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अर्थात् अर्हन्त परमेष्ठी घातिया कर्मों की (ज्ञानावरण-5, दर्शनावरण-9, मोहनीय-28, अन्तराय-5) 47 और अघातिया कर्मों की सोलह (नरकगति, तिर्यञ्चगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रि-इन्द्रिय, चउ-इन्द्रिय, उद्योत, आतप, स्थावर, साधारण, सूक्ष्म —ये नामकर्म की तेरह और नरक, तिर्यंच तथा देवायु से आयुकर्म की तीन) -इसप्रकार कुल त्रेसठ कर्म-प्रकृतियों को को नष्ट करते हैं।
प्रस्तुत फलक में अंकित तिरेसठ-संख्यक प्रतिमाएँ संभवत: इसी तथ्य की प्रतीक है। अर्हन्त ने घाति-अघाति कर्मों की उक्त तिरेसठ कर्म-प्रकृतियों का नाश किया है। पंच-परमेष्ठियों में तिरेसठ कर्मप्रकृतियों का नाश कर वे ही प्रथम परमेष्ठी' पद प्राप्त कर सके हैं। कोई भी तपस्वी इन तिरेसठ कर्मप्रकृतियों का नाश कर 'अर्हन्तपद' प्राप्त कर सकता है। जीवोद्धारकला-प्रतीक 'सुपार्श्वनाथ-फलक'
दिल्लीवासी धर्मशाला में तीसरा प्रतीकात्मक फलक है तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ प्रतिमा का। इसका निर्माण बलुए भूरे देशी पाषाण से उल्टे अर्द्धचन्द्राकार में हुआ है। इसकी ऊँचाई 17 इंच है। ऊपरी भाग में ही तीन खण्डों में छत्र की स्थिति दर्शाई गयी है। इसी भाग में गंधकुटियाँ हैं। मध्यवर्ती गंधकुटी में छह इंच अवगाहना में एक पद्मासनस्थ प्रतिमा निर्मित की गयी है। इस प्रतिमा का करतल-भाग खण्डित है। इस मध्यवर्ती गंधकुटी' की दायीं-बायीं ओर निर्मित गंधकुटियों में एक-एक छोटी खड्गासनस्थ प्रतिमा भी अंकित की गयी है। इसप्रकार इस भाग में तीन प्रतिमाएं हैं। ___ फलक की मध्यवर्ती रचना को छह खंडों में विभाजित किया गया है। मूलनायक प्रतिमा 'पद्मासन-मुद्रा' में ऊपरी प्रथमखण्ड में विराजमान है। इसका मुँह छिल गया है। इसकी ऊँचाई लगभग आठ इंच है। सिर पर पाँच फणोंवली रही प्रतीत होती हैं। इस फणावली से प्रतिमा तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ की कही जा सकती है। प्रतिमा के पीछे वर्तुलाकार 'भामण्डल' दर्शाया गया है। इस भामण्डल से दो लतायें उदित होती हुई भी निर्मित हैं। प्रतिमा 'श्रीवत्स-चिह्न' से मण्डित है। हथेलियाँ और पैर छिले हुए हैं। मूलनायक प्रतिमा की दायीं बायीं दोनों ओर तीन-तीन प्रतिमायें गंधकुटियों में पद्मासन-मुद्रा' में अंकित हैं। इस रचना की दोनों ओर दो-दो भाग हैं। ऊपर भाग में दोनों ओर मध्य में एक पद्मासनस्थ और उसकी दोनों ओर एक-एक कायोत्सर्ग-ध्यानस्थ प्रतिमा भी विराजमान रही है; एक ओर की खड्गासनस्थ प्रतिमा अब नहीं है। इसीप्रकार निचले भाग में दोनों ओर मध्य में दो-दो पद्मासन प्रतिमायें तथा उनकी दोनों ओर एक-एक खड्गासन-प्रतिमा विराजमान है। इसप्रकार इस मध्यवर्ती खंड तक कुल 9+6+8=23 प्रतिमाएँ हैं।
निचले भाग में चार खण्ड हैं। प्रत्येक खण्ड में ग्यारह-ग्यारह पद्मासन प्रतिमायें होने से इस भाग में कुल चवालीस प्रतिमायें हैं।
अंतिम ग्यारह प्रतिमाओं की दोनों ओर एक-एक 'गंधकुटी' निर्मित है। इनमें मध्य में
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प्राकृतविद्या + अक्तूबर-दिसम्बर'98