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________________ साहित्यसेवा:-समाज में व्यापक धर्मप्रभावना के लिए आपने कार्यक्रमों एवं प्रवचनों तक ही अपने आपको सीमित नहीं रखा है, अपितु बहुआयामी साहित्य-सृजन कर अपने मिशन को और अधिक व्यापकता प्रदान की है। आपके द्वारा सृजित साहित्य की प्रमुख विशेषता यह है कि वह न केवल धर्म व तत्त्वज्ञान का प्ररूपण करता है, अपितु उसमें समसामयिक भाषा, प्रभावोत्पादक शैली एवं हृदयस्पर्शी शब्दावलि का सुन्दर समावेश होता है। कथा, कविता, निबन्ध, उपन्यास, बालोपयोगी पाठ, संवादपरक संक्षिप्त एकांकी, गंभीर तात्त्विक पुस्तकों के लेखन के अतिरिक्त सम्पादन एवं अनुवाद के क्षेत्र में भी आपने महत्त्वपूर्ण साहित्यिक कार्य किये हैं। आपके द्वारा लिखित, सम्पादित एवं अनूदित कृतियों की कुल संख्या पचास है, जो लगभग आठ भाषाओं में चालीस लाख प्रतियों के रूप में देश-विदेश में प्रसारित हो चुकी हैं। इससे आपके साहित्य की लोकप्रियता एवं प्रभावोत्पादकता स्वत: स्पष्ट है। आपकी अभी लगभग ग्यारह कृतियाँ प्रकाशन-सूची में प्रतीक्षारत हैं। सम्मान:-समाज में प्राप्त अभिनंदनपत्रों एवं सम्मानपरक आयोजनों की गणना करने बैठे, तो डॉ० भारिल्ल को संभवत: स्वयं भी स्मरण नहीं होगा कि ऐसे छोटे-बड़े आयोजन कितने देश-विदेश में आयोजित हो चुके हैं। तथा समाजसेवी, वाणीभूषण, जैनरत्न, विद्याभूषण' आदि उपाधियाँ जो देश-विदेश के विशिष्ट संस्थानों द्वारा समय-समय पर समारोहपूर्वक दी गयीं हैं; वे भी आपके अगाध वैदुष्य, गरिमामय व्यक्तित्व एवं प्रभावशाली कृतित्व के समक्ष कोई विशेष महत्त्व नहीं रखती हैं। आपको इनके प्रयोग की अपेक्षा भी नहीं है। हाँ ! आपके व्यक्तित्व एवं कार्यशैली से प्रभावित होकर देशभर की अनेकों प्रमुख संस्थाओं ने आपको विभिन्न सम्मानित पदों पर मनोनीत करके आपकी व्यापकता को प्रमाणित कर दिया है। आपके ‘णमोकार मंत्र' से लेकर 'समयसार' तक का जो देश-विदेश में प्रचारित किया है, उसका यदि पक्षव्यामोह से रहित होकर मूल्यांकन किया जाये, तो बीसवीं शताब्दी के जैन इतिहास में अन्य कोई विद्वान् आपके निकट दृष्टिगोचर नहीं होता है। आपकी यह धर्मयात्रा अनवरत जारी रहे तथा सुस्वास्थ्यपूर्वक दीर्घायुष्य प्राप्त कर आप इसी तरह उन्नतिपथ पर अग्रसर रहें - ऐसी मंगलकामना है। श्रावक को सभी प्राणियों की रक्षा करनी चाहिये “गो-बाल-ब्राह्मण-स्त्री पुण्यभागी यदीष्यते। सर्वप्राणिगणत्रायी नितरां न तदा कथम् ।।" -(आचार्य अमितगति, श्रावकाचार, 11/3) अर्थ: यदि गौ, ब्राह्मण, बालक और स्त्री की रक्षा करनेवाला पुण्यभागी है, तो जिसने सम्पूर्ण प्राणीसमूह की रक्षा का व्रत लिया है, वह उससे विशिष्ट क्यों नहीं? अर्थात् वह अवश्य विशिष्ट है। 0060 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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