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________________ इस अंक के लेखक/लेखिकायें 1. स्व० पं० माणिकचन्द्र कौन्देय—आप दिगम्बर जैन समाज के सुप्रतिष्ठित प्रकाण्ड विद्वान थे। जैन न्याय एवं दर्शन के क्षेत्र में आपकी विशेष प्रतिष्ठा थी। आपकी शिष्य-परम्परा में कई सुयोग्य विद्वान् निकले हैं। ___इस अंक में प्रकाशित 'गृहस्थों को भी धर्मोपदेश का अधिकार' शीर्षक आलेख आपकी पुस्तक का अंश है। 2. आचार्य नगराज जी आप श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन समुदाय के क्रान्तिकारी आचार्य हैं। आपकी सूक्ष्म एवं निष्पक्षप्रज्ञा से प्ररित लेखनी से अनेकों महत्त्वपूर्ण रचनायें सृजित हुईं हैं। इस अंक प्रकाशित 'धरसेन की एक कृति : जोणिपाहुड' नामक आलेख आपकी पुस्तक से उद्धृत है। 3. पं० नाथूलाल जी शास्त्री—आप संपूर्ण भारतवर्ष में जैनविद्या के, विशेषत: प्रतिष्ठाविधान एवं संस्कार के क्षेत्र में सर्वाधिक प्रतिष्ठित वयोवृद्ध विद्वान् हैं। आपने देश भर के अनेकों महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों का दिग्दर्शन किया है तथा सामाजिक शिक्षण के कार्य में आपका अन्यतम योगदान रहा है। आपने विविध विषयों पर अनेकों प्रामाणिक महत्त्वपूर्ण पुस्तकें भी लिखीं हैं। इस अंक में प्रकाशित 'तीर्थंकी की दिव्यध्वनि की भाषा' शीर्षक आलेख आपके द्वारा विरचित है। स्थायी पता-42, शीश महल, सर हुकुमचंद मार्ग, इंदौर-452002 (म०प्र०) 4. डॉ० देवेन्द्र कुमार शास्त्री— आप जैनदर्शन के साथ-साथ प्राकृत-अपभ्रंश एवं हिंदी भाषाओं के विश्वविख्यात विद्वान् एवं सिद्धहस्त लेखक हैं। पचासों पुस्तकें एवं दो सौ से अधिक शोध निबंध प्रकाशित हो चुके हैं। संप्रति आप भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली में उपनिदेशक (शोध) के पद पर कार्यरत हैं। इस अंक में प्रकाशित 'जलगालन की विधि तथा महत्ता' नामक लेख आपकी लेखनी से प्रसूत है। स्थायी पता—243, शिक्षक कालोनी, नीमच-458441 (म०प्र०) 5. डॉ० राम सागर मिश्र—आप संस्कृत व्याकरण के सुप्रसिद्ध विद्वान् हैं। सम्प्रति आप जयपुर (राज०) स्थित केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ में रीडर' पद पर कार्यरते हैं। इस अंक में प्रकाशित 'कातन्त्र व्याकरण एवं उसकी दो वृत्तियाँ' शीर्षक आलेख आपके द्वारा लिखित है। ____ 6. डॉ० महेन्द्र सागर प्रचंडिया-आप जैनविद्या के क्षेत्र में सुपरिचित हस्ताक्षर हैं, तथा नियमित रूप से लेखनकार्य करते रहते हैं। इस अंक में प्रकाशित 'आचार्य कुन्दकुन्द का आत्मवाद' शीर्षक आलेख के रचयिता आप हैं। स्थायी पता—मंगल कलश, 394, सर्वोदय नगर, आगरा रोड़, अलीगढ़-202001 (उ०प्र०) 7.डॉ० कस्तूरचंद 'सुमन'–सम्प्रति आप जैनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी (राज०) में शोधअधिकारी के पद पर कार्यरत हैं तथा प्राचीन पाण्डुलिपियों के संपादन, अनुवाद, समसामायिक लेखन के साथ-साथ संस्कृत-प्राकृत, अपभ्रंश आदि अनेकों भाषाओं के विद्वान् हैं। इस अंक में प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98 00107
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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