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________________ कातन्त्र व्याकरण एवं उसकी दो वृत्तियाँ - डॉ० रामसागर मिश्र कातन्त्रव्याकरण अपने आप में महत्त्वपूर्ण होते हुए भी कुशल पारखियों के अभाव में उपेक्षित रहा है। फिर भी कुछ वैयाकरण विद्वान् ऐसे हैं, जिन्हें इसके बारे में चिन्ता लगी रहती है। ऐसे विद्वानों में ही दिल्ली विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के प्राक्तन आचार्य एवं अध्यक्ष डॉ० सत्यव्रत शास्त्री हैं । इन्हीं के दिल्ली विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के अध्यक्षपद पर कार्यरत रहते हुए मैंने पी-एच०डी० उपाधि प्राप्ति हेतु अपना शोधकार्य सम्पन्न किया। मुझे अपना शोधकार्य आंशिकरूप से समय लगाकर करना था, क्योंकि मैं जीविकोपार्जन क्रम में दिल्ली के शिक्षा विभाग के अन्तर्गत अध्यापन कार्यरत था । ऐसी स्थिति में कोई सामान्य विषय मुझे प्राप्त होना चाहिए था । किन्तु मुझे व्याकरणाचार्य होने के कारण अध्यक्ष जी की कुशल पारखी बुद्धि ने बख्शा नहीं, और कातन्त्रव्याकरण पर कार्य करने के लिए प्रेरणा दी तथा 'शिष्यहितान्यास' ग्रन्थ के सम्पादन का विषय स्वीकृत किया। यह एक ऐसा विषय था, जिसके बारे में कहीं भी किसी को सामान्यरूप से कुछ भी ज्ञात नहीं था। वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के शोधस्नातक डॉ० जानकी प्रसाद द्विवेदी ने 'कातन्त्रविमर्श' के नाम से एक सर्वेक्षणात्मक ग्रन्थ शोधप्रबन्ध के रूप में प्रस्तुत किया था, जिसके आधार पर 'कान्तत्रव्याकरण' की तीन मुख्य शाखाओं का पता चला था। पहली - वंगशाखा, दूसरी- कश्मीरशाखा, तीसरी - मध्यदेशीयशाखा एवं दक्षिण भारतीय शाखा। इनमें से वंग शाखा के प्रमुख विद्वान् वैयाकरण नवीं शती के आचार्य दुर्ग के द्वारा कातन्त्रसूत्रों पर लिखा गया 'दुर्गवृत्ति' नामक ग्रन्थ है, जिसका प्रकाशन वंगीय लिपि में 'कालाप-व्याकरण' नाम से कई संस्करणों में हुआ है तथा 'एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल' ने 'नागरी लिपि' में किया है, जिसके सम्पादक प्रो. जुलियस इग्लिन हैं। कश्मीरशाखा में मेरे इस विषय पर शोधकार्य करने के पूर्व कोई भी ग्रन्थ प्रकाश में नहीं आया था, किन्तु भिन्न-भिन्न ग्रन्थागारों में अनेकानेक पाण्डुलिपियों के उपलब्ध होने की सूचना है। दक्षिणभारतीय एवं मध्यभारतीय शाखा का कोई प्रमुख ग्रन्थ नहीं है, किन्तु आचार्य भावसेनत्रैविद्य द्वारा सम्पादित तथा जैनाचार्य श्रीमच्छर्ववर्म - विरचित कातन्त्रसूत्रों पर 'कातन्त्ररूपमाला' नाम से प्रकाशित ग्रन्थ उपलब्ध है । जिस विषय पर शोधकार्य करने हेतु मुझे अनुमति प्राप्त हुई, उसका शीर्षक ‘शिष्यहितान्यासस्य सम्पादनमध्ययनञ्च' है। 'शिष्यहितान्यास' एक पाण्डुलिपि-ग्रन्थ है । अभी तक ‘न्यास’ नाम से पाणिनीयव्याकरण - सूत्रों पर 'काशिकावृत्ति' पर उल्लिखित न्यास ही एक मात्र 'न्यास - ग्रन्थ' के नाम से जाना जाता रहा है। इसकारण से जिन-जिन प्राकृतविद्या+अक्तूबर-दिसम्बर 98 00 50
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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