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________________ आचार्य कुन्दकुन्द का आत्मवाद -विद्यावारिधि डॉ० महेन्द्र सागर प्रचंडिया आत्म और अध्यात्म-जगत् के प्रभावंत और प्रज्ञावंत नक्षत्र थे 'आचार्य कुन्दकुन्द'। आपका जन्म कर्नाटक के कोंडकुंदि' नामक ग्राम में हुआ था। आपके पिताश्री का नाम 'करमंडु' और मातुश्री का नाम था 'श्रीमती' । बोधपाहुड' नामक ग्रंथ के अनुसार आपके गुरुश्री का नाम था 'भद्रबाहु'। ____ 'कोंडकुंड' आचार्य कुंदकुंद का पूर्व, किन्तु अपूर्व रूप था; जो कन्नड़ भाषा में चिरंजीवी रहा। आचार्य कुंदकुंद 'आत्म' और 'अध्यात्म' के विशिष्ट व्याख्याकार थे। निश्चयनय के द्वारा आत्म और अध्यात्म के साँचे ढालकर आपने आगम के रूप को अपूर्व स्वरूप प्रदान किया है। संसार की जितनी धार्मिक मान्यतायें हैं, उनका मूल आधार 'आत्मा' और 'परमात्मा' पर टिका हुआ है। कुछ धार्मिक मान्यताएँ 'परमात्मवादी' हैं और कुछ हैं 'आत्मवादी'। परमात्मवादी धार्मिक-परम्परा को 'ईश्वरवादी' भी कहा गया है; जो संसार-चक्र का संचालन करती है। आत्मा को वही 'शुभ' और 'अशुभ' की ओर उन्मुख करता है। यहाँ जीवात्मा की अपनी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। __संसार की कुछेक धार्मिक मान्यतायें ईश्वर के सिंहासन पर आत्मा को प्रतिष्ठित करती हैं। इस परम्परा में जैनधर्म सर्वोपरि है। इनकी दृष्टि में आत्मा और परमात्मा • कोई अपरिचित सत्ता नहीं है, अपितु वह परम-विकसित विशुद्ध तथा निर्मल आत्मा का ही परमात्मस्वरूप है। सूक्ति-शैली में इसे इसप्रकार भी कहा जा सकता है-“कर्मयुक्त जीव 'आत्मा' है और कर्ममुक्त जीव 'परमात्मा' ।" जैनधर्म और दर्शन का मुख्य मेरुदण्ड है—'आत्मवाद' । आत्मा ही कर्म का कर्ता है और स्वकृत कर्म-फल-सुख-दु:ख का भोक्ता है। वही इनसे मुक्ति प्राप्त करनेवाला है। इसप्रकार आत्मा का निर्विकार निरंजन, निर्मल सिद्धस्वरूप ही परमात्मा है। महामनीषी आचार्य कुंदकुंद ने आगम के वातायन से आत्मवाद को जिस खूबी से उपन्यस्त किया है, यहाँ संक्षेप में उसी को शब्दायित करना हमारा मूल अभिप्रेत है। ___ आचार्य कुंदकुंद जब आगम का आलोड़न कर रहे थे, उस समय भारतीय दर्शन-जगत् में एक वैचारिक क्रान्ति चल रही थी, उसके परिणाम स्वरूप अनेक दार्शनिक मान्यताओं को रूप प्रदान किया गया था। इन दार्शनिक मान्यताओं के नियामकों में पारस्परिक द्वन्द्व था और द्वेष भी। साथ ही तत्कालीन भारतीय दार्शनिक मान्यताएँ भी प्रभावित हो रही थीं। अद्वैत की आँधी ने आचार्य कुंदकुंद को आगमिक सत्य को सुरक्षित रखने के लिये प्रेरित किया था। उस समय 'उपनिषद्' के ब्रह्म-अद्वैत तथा बौद्धदर्शन के 'शून्यवाद' और 0054 प्राकृतविद्यार- अक्तूबर-दिसम्बर'98
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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