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________________ अभिमत ० 'प्राकृतविद्या' के सभी अंक मुझे बराबर मिलते रहे हैं। उसके सामग्री-चयन एवं उसके शुद्धरूप में प्रकाशन को देखकर मैं सदा प्रभावित हुई हूँ। पर इस बार का वर्ष 10, अंक 2, जुलाई-सितम्बर 1998 ने मुझे प्रेरित किया आपको पत्र लिखने के लिए। सर्वप्रथम पत्रिका के आकर्षक बाह्य आवरण ने आकृष्ट किया। नीला आसमानी रंग, उस पर गन्ने (ताजा पत्तों सहित) के टुकड़ों से बने अक्षर-विन्यास ने 'प्राकृतविद्या' की प्रकृति को अभिव्यक्ति दी है। पर उसके नीचे वृत्त में अंकित तथा वृत्त की परिधि से बाहर जाते हुए वृश्चिक' ने कुछ उत्सुकता ऐसी जगाई कि क्या कहूँ? और उसके नीचे लिखे शब्द विद्वत्ता का प्रतीक' । जैसे आप को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रकाशित गजेटियर' ने चिंतनशील बनाया, वैसे ही मुझे भी। पर मुझे चिंतन का कष्ट करना नहीं पड़ा, क्योंकि 'आवरण पृष्ठ के बारे में आपने जो जानकारी दी, उससे जिज्ञासा शांत हुई। सूचनाएं तथा नई बातें जानने को मिली। रूढ़ियाँ मनुष्य को संकीर्ण बना देती हैं। 'बिच्छू' के संबंध में आम आदमी नकारात्मक रुख रखता है। वृश्चिक राशि का नाम है और स्वाभाविक है कि उसमें जिनमें व्यक्ति अच्छे-बुरे दोनों गुणों से युक्त होंगे। विद्वान् की तुलना वृश्चिक से कर उसकी जो व्याख्याएँ आपने की हैं, वे बहुत ही युक्तियुक्त हैं। बधाई स्वीकारें। सम्पादकीय विद्या विवादाय' आत्मचिंतन के लिए प्रेरित करता है। आचार्यश्री विद्यानन्द मुनि जी का 'युवकों को संदेश' युवकों के लिए उनका आशीर्वचन ही है। इसके अतिरिक्त 'वास्तुविधान में मंगलवृक्ष' (श्रीमती अमिता जैन) तथा शिक्षा की पर्याय-सरस्वती' (श्रीमती रंजना जैन) रुचिकर लगे। प्राकृत में मेरी गति नहीं है, पर फिर भी उससे संबद्ध लेखों को रुचिपूर्वक पढ़ती हूँ। -डॉ० (श्रीमती) प्रवेश सक्सैना, दिल्ली ** o आपके संपादन में 'प्राकृतविद्या' दिनोंदिन प्रगति पथ पर अग्रसर है, यह लिखते प्रसन्नता होती है। प्राकृतभाषा के साथ-साथ अन्य उपयोगी एवं ज्ञानवर्द्धक सामग्री चयन करने का भी आपने जो विशेष प्रयास किया है, जिससे कि पत्रिका सर्वजनोपयोगी बनती जा रही है – सराहनीय है। इस अंक में प्राय: सभी लेख पठनीय हैं—आचार्यश्री का 'युवकों को संदेश' प्रेरणास्पद है तथा सम्राट् खारवेल सत्संग मंदिर के शिलालेख संबंधी झलकियाँ अनुपस्थितजनों को दर्शनीय हैं। -नाथूराम डोंगरीय, इन्दौर ** 0 आपके द्वारा संपादित 'प्राकृतविद्या' के अंक प्राप्त हो जाते हैं, तदर्थ आभारी हूँ। 'प्राकृतविद्या' में संकलित सामग्री खोजपूर्ण एवं महत्त्वपूर्ण रहती है। प्राकृत की नई-नई रचनायें एवं लेखकों के परिचय प्राप्त कर प्रसन्नता होती है। ___-डॉ० नेमिचन्द्र जैन, सागर, म०प्र० ** ० 'प्राकृतविद्या' का अंक मिला पढ़कर मन को बहुत प्रसन्नता हुई, आवरण-पृष्ठ पर बिच्छू' का विद्वत्ता का प्रतीक अंकन एवम् उस बारे में आलेख बौद्धिक लगे। विद्या-विवादाय प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98 1093
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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