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________________ होने की समाधि-साधना प्राप्त करने की ओर सुनिश्चितरूप से अग्रसर हो जाता है। भारतीय-परम्परा में माना गया है कि 'जब तक आयुकर्म है, तभी तक शरीर का संयोग है, तथा इसके क्षीण होते ही शरीर का वियोग अर्थात् मरण अवश्यंभावी है।' इसीलिए युगप्रधान आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने लिखा है कि “आउक्खयेण मरणं....” – ( समयसार 8 / 12, पृ० 248 ) अर्थात् आयुकर्म के क्षय होने से 'मरण' होता है। इसे ही अन्यत्र 'वयकुण्ठ' भी कहा गया है। इसका अर्थ है कि- 'वय' अर्थात् आयुकर्म कुंठित (क्षीण) हो गया। इसी तथ्य को पंडितप्रवर आशाधरसूरि ने लिखा है— “पात्रे तैलं यथा हि प्रदीपस्य स्थितिकारणम् । तथा देहे देहिनो यन्मुक्तं तेनायुषा यजे । ।” अर्थात् जैसे दीपक में तेल रहने पर ही 'दीपक' की स्थिति रहती है अर्थात् वह जलता रहता है, उसीप्रकार आयुकर्म के रहते ही शरीरसंयोग बना रहता है । इसीलिए जो आयुकर्म से रहित हैं, ऐसे सिद्ध भगवन्तों की निम्नानुसार स्तुति की जाती है - “ॐ ह्रीं आयु:कर्मरहिताय श्रीसिद्धाधिपतये नमः । । ” 'जीवन' और 'मरण' के सन्दर्भ में जैनदर्शन में अत्यन्त वैज्ञानिक एवं व्यावहारिक चिंतन प्रस्तुत किया है। उसके अनुसार जब तक शरीर में समागत व्याधि आदि का उपचार संभव हो, तब तक उसका उपचार आदि करके निदान करने की चेष्टा करो; तथा जब कोई सात्त्विक साधन संभव न हो, तब देह से सर्वविध ममत्व त्याग करके आत्मा एवं परमात्मा के चिंतन - ध्यान में चित्त को एकाग्र कर लेना चाहिये । यही सल्लेखना की विधि' है— “उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निष्प्रतीकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः । । ” अर्थ:-घोर एवं अनिवार्य उपसर्ग, दुर्भिक्ष, वृद्धावस्था एवं रोग की स्थिति आ जाये एवं इनका कोई प्रतीकार (निदान) संभव न हो, तो धर्मसाधन के लिए सल्लेखनापूर्वक शरीर छोड़ देने की ज्ञानियों ने प्रेरणा दी है । इसी बात की पुष्टि आचार्य उमास्वामी ने भी दी है— “मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता” (तत्त्वार्थसूत्र, 7/22) भारतीय परम्परा की इसी "योगोनान्तेन तनुत्यजाम्” की आदर्शविधि को स्वनामधन्य धर्मप्राण, तीर्थभक्त, जिनधर्मप्रभावक श्रीमान् साहू अशोक कुमार जी जैन ने अपने जीवन में चरितार्थ करके बताया। वे जब तक जिये, एक आदर्श श्रावक की भाँति धर्मप्रभावना करते हुये समाज एवं राष्ट्रहित में समर्पित होकर रहे तथा अन्त में जब शरीर का वियोग प्राकृतविद्या + अक्तूबर-दिसम्बर 198 007
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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