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________________ 'शारदालिपि' में है, जिसका पढ़ना अत्यन्त कठिन है। किन्तु व्याकरण का छात्र होने के कारण इस समस्या से हार मानना मेरे लिए बड़ा कठिन था। मैंने डॉ० सत्यव्रतशास्त्री से पुन: अनुरोध किया तथा इस बार उन्होंने उसमें रुचि लेते हुए एक ऐसा अनूदित अंश दिया जो था तो 8-10 पृष्ठ का ही, किन्तु उसके आधार पर उस स्थल को खोजकर वर्णों के संयोजन तथा संयुक्त वर्णों की प्रक्रिया को समझते-समझते शारदालिपि पढ़ने का पर्याप्त अभ्यास हो गया। इसमें मुझे सरलता इसलिए हुई कि मैं व्याकरण की शब्दावली से परिचित था, किन्तु यह शब्दावली पाणिनीय व्याकरण-परम्परा की न होकर कातन्त्रपरम्परा की होने के कारण मुझे शब्दों के वास्तविक स्वरूप निर्धारण में पर्याप्त कठिनाई हुई। इसप्रकार उत्साहित होकर प्रथम बार में निरन्तर 6-7 घंटे की बैठक के बाद प्रारम्भ कर आधा पृष्ठ पढ़ा। उस समय ऐसा अनुभव हुआ कि आँखे भविष्य में काम ही नहीं कर पायेगीं। मेरे इस अथक प्रयास के कारण यह कार्य लगभग दो वर्षों में पूरा हुआ। इसप्रकार कुल 7 वर्ष लगाकर मैं अपना शोधकार्य पूरा किया। इसके दौरान अनुभव किया कि शोधकार्य को बढ़ावा देने में विदेशी अधिक सहायक हैं, बनिस्पत स्वदेशी लोगों के। इसीलिए ही भारत के स्नातक विदेश से ही शोध करने में रुचि रखते हैं। ___ 'कातन्त्रव्याकरण' के ऊपर इस दुरूह कार्य के सम्पादन के बाद कातन्त्र-सूत्रों पर इस 'शिष्यहितान्यास' का प्रकाशन कर व्याकरण के ऐतिहासिक क्रम को चुनौती देना था। 'शिष्यहितावृत्ति' के लेखक दुर्ग हैं तथा शिष्यहितान्यास' उग्रभूति भट्ट द्वारा विरचित है। तथ्य यह है कि दसवीं शती के उत्तरार्ध में भारत के पश्चिमोत्तर प्रान्त वैहिन्द' क्षेत्र जो कि सम्प्रति अफगानिस्तान का अंग है, में शाह आनन्दपाल राजा राज्य करते थे। उनके गुरु आचार्य उग्रभूति भट्ट ने कातन्त्र-सूत्रों पर वृत्ति लिखी तथा स्वयं ही उस पर 'न्यास-ग्रन्थ' लिखा। तथा डॉ० कीथ के अनुसार “कश्मीर प्रान्त में कातन्त्रव्याकरण 13वीं शती के स्थान पर 10वीं शती के उत्तरार्ध में ही प्रचलित हुआ।" __न्यासग्रन्थ की पाण्डुलिपि को खोजते-खोजते राष्ट्रिय संग्रहालय, नई दिल्ली गया। वहाँ बड़ी कठिनता के बाद यह अवसर मिला कि मुझे वहाँ के निदेशक की अनुमति से एक पाण्डुलिपि-ग्रन्थ की छायाप्रति दी गयी, जो शारदा लिपि में थी। देखने से पता चला कि यह न्यास नहीं, अपितु 'शिष्यहितावृत्ति' थी। फिर भी प्रतिदिन जाकर एक घण्टा समय देकर लगभग एक माह में सभी 70 या 72 पृष्ठ को देवनागरी में अनूदित कर लिया। इस आशय से कि यह अपूर्ण है, फिर भी शायद कभी काम आ जाए। इसी न्यास के शोधकार्य के प्रसंग में पूना स्थित 'प्राच्यविद्या शोध संस्थान' गया तथा वहाँ पर मिलान करके देखा कि पाण्डुलिपि के प्रारम्भ के 20 पृष्ठ फट गये हैं एवं मध्य के भी लगभग 20 पृष्ठ अनुपलब्ध हैं तथा अपूर्ण हैं; फिर भी वहाँ निदेशक से प्रार्थना कर उसकी छायाप्रति माइक्रोफिल्म के रूप में ले लिया। कालान्तर में जब 1980 में शोधकार्य पूरा हो गया, 0052 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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