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________________ दिगम्बर जैन श्रावकों एवं विद्वानों को त्यागियों/श्रमणों की समीक्षा का पूर्ण अधिकार है -आचार्य विद्यानन्द मुनि सामान्यत: यह समझा जाता है कि परिग्रह-त्याग करनेवाले व्यक्ति गृहस्थों के आचरण पर कुछ भी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं; किन्तु गृहस्थ उस त्यागीवर्ग (मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक आदि) के बारे में कुछ भी प्रतिक्रिया नहीं दे सकता है, भले ही वे कैसा ही व्यवहार करते रहें? वह तो मात्र उनकी भक्ति-विनय ही कर सकता है। किन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। आगम के आलोक में यदि हम विचार करें, तो हम पाते हैं कि त्यागीवर्ग को गृहस्थों पर टिप्पणी एवं प्रतिक्रियास्वरूप वचन कहने का कोई अधिकार नहीं है; जबकि गृहस्थों एवं विद्वानों को यदि त्यागीवर्ग शास्त्र की मर्यादा के विरुद्ध या लोकमर्यादा के विरुद्ध आचरण करता है, तो उसकी समीक्षा करने का पूर्ण अधिकार है। क्योंकि उसका सीधा प्रभाव समाज पर पड़ता है। इतर समाज, प्रशासन एवं युवापीढ़ी की प्रतिक्रियाओं को समाज को सहना पड़ता है; इसीलिए समाज के जिम्मेदार गृहस्थजन एवं विद्वान् त्यागीवर्ग को ऐसे किसी भी आचरण के लिए मर्यादापूर्वक स्पष्ट निवेदन भी कर सकता है और आवश्यकतानुसार अपनी प्रतिक्रिया भी दे सकता है। यहाँ यह प्रश्न संभव है कि यदि गृहस्थों एवं विद्वानों को यह अधिकार है, तो त्यागीवर्ग को क्यों नहीं है? – इसका उत्तर यही है कि त्यागीवर्ग शांतभाव से गृहस्थों को सन्मार्ग का उपदेश दे सकते हैं, उन्हें आत्महितकारी वचनामृतों से तृप्त कर सकते हैं; किन्तु उनके किसी भी कषाययुक्त-वचन या कार्य पर अपनी प्रतिक्रिया नहीं दे सकते हैं। क्योंकि आर्ष-वचन है- “यस्मिन् वाच: प्रविशन्ति कूपे प्राप्ता: शिला इव। न वक्तार पुनर्यान्ति स कैवल्याश्रमे वसेत् ।।" अर्थ: जो अपने प्रति कहे गये कठोर दुर्वचनों को अथवा प्रशंसायुक्त वचनों को सुनकर खेद या हर्ष व्यक्त नहीं करते हैं। जैसेकि गहरे कुयें में फेंका गया पत्थर लौटकर वापस नहीं आता है; इसीप्रकार जो वक्ता की अच्छी या बुरी (प्रशंसा या निंदा) की वाणी पर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं देते हैं; उन्हें ही मोक्षपथ के पथिक या कैवल्य-आश्रम में रहने के अधिकारी 'मुनि' कहा गया है। वस्तुत: जो दिगम्बर जैन-संघों की शास्त्रोक्त व्यवस्था रही है, आज हमारा त्यागीवर्ग उससे अनभिज्ञ होता जा रहा है। आगम-ग्रन्थों के अनुसार पहिले मुनिसंघ में अनेक कार्यों के एवं अनेक विषयों के विशेषज्ञ अलग-अलग व्यक्ति होते थे; जो अपनी विशेषता के कारण संघ को निरापदरूप से धर्मप्रभावना एवं आत्मसाधना के मार्ग पर अग्रसरित रखते प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98 0011
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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