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________________ थोड़ी राहत मिली; तब चिन्ता हुई कि न्यास-ग्रन्थ का प्रकाशन किया जाए। तथा बाद में 3-4 वर्षों के प्रयास के बाद 1990 में उसका प्रकाशन मैंने स्वयं किया; क्योंकि इस व्याकरण-ग्रन्थ के प्रफ पढ़ने में बड़ी सावधानी रखनी थी। जिसे कोई अन्य प्रकाशक नहीं कर सकता था तथा रुचि भी नहीं लेता। 3-4 वर्षों के अथक प्रयास के बाद ऐसी परिस्थिति में आया कि कार्य कुछ सरल हो गया तथा उसी के फलस्वरूप यह अमूल्य व्याकरण-ग्रन्थ विद्वज्जनों के समक्ष प्रस्तुत कर पाया हूँ। राष्ट्रिय संग्रहालय से प्राप्त अंश एवं पूना प्रति में प्राप्त बाद के अंश मिलाकर कुल एक प्रति ही सम्पादन-हेतु उपलब्ध है। उसमें भी अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण होने के कारण कुछ अंश अनुपलब्ध है तथा बीच-बीच में से कुछ पृष्ठ नष्ट हो गये हैं। उसकी जगह अध्ययन में तारतम्य बनाये रहने के लिए मैंने कातन्त्र-सूत्रों पर दुर्ग वृत्ति' का उल्लेख कर दिया है। दूसरी प्रति के उपलब्ध न होने से मैंने अपने व्याकरणसम्बन्धी अल्पज्ञान के ऊहा के आधार पर पाठ-निर्धारण किया है। मुझे इस बात का सन्तोष है कि मैं बहुत कुछ अंश में सफल रहा हूँ। फिर भी विद्वानों का मूल्यांकन समादरणीय है। . इस ग्रन्थ के सम्पादन में केवल एक पाण्डुलिपि के उपलब्ध होने एवं अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण तथा बीच-बीच से कुछ पत्र अनुपलब्ध होने के कारण शुद्ध-शुद्ध पाठों के निर्धारण में अत्यन्त कठिनाई का अनुभव हुआ है। केवल अनुभव, तर्क, कल्पना, औचित्य एवं व्याकरण-प्रयोगों के सादृश्य चिन्तर के आधार पर पाठ-निर्धारण का प्रयास किया गया है। 'शारदालिपि' में कुछ संयुक्त वर्णों तथा अन्य वर्णों तथा अन्य वर्णों का निर्णय करना कठिन है। उसमें से प, य, म, स, ष, थ, र्थ, क्ष, च्च, श्च, द्य एवं आ की मात्रा आदि प्रमुख हैं। जहाँ भ्रष्ट पाठ है, उन्हें बिन्दु रेखांकित कर छोड़ दिया गया है। बीच से क्रमश: 2020 एवं 25-25 आदि की संख्या में सूत्रों पर 'शिष्यहितावृत्ति' का पाठ अनुपलब्ध है। ऐसे स्थल पर केवल पाठकों की सुविधा-हेतु 'कातन्त्रव्याकरण' के सूत्रों के साथ-साथ मात्र 'दुर्गवृत्ति' का ही उल्लेख किया गया है। जिससे कि पाठकवृन्द के अध्ययन में बाधा न पहुँचे। समयाभाव के कारण धातुपाठ का पृथक् उल्लेख नहीं कर पा रहा हूँ। आशा है कि भविष्य में 'कातन्त्रव्याकरण' के अन्य पाण्डुलिपि ग्रन्थों का सम्पादन करते समय इन सबका समुचित उल्लेख कर सकूँगा। शत्रु और स्वजन 'शरीरेऽरि: प्रहरति हृदये स्व-जनस्तथा। कस्य स्वजनशब्दो मे लज्जामुत्पादयिष्यति।।' -(महाकवि भास, प्रतिमा नाटक, 1/11) अर्थ:-बाहरी शत्रु केवल देह पर आघात करता है, किंतु स्वजन मर्मस्थान पर ही आघात करते हैं। न जाने इस विपत्ति में कौन स्वजन निमित्त हुए हैं? जिनकी याद मेरे लिये लज्जाकर होगी। ** प्राकृतविद्या+ अक्तूबर-दिसम्बर'98 बर'98 0053
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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