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रत्नों के पारखी धर्मानुरागी श्री पूरणचन्द जी गोदीका ने आपको एक विद्वद्रत्न के रूप में परखा एवं आपको जयपुर में स्थापित संस्था 'पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट' में कार्य करते- हेतु ले आये, जहाँ पर आज तक आप केन्द्रीय व्यक्तित्व के रूप में निरन्तर अपनी सेवायें प्रदान कर रहे हैं। यह आपके ही श्रम, समर्पण एवं कौशल का सुपरिणाम है कि आज 'टोडरमल स्मारक ट्रस्ट' देश-विदेश में जैनसमाज की प्रतिनिधि संसथा के रूप में जाना जाता है 1
क्रान्तिकारी परिवर्तन:- जब आप बबीना में व्यापार-मग्न हो अर्थार्जन में निमग्न हो गये, तभी संयोगवश आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी का तीर्थराज सम्मेदशिखर जी की यात्रा को जाते हुये बबीना में आगमन हुआ । तब उनके आध्यात्मिक प्रवचनों का इनके मन पर गहरा प्रभाव हुआ तथा पुनः ज्ञानपिपासा बड़ी । तब से आप पुनः समाजसेवा एवं ज्ञानार्जन के क्षेत्र में लौटे। इसप्रकार यह आपका मानो पुनर्जन्म था, जो कि समाज के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ । क्योंकि इसी वैचारिक परिवर्तन से उत्पन्न ऊर्जा ने आपके निमित्त से देश-विदेश में जैनतत्त्वज्ञान का व्यापक प्रचार कराया ।
समाजसेवा एवं धर्मप्रभावना: – समाज के सभी वर्गों में धर्मप्रभावना के निमित्त आपने बहुआयामी कार्यों का प्रवर्तन किया। अपने प्रभावी प्रवचनों द्वारा तो आपने जनजागृति की ही, विभिन्न शिक्षण-प्रशिक्षण शिविरों, धार्मिक आयोजनों, पंचकल्याणकप्रतिष्ठा महोत्सवों आदि के अतिरिक्त बच्चों में तत्त्वज्ञान को सिखाने के लिए धार्मिक पाठशालाओं का देशव्यापी संचालन आपके नेतृत्व में हुआ। आप की नयी पीढ़ी के बच्चों को आधुनिक शिक्षण पद्धति से तत्त्वज्ञान कराया जाये— इस निमित्त आपने समाज के उत्साही युवक-युवतियों को 'प्रशिक्षण शिविरों' में विशेष प्रशिक्षण भी प्रदान किया। इस प्रक्रिया का बड़ा सकारात्मक परिणाम रहा, तथा जो बच्चे धर्म पढ़ने पाठशाला जाने में संकोच करते थे, वे उत्साहपूर्वक पढ़ने जाने लगे। इसीप्रकार समाज में विधिवत् सर्वांगीण अध्ययन-सम्पन्न विद्वानों की व्यापक कमी एवं कार्यरत जैन- विद्याकेन्द्रों की प्राय: अनुत्पादकता को देखते हुये आपने पं० टोडरमल दिगम्बर जैन सिद्धान्त महाविद्यालय का सूत्रपात सन् 1976-77 में किया, जो अनवरत चालू है तथा जिसके सैकड़ों स्नातक देशभर में समाजसेवा कर रहे हैं। आज किसी भी प्रकार के आयोजन के लिए समाज में जहाँ कहीं भी अपेक्षा होती है, यहाँ के विद्वान् एवं कार्यकर्त्ता समर्पित भाव से समाजसेवा के लिए उपलब्ध हो जाते हैं। यह सब डॉ० भारिल्ल जी के दूरदर्शी व्यक्तित्व एवं सुयोग्य प्रबन्धनशैली का ही सुपरिणाम है। समाजसेवा के इस अविरल क्रम में आप सम्पूर्ण देश के अतिरिक्त विदेशों में भी लगभग इक्यावन स्थानों पर धर्मप्रचारार्थ प्रतिवर्ष दो माह के लिए अनेकों बार जा चुके हैं तथा आपकी वहाँ निरन्तर माँग बनी हुई है।
प्राकृतविद्या + अक्तूबर-दिसम्बर 98
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