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________________ तथा कार्मण—इन पाँच शरीरों की संघातनात्मक एवं परिशातनात्मक कृति का एवं भव के प्रथम व अप्रथम समय में अवस्थित जीवों के कृति, नोकृति तथा अव्यक्त—अतद्रूप संख्याओं का वर्णन है। ___ यहाँ ‘कृति' के सात प्रकार निरूपित हैं, जो इसप्रकार हैं-1. नाम, 2. स्थापना, 3. द्रव्य, 4. गणना, 5. ग्रन्थ, 6. करण तथा 7. भाव। प्रस्तुत सन्दर्भ में 'गणना' की मुख्यता प्रतिपादित की गई है। वदना' के अन्तर्गत सोलह अधिकार हैं, जो निम्नांकित हैं:-1. निक्षेप, 2. नय, 3. नाम, 4. द्रव्य, 5. क्षेत्र, 6. काल, 7. भाव, 8. प्रत्यय, 9. स्वामित्व, 10. वेदना, 11. मति, 12. अनन्तर, 13. सन्निकर्ष, 14. परिमाण, 15. भागाभागनुगम तथा 16. अल्पबहुत्वानुगम। एतन्मूलक अपेक्षाओं से यहाँ वदना' का विवेचन किया गया है। __ पाँचवाँ खण्ड:—पाँचवाँ 'वर्गणा' खण्ड है। 'कर्मप्रकृति पाहुड' के 'स्पर्श', 'कर्म' तथा प्रकृति' नामक अनुयोगद्वारों व 'बन्धन' नामक अनुयोगद्वार के प्रथम भेद 'बन्ध' के आधार पर इसका सर्जन हुआ है। ___ स्पर्श-निरूपण के अन्तर्गत निक्षेप, नय, नाम, द्रव्य, क्षेत्र आदि सोलह अधिकार, जो वेदना-खण्ड' में वर्णित हुए हैं, द्वारा तेरह प्रकार के स्पर्शों का विवेचन किया गया है तथा प्रस्तुत सन्दर्भ में कर्म-स्पर्श की प्रयोजनीयता का कथन किया गया है। ___'कर्म' के अन्तर्गत उपर्युक्त सोलह अधिकारों द्वारा दशविध कर्म का निरूपण है। वे दश कर्म इसप्रकार हैं-1. नाम, 2. स्थापना, 3. द्रव्य, 4. प्रयोग, 5. समवधान, 6. अध:, 7. ईर्यापथ, 8. तप, 9. क्रिया तथा 10. भाव। प्रकृति-निरूपण के अन्तर्गत शील और स्वभाव का उल्लेख हुआ है, जिन्हें उसका पर्यायवाची कहा गया है। यहाँ 'प्रकृति' के चार भेदों-नाम, स्थापना, द्रव्य, तथा भावमें द्रव्य-प्रकृति अर्थात् कर्म-द्रव्य-प्रकृति को उपर्युक्त सोलह अधिकारों के माध्यम से विशद विवेचन किया गया है। __ मुख्यत: पाँचवें खण्ड का महत्त्वपूर्ण अधिकार 'बन्धनीय' है। वहाँ उसका—उसके अन्तर्गत 23 प्रकार की वर्गणाओं का, उनमें भी विशेषत: कर्मबन्धयोग्य वर्गणाओं का सूक्ष्म तथा विस्तृत विश्लेषण हुआ है। छठा खण्ड:-'महाबन्ध' छठा खण्ड है। इसके सम्बन्ध में पहले संकेत किया ही गया है, आचार्य भूतबलि इसके रचयिता हैं। अपने ज्यायान् सतीर्थ्य आचार्य पुष्पदन्त द्वारा रचित सूत्रों को लेते हुए पाँच खण्डों की रचना सम्पन्न कर आचार्य भूतबलि ने तीस-सहस्र-श्लोक-प्रमाण ‘महाबन्ध' रचा। इस सम्बन्ध में इन्द्रनन्दि ने 'श्रुतावतार' में जो उल्लेख किया है, उसे पिछले पृष्ठों में, जहाँ षट्खण्डागम' की सामान्यत: चर्चा की गई है, उपस्थित किया ही गया है। प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98 0043
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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