्री दि० जैन अतिशयक्षेत्र श्रीमहावीरजी-322220 (राज0) 8. डॉ० रमेशचन्द्र जैन —आप जैन कालेज बिजनौर ( उ०प्र०) में संस्कृत एवं जैनदर्शन के विभागाध्यक्ष हैं। इस अंक में प्रकाशित 'जैनधर्म और अंतिम तीर्थंकर महावीर' शीषेक आलेख आपके द्वारा रचित है ।
स्थायी पता — जैन मंदिर के पास, बिजनौर ( उ०प्र०)
9. डॉ० सुदीप जैन —–श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली में जैनदर्शन विभाग में वरिष्ठ प्राध्यापक एवं प्राकृतभाषा पाठ्यक्रम के संयोजक । अनेकों पुस्तकों के लेखक, सम्पादक। प्रस्तुत पत्रिका के 'मानद सम्पादक' ।
इस अंक में प्रकाशित 'सम्पादकीय', एवं 'समयसार के पाठ', नाम स्तंभ लेखों के अतिरिक्त ‘एक:शरणं शुद्धोपयोगः’, ‘आचार्यश्री के संकलन से ....' एवं 'यापनीय: एक विचारणीय बिन्दु', आलेख आपके द्वारा लिखित हैं ।
स्थायी पता – बी - 32, छत्तरपुर एक्सटैंशन, नंदा फार्म के पीछे, नई दिल्ली- 110030
10. श्रीमती अमिता जैन - प्राकृत, अपभ्रंश एवं जैनविद्या की स्वाध्यायी विदुषी । श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ में संचालित प्राकृतभाषा पाठ्यक्रम में अध्यापन कार्य के साथ-साथ कुन्दकुन्द भारती जैन शोध संस्थान में 'दिगम्बर जैन साहित्य में लेश्या ' विषय पर शोध कार्यरत । इस अंक में प्रकाशित आलेख 'भारतीय शिक्षण व्यवस्था एवं जैन विद्वान्' शीर्षक आलेख आपके द्वारा लिखित है ।
पत्राचार - पता — बी-704, प्रथम तल, सफदरजंग इन्क्लेव एक्सटैंशन, नई दिल्ली- 110029 11. श्रीमती रंजना जैन – हिन्दी साहित्य की विदुषी लेखिका हैं। इस अंक में प्रकाशित आलेख 'सम्राट् खारवेल की अध्यात्मदृष्टि' शीर्षक आलेख आपके द्वारा विरचित है।
स्थायी पता – बी -32, छत्तरपुर एक्सटैंशन, नंदा फार्म के पीछे, नई दिल्ली-110030 12. श्रीमती ममता जैन - 3 - आप श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ में 'आचार्य'
'कुकु के साहित्य में नय दृष्टि' विषय पर शोधकार्यरत हैं । इस अंक में प्रकाशित 'प्रेरक व्यक्तित्व' स्तंभ के अंतर्गत प्रकाशित 'डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल' नामक आलेख आपके द्वारा रचित है ।
स्थायी पता – बी - 81, अशोका एन्कलेव पीरागढ़ी चौक, नई दिल्ली
प्राकृतविद्या के स्वत्वाधिकारी एवं प्रकाशक श्री सुरेशचन्द्र जैन, मंत्री, श्री कुन्दकुन्द भारती, 18-बी, स्पेशल इन्स्टीट्यूशनल एरिया, नई दिल्ली- 110067 द्वारा प्रकाशित; एवं मुद्रक श्री महेन्द्र कुमार जैन द्वारा, पृथा ऑफसेट्स प्रा० लि०, नई दिल्ली- 110028 पर मुद्रित ।
भारत सरकार पंजीयन संख्या 48869/89
☐☐ 108
प्राकृतविद्या+अक्तूबर-दिसम्बर 198
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भव्य झलकियाँ प्रथाम खारवेल-पुरस्कार समर्पण-समारोह की
पुरस्कार-समर्पण के पूर्व समारोह-मंच पर आसीन उड़ीसा के महामहिम राज्यपाल श्री सी० रंगराजन जी, सभाध्यक्ष साहू रमेश चन्द जी जैन, ऋषभदेव प्रतिष्ठान के अध्यक्ष श्री स्वरूप चन्द जी जैन, आगरा एवं अन्य गणमान्य महानुभाव
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MR-JAINA HERITAGE OF ORISSA
JANUARY 99
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41
पुरस्कार-समर्पणविधि में सर्वप्रथम पुरस्कार प्राप्तकर्ता धर्मानुरागी विद्वान् जी० ब्रह्मप्पा को तिलक करते हुए माननीय मुख्यमंत्री श्री जानकी वल्लभ पटनायक जी। साथ में खड़े हैं ऋषभदेव प्रतिष्ठान के अध्यक्ष श्री स्वरूपचन्द जी जैन, आगरावाले
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विद्वद्वर्य जी० ब्रह्मप्पा को रजतमयी प्रशस्तिपत्र भेंट करते हुये माननीय मुख्यमंत्री जी
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HINARTAINA HERITAGE
TAMRA HERITAGE OF ORISSA
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सम्मानराशि (एक लाख रुपये) का चेक प्राप्त करते हुये विद्वद्वर्य ब्रह्मप्पा जी। साथ में है माननीय मुख्यमंत्री जी, उनकी सहधर्मिणी श्रीमती जयंती पटनायक जी, एवं श्री स्वरूपचंद जी जैन आदि
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BB
DBSR
पुरस्कार प्राप्त करने के बाद भावविभोर होकर अपने उद्गार व्यक्त करते हुये विद्वद्वर्य ब्रह्मप्पा जी
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GUESTS IV.I.PS
इस समारोह में देश भर से समागत विशिष्ट विद्वान्, समाजसेवी श्रीमक्त एवं विद्यानुरागी भाई-बहिनें
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कार्यक्रम के बाद “सम्राट् खारवेल' नामक कन्नड़ भाषामयी यशस्वी (पुरस्कृत) कृति के रचयिता विद्वद्वर्य ब्रह्मप्पा जी ने कुमारीपर्वत पर स्थित हाथीगुम्फा के उस ऐतिहासिक शिलालेख का अवलोकन किया। इस अवसर पर हाथीगुम्फा के अन्दर शिलालेख का अवलोकन करते हुए श्री ब्रह्मप्पा जी, साथ में हैं कुन्दकुन्द भारती के निदेशक प्रो० (डॉ०) राजाराम जी जैन, विदुषी डॉ० (श्रीमती) विद्यावती जैन, डॉ० सत्यप्रकाश जैन, दिल्ली एवं प्राकृतविद्या के प्रबन्ध सम्पादक पं० महावीर शास्त्री
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श्री लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ (मानित विश्वद्यालय ) नई दिल्ली में - 110016 संचालित
प्राकृतभाषा पाठ्यक्रम की कुछ झलकियाँ
प्राद भासी पाइएको
कक्षा में पढ़ाते हुये पाठ्यक्रम के संयोजक डॉ० सुदीप जैन
(125):
कक्षा में पढ़ते हुये विद्यार्थीगण (छात्र - छात्रायें )
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आन्तरिक परीक्षण में परीक्षा देते हुये प्राकृतभाषा पाठ्यक्रम के छात्र-छात्रायें
परीक्षा देने के बाद प्रसन्नचित्त छात्र-छात्रायें
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ROY
प्राकृतभाषा पाठ्यक्रम के छात्र-छात्राओं का समूह-चित्र
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दिनांक 28 फरवरी 1999 को संपठन भगवान महावीर केन्द्र
के उद्घाटन समारोह की भव्य झलकियाँ
कार्यक्रम में पदार्पण करते हुए पूज्य आचार्यश्री विद्यानंद जी मुनिराज
पूज्य आचार्यश्री के दर्शनार्थ आते हुए माननीय प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी, साहू रमेशचंद्र जी एवं श्री लक्ष्मीमल सिंघवी आदि गणमान्यजन
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उद्घाटन-स्थल पर शिलाफलक के अनावरण के पूर्व माननीय प्रधानमंत्री जी
को तिलक करते हुए पं० जयकुमार उपाध्ये
समारोह में समागत अपार धर्मानुरागी जनसमूह के मध्य दृष्टिगोचर हो रहे हैं
विद्वद्वर्य डॉ० मण्डन मिश्र जी एवं प्रो० वाचस्पति उपाध्याय जी
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भाव सनातन और सार्वभौमिक है- भावों को केवल विभिन्न भाषाओं में ही अभिव्यक्त किया जाता है और हमारे भाषाई वैविध्य में जो एक उल्लेखनीय तथ्य है वह है- - अन्य भाषाओं से लाये गये शब्द और एक सहज तत्परता से इनका हमारी भाषाओं में घुल-मिल जाना, समाहित हो जाना । यदि किसी भी भाषा को कायम रहना है, फैलना है और फलना-फूलना है, तो व्यापक स्तर पर पारस्परिक व्यवहार, आदान-प्रदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है - अभी बहुत कुछ हासिल किया जाना है।
✩ भाषा की एक सांझी आत्मा है, इसे जीवन्त बनाये रखिये । ✰
नवभारत टाइम्स प्रकाशन- समूह की
शुभकामनाओं सहित
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