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________________ अवश्यंभावी दिखा, तो वे पूर्णत: निर्ममत्व को अंगीकार कर प्राय: आत्मस्थ हो गये। चतुर्विध दान के संकल्प की पूर्ति उन्होंने की, गुरुजनों की भक्तिपूर्वक उनका मंगल आशीष प्राप्त किया एवं आत्महित का चिंतन करते हुये वे “प्राणप्रयाण-बेलायां न हि लोके प्रतिक्रिया" के आदर्श को चरितार्थ करते हुये सद्गति को प्राप्त हुये।। उनके हृदय में वीतरागी देव-शास्त्र-गुरु के प्रति जो अगाध भक्ति थी एवं जैसी उत्कृष्ट अध्यात्मभावना थी, उसका साक्षी मैं भी स्वयं रहा हूँ। दिल्ली में अनेकों प्रसंगों में अनेकों बार उन्होंने मुझे आत्मीयतापूर्वक सबहुमान धर्मचर्चा के लिए बुलाया एवं ज्ञानगरिमा से ओतप्रोत सूक्ष्म चर्चा उन्होंने की। ऐसे ही प्रसंग में उन्होंने बड़ी आत्मीयतापूर्वक मुझे बताया कि “उनकी सहधर्मिणी धर्मानुरागिणी इन्दु जैन की आचार्य कुन्दकुन्द-विरचित 'समयसार' ग्रंथ में अच्छी रुचि है तथा उन्हीं की प्रेरणा से मैं प्रतिदिन 'समयसार' का स्वाध्याय करने लगा हूँ। इससे मुझे जैन-अध्यात्म की गहराई का कुछ बोध हो सका है।" यही नहीं, शरीर के अंत समय को निकट जानकर उन्होंने धर्मानुरागी पं० नीरज जैन सतना वालों को अपने पास मात्र इसीलिए रखा कि उन्हें अंत समय में लौकिक चर्चा सुनाई न पड़े, बल्कि धर्म और अध्यात्म के स्वर ही उनके कानों में गुंजायमान रहें। “अब हम अमर भये न मरेंगे। तन-कारण मिथ्यात्व दियो तज।। क्यों कर देह धरेंगे...?" धर्मानुरागी श्री हरिचरण वर्मा जब दशलक्षणपर्व में यह भजन मधुर कंठ से गाते थे, तब साहू अशोक कुमार जी आनंद से झूम जाते थे। इससे उनकी आध्यात्मिक दृष्टि की स्पष्ट झलक मिलती थी। ___ 'प्राकृतविद्या' पत्रिका को भी उनका अपार अनुराग एवं प्रोत्साहन प्राप्त रहा है। उन्हीं की प्रेरणा एवं सहयोग से यह आज अपना यह आकार ले सकी है। वे सदैव कहा करते थे कि “यह तो साक्षात् 'शास्त्र' है, इसे मैं कार में या आफिस में चलते-फिरते नहीं, अपितु विधिवत् स्वाध्यायकक्ष में बैठकर पढ़ता एवं मनन करता हूँ।" । वे संसार से अत्यन्त अनासक्त हो चले थे। उनका जीवन सादगी और विनम्रता का पर्यायवाची रहा है। अपने हित की भावना उनमें अत्यन्त उत्कृष्टता को प्राप्त थी। कभी जब ड्राईवर नहीं भी होता था, तो वे सुबह-सुबह स्वयं कार चलाते हुये 'कुन्दकुन्द भारती' आते और घंटों पूज्य आचार्यश्री के पास बैठकर उनसे अपनी तत्त्वपिपासा को शांत करते। सामाजिक एवं धार्मिक मुद्दों पर तो वे अनिवार्यत: पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज से परामर्श लेकर ही तदनुसार कार्य करते थे। शाश्वत तीर्थधाम सम्मेदशिखर जी के प्रति उनकी निष्ठा एवं समर्पण की वृत्ति तो उगे हुये सूर्य की भाँति सर्वविदित है। उनके सम्पूर्ण जीवन में एवं विशेषत: अंतिम समय में उनके ज्येष्ठ पुत्र धर्मानुरागी श्री समीर जैन एवं सुपुत्री धर्मानुरागिणी नन्दिता जी ने जो समर्पित सेवा की है, वैसी 008 प्राकृतविद्या+ अक्तूबर-दिसम्बर'98
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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