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________________ थे। इनमें से कुछ का परिचय यहाँ विचारार्थ प्रस्तुत है 1. प्रवर्तकाचार्य:-प्रत्येक संघ में प्रमुख आचार्य के अतिरिक्त एक 'प्रवर्तक-आचार्य' भी होते थे, जो दैवसिक क्रियाओं एवं व्यवस्थाओं के विशेषज्ञ होते थे। इनके बारे में कहा गया है—“संघ प्रवर्तयतीति प्रवर्तक:” – (मूलाचारवृत्ति, 4/155)। ये प्रवर्तकाचार्य दिन में संघ का संचालन करते थे। __2. प्रज्ञाश्रमण:-सूर्यास्त के उपरान्त रात्रिकालीन क्रियाओं एवं व्यवस्थाओं के विशेषज्ञ श्रमण को 'प्रज्ञाश्रमण' कहा जाता था। पंडितप्रवर आशाधर-विरचित 'अनगारधर्मामृत' (4/268) के अनुसार ये सूर्यास्त होने से सूर्योदय होने तक संघ की समस्त क्रियाओं के दिशानिर्देशक होते थे। इनके निर्देश के विरुद्ध कोई भी रात्रिकालीन क्रिया 'संघ' में नहीं होती थी। 3. सांवत्सरिक क्षपणक:-ये ज्योतिष, सामुद्रिक, खगोल, भूगोल, पर्यावरण आदि विद्याओं के विशेषज्ञ होते थे तथा विभिन्न लक्षणों एवं नक्षत्रगणना, मुहूर्त-विचार आदि के द्वारा यह बतलाते थे कि किस दिशा में, कब 'संघ' का निवास, विहार आदि होना चाहिये। कहाँ दुर्भिक्ष, महामारी, प्राकृतिक आपदा (बाढ़, सूखा, भूस्खलन, उल्कापात, विद्युत्पात, अग्निकांड, हिमपात, अतिवृष्टि आदि) या राजकीय प्रकोप आदि की संभावना है? – उसे ये अपनी प्रति के द्वारा प्रामाणिकरूप से जानकर उस देश में संघ को जाने से रोकते एवं अनुकूल देश-काल में विहार करने का निर्देश देते थे। इससे संघ भी निरापद रहता था तथा धर्म की प्रभावना भी भरपूर होती थी। ये इस बारे में सीधे आचार्य (संघपति) को सलाह देते थे। 4. उपाध्याय:- इन्हें 'अध्यापक', 'शिक्षक' आदि संज्ञायें भी दी गयी हैं। पंच परमेष्ठियों में इन्हें चौथे क्रम में स्मरण किया जाता है। मुनिसंघ में ये नवदीक्षितों एवं दीक्षार्थियों को विधिवत् शिक्षण/प्रशिक्षण देते हैं। इनके प्रशिक्षण के परिणामस्वरूप ही संघ में आचार-व्यवस्था शास्त्रसम्मत बनी रहती है। तथा स्वाध्याय' रूपी परम तप की साधना इन्हीं के योगदान के फलस्वरूप होती है। ज्ञानाराधना एवं तप:साधना की उत्कृष्ण परम्परा एवं धर्मध्यान के संस्कार की नियमितता संघ में प्रमुखत: इन्हीं की देन होती है। आज मुनिसंघों में इनकी प्राय: अनुपस्थिति होने से दीक्षा' तो हो जाती है, किंतु 'शिक्षा' के अभाव में न तो तत्त्वज्ञान होता है और न ही आचार-व्यवस्था की बारीकियाँ पता होती हैं। यहाँ तक कि 'प्रतिक्रमण' नित्य करते हुये भी उसका ठीक अर्थ एवं मूल-शुद्ध प्रक्रिया का भी बोध प्राय: श्रमणों को नहीं है। इसीलिए वे कभी जलूसबाजी, कभी नारेबाजी, कभी प्रतियोगितायें एवं बच्चों के कार्यक्रम कराने जैसे कार्यों में समय बिताते हैं। तत्त्वाभ्यास के अभाव में सूक्ष्म चिंतन भी हो नहीं पाता है तथा क्रिया की शुद्ध विधि एवं उसका वास्तविक अर्थ भी पता न होने से मात्र रूढ़ि से ही क्रियायें हो रहीं हैं। आध्यात्मिक चेतना तो 9012 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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