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________________ महावीर से पूर्व श्रमण-परम्परा में प्रचलित थी, इसलिए उन्हें 'पूर्व' कहा गया है; किन्तु यह पूर्व-साहित्य सुरक्षित नहीं रह सका। ___दिगम्बर-परम्परा के अनुसार ग्यारह अंग का ज्ञान नष्ट हो गया। पूर्व में बहुत कम अवशिष्ट रहा, जो आचार्य धरसेन और आचार्य गुणधर द्वारा प्रचार-प्रसार में आया। वह भी विक्रम-प्रथम शताब्दी के कुछ समय पूर्व से। वीर-निर्वाण के पश्चात् दशम शती में श्वेताम्बरों द्वारा जो पाटलिपुत्री, माधुरी और वलभी वाचनाओं द्वारा अंगों का संकलन किया गया, उनकी भाषा को 'अर्द्धमागधी' नाम दिया गया और इनसे सदियों पूर्व छक्खंडागम, कसायपाहुड से प्रारंभ कर 'समयसार', 'धवला' आदि की जो दिगम्बर आचार्यों द्वारा रचना हुई, उनकी भाषा को 'शौरसेनी' नाम दिया गया। आचार्य पूज्यपाद ने 'सर्वार्थसिद्धि' (1, 20) में लिखा है कि आरातीय आचार्यों ने काल दोष से संक्षिप्त आय, मति और बलशाली शिष्यों के अनुग्रहार्थ 'दशवैकालिक' आदि ग्रंथों की रचना की। ये अर्थ की दृष्टि से सूत्र ही है। यहाँ शब्द-रचना को छोड़कर अर्थ की दृष्टि बताई गई है। ग्रंथ-रचना का नियम यह है कि लेखक जब जिस देश में रहता है, वहाँ की प्रचलित भाषा का वह उपयोग करता है; उसके उच्चारण भी उसी प्रकार के होते हैं। श्वेताम्बर-अंगग्रंथों के संबंध में डॉ० हीरालाल जी ने उक्त अपने ग्रंथ के पृष्ठ 71 पर लिखा है कि "श्वेताम्बर आगम-ग्रंथों में प्राक्तन 'अर्द्धमागधी' का स्वरूप नहीं मिलता। भाषा-शास्त्रियों के मतानुसार वर्गों के परिवर्तन की प्रक्रिया, भाषा-सरलीकरण, युगानुसार प्रवृत्तियों के प्रभाव से तथा कालानुसार मौखिक-परम्परा के कारण भिन्नता आती रहती है। इस भिन्नता से भाषा की भिन्नता होने पर उस भाषा के ग्रंथों की शब्द भिन्नता का अनुमान किया जा सकता है। इसी कारण प्राकृत के भी मागधी, अर्द्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्रीय, पैशाची आदि भेद हो गये। और पीछे प्राकृत व्युपत्ति में आचार्य हेमचन्द्र के मतानुसार जिसकी प्रकृति संस्कृत से है उससे आगत प्राकृत है। यहाँ आचार्य का अभिप्राय यह है कि इसके व्याकरण-हेतु संस्कृतरूपों को आदर्श मानकर प्राकृत-शब्दों का अनुशासन किया गया है। संस्कृत की अनुकूलता-हेतु प्रकृति को लेकर प्राकृत के आदेशों की सिद्धि की गई है।" - 'कम्परेटिव ग्रामर', भूमिका पृ० 17 आदि पर हानले ने लिखा है कि श्वेताम्बर आगमों की 'अर्द्धमागधी का रूपगठन 'मागधी' और 'शौरसेनी' से हुआ है। प्राकृतभाषा के दो वर्ग हैं। एक वर्ग में 'शौरसेनी' बोली है और दूसरे में 'मागधी प्राकृत' बोली है। इनके मध्य में एक रेखा उत्तर में खींचने पर खालसी से वैराट, इलाहाबाद और दक्षिण में रामगढ़ से जौगढ़ तक है। इसप्रकार शनैः शनैः ही दोनों प्राकृतें 'मागधी' और 'शौरसेनी' मिलकर तीसरी 'अर्द्धमागधी' बन गई। यही बात ग्रियर्सन ने अपनी पुस्तक प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98 0027
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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