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________________ वैयाकरणों से सम्पर्क किया गया, वे सभी इसी ‘काशिका न्यास' के अतिरिक्त अन्य न्यास-ग्रन्थों से अनभिज्ञ रहे। ऐसी स्थिति में 'कैटालोगस्कैटालोग्रुम' का आश्रय लेने पर 'वाडलियनलाइब्रेरी, आक्सफोर्ड-लन्दन' के ग्रन्थागार में 'शिष्यहितान्यास' नामक ग्रन्थ होने का पता चला तथा 'भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट' में स्थित इसकी प्रति को जीर्ण-शीर्ण होने के कारण पूना से इसे उपलब्ध कर पाना असम्भव था, केवल वहाँ जाकर देखा जा सकता था। किन्तु वाडलियन पुस्तकालय से पत्र-व्यवहार करने पर उसके माइक्रोफिल्म रूप में प्रेषित किए जाने की सूचना मिली। तदनुसार विभागीय संस्तुति के आधार पर दिल्ली विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को उसे मंगवाने का भार दे दिया गया। उस समय सन् 74 में केवल दो पौण्ड का मूल्य विश्वविद्यालय के पुस्तकालय द्वारा भेजा जाना था। उसे भेजने में एक वर्ष से अधिक समय बिता दिया, उसके बाद कहीं दूसरा वर्ष बीतते-बीतते यह पाण्डुलिपि ग्रन्थ माइक्रोफिल्म के रूप में प्राप्त हुआ तथा उसे फिल्म-रीडर की सहायता से देखने पर पता चला कि वह सम्भवत: शारदालिपि में है। इसके पढ़ने में संस्कृत विभाग के अभिलेख विशेषज्ञ आचार्यों की सहायता विफल रही। दिल्ली में ग्रीनपार्क स्थित कश्मीरी पण्डित के घर गया। उन्होंने इतना रूखा उत्तर दिया कि उनसे कार्यसम्पादन की आशा ही नहीं रही। अत: विवश होकर पुस्तकालयाध्यक्ष से निवेदन किया कि आप उसे मुझे दे दें, जिससे कि पुस्तकालय से बाहर ले आकर किसी विद्वान की सहायता ले सकूँ। उस समय के पुस्तकालयाध्यक्ष ने भी अनसुनी कर बाहर ले जाने की अनुमति नहीं दी और उसे महत्त्वपूर्ण बतलाकर मुझे देने से मना कर दिया। जब मैंने कहा कि वाडलियन लाइब्रेरी मुझे व्यक्तिगतरूप से भेजन का पत्र दिया था, केवल विदेशी मुद्रा के लिए ही आप से सहायता लेनी पड़ी, तो परिणाम यह हआ कि उन्होंने सहायता करने को स्पष्टरूप से मना कर दिया। मैं अध्यापक होने के कारण परिस्थितियों के जाल में फँस जाने के कारण इस विवाद को आगे नहीं ले जाकर उनके सामने विवश हो गया। इस असफलता के कारण मैं संस्कृत विभाग में पुन: आवेदन किया कि विषय बदल दिया जाए, किन्तु कोई परिणाम नहीं निकला। पुन: मैंने वाडलियन लाइब्रेरी को सीधे पत्र-व्यवहार प्रारम्भ किया, जिसके फलस्वरूप उन्होंने मुझे व्यक्तिगत बाण्ड पर उस पाण्डुलिपि का जीराक्स प्रति मुझे 39 या 40 डालर के मूल्य पर प्रेषित करने का वादा किया और उन्हीं के सुझाव के कारण शिक्षा मन्त्रालय से युनेस्को 6-7 माह बाद बुककूपन को प्राप्त कर वाडलियन लाइब्रेरी आक्सफोर्ड लन्दन को प्रेषित किया तथा वहाँ से 2-3 माह बाद उक्त पाण्डुलिपि की जीरॉक्स प्रति प्राप्त हुई। इसी दौरान निराश होकर संस्कृत विभाग के तत्कालीन आचार्य एवं अध्यक्ष डॉ० जोशी को आवेदन किया कि विषय बदल दीजिए।' परन्तु उन्होंने भी विषय बदलने के बजाय उसी पर कार्य करने की प्रेरणा दी। इसप्रकार इस जीरॉक्स के मिलने पर यह स्पष्ट हो गया कि पाण्डुलिपिग्रन्थ प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98 0051
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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