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________________ परिचित कराना तथा कर्मों से मुक्ति की ओर प्रेरित करना रहा है। यह अवशेष संग्रहणीय है। इसका निर्माण रेतीले, देशी, भूरे पाषण से हुआ है। 2. तिरेसठ कर्म-प्रकृतिनाशक अर्हन्त आदिनाथ ___इस प्रतिमा का निर्माण बलुए भूरे पाषण से हुआ है। ‘पद्मासन-मुद्रा' में इस प्रतिमा की ऊंचाई 58 इंच और चौड़ाई 32 इंच है। सर्वोपरि भाग में वाद्य लिए दुन्दुभिवादक और उसके नीचे क्रमश: आकार में बड़े होते हुए तीन छत्र अंकित किये गये हैं। पृष्ठभाग में वर्तुलाकार, कलापूर्ण भामण्डल दर्शाया गया है। प्रतिमा को केशराशि का अंकन कुषाणकाल के समान हुआ है। दोनों स्कंधों पर 3-3 केशावलियाँ लटक रही हैं। ये आदिनाथ के उग्र और दीर्घकालीन तपश्चरण की प्रतीक हैं। प्रतिमा के नेत्र, नासिका, मुख क्षरित हो गये हैं। गले में 'त्रिवली' दर्शाई गयी हैं तथा नाभि की गहराई आदिनाथ के गाम्भीर्य का प्रतीक है। करतल खण्डित है। दायें पैर के घुटने का अंश भी भंजित है। आसन के मध्य 'धर्मचक्र' और 'चक्र' की दोनों ओर चिह्न-स्वरूप वृषभ अंकित रहा है। अलंकरण-स्वरूप सामने की ओर मुख किये दो सिंह अंकित किये गये हैं। ___इस प्रतिमा के सर्वोपरि भाग में दस प्रतिमायें पद्मासन बनीं होंगी, जिनमें से अब दसवीं प्रतिमा नहीं है। उसका फलक टूटकर नष्ट हो गया है। दूसरे खण्ड में पद्मासनस्थ आठ प्रतिमाएं हैं और तीसरे खण्ड में चार। चौथे एवं पाँचवे खण्ड में दोनों और दो-दो प्रतिमायें 'पद्मासन-मुद्रा' में अंकित की गयी हैं। इनके नीचे दोनों ओर दो-दो प्रतिमायें खड्गासन-मुद्रा' में भी अंकित हैं। इन खड्गासन-प्रतिमाओं के नीचे दोनों ओर एक-एक पद्मासनस्थ प्रतिमा भी विराजमान है। इसके नीचे दोनों ओर एक-एक चँवरवाही देव सेवारत खड़ा है। बायीं ओर एक के नीचे एक पद्मासनस्थ तेरह प्रतिमायें हैं। दसवीं प्रतिमा की दाँयी ओर एक प्रतिमा कायोत्सर्ग-मुद्रा' में अंकित की गयी है। इसीप्रकार मूलनायक प्रतिमा की दायीं ओर चँवरवाही इन्द्र के ऊपरी भाग में एक पद्मासनस्थ प्रतिमा और उसके ऊपर कायोत्सर्ग-मुद्रा' में दो प्रतिमाएँ अंकित की गयी हैं। दाँयी ओर फलक के आदि में ऊपरी भाग के नीचे 13 पदमासनस्थ प्रतिमायें भी दर्शायी गई हैं। इसी ओर दसवीं प्रतिमा के पास एक प्रतिमा कायोत्सर्ग-मुद्रा' में भी अंकित है। इसप्रकार सम्पूर्ण फलक में कुल पाँच प्रतिमायें कायोत्सर्ग-मुद्रा' में और अट्ठावन ‘पद्मासन-मुद्रा' में प्रदर्शित हैं। दायीं ओर 'गोमुख यक्ष' है, किंतु इसका मुँह गाय के समान नहीं होकर, मानवाकृति लिए है। इसके गले में एक नली-हार है। आसन के मध्य में अंकित चिह्न-स्वरूप वृषभ के पैर मात्र शेष बचे हैं। इस फलक में अंकित प्रतिमाओं की तिरेसठ संख्या अर्हन्त-परमेष्ठी से सम्बन्धित हैं। देव-शास्त्र-गुरु पूजा' में प्रतिदिन पढ़ने में आता है कर्मन की त्रेसठ प्रकृति नाशि, जीते अष्टादश-दोषराशि । जो परम सुगुण हैं अनंत धीर, कहवत के छयालिस गुण गंभीर ।। प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98 9071
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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