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________________ भारतीय शिक्षण व्यवस्था एवं जैन विद्वान् - श्रीमती अमिता जैन भारतीय शिक्षण-व्यवस्था में प्राचीनकाल से ही संस्कृत एवं प्राकृतभाषाओं का शिक्षा-माध्यमों के रूप में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । ईसापूर्वकाल से ही प्राचीन शिलालेखों, अभिलेखों, धार्मिक साहित्य, लोक साहित्य (विशेषत: नाटकों) एवं वैज्ञानिक साहित्य (लोकोपयोगी कलाओं, विद्याओं, तकनीकी शिक्षा, रसायन एवं भौतिक ज्ञानविधाओं आदि को प्रस्तुत करनेवाले साहित्य) में इन्हीं दोनों भाषाओं का ही प्रमुखतः योगदान मिलता है। इस तरह से हम संस्कृत एवं प्राकृत भाषाओं को भारतीय ज्ञान - विज्ञान एवं साहित्य-संस्कृति-इतिहास की 'संवाहिका भाषायें' कह सकते हैं । भारत में दो प्रधान संस्कृतियाँ रही हैं, एक 'श्रमण-संस्कृति' और दूसरी ‘वैदिक-संस्कृति' । इनमें श्रमण संस्कृति के पुरोधाओं ने जन-जन तक निष्पक्षभाव से ज्ञान का आलोक पहुँचाने की दृष्टि से मूलत: 'प्राकृतभाषा' को अपनाया, किंतु उन्होंने ज्ञान एवं लेखन के लिए 'संस्कृत' को भी समानरूप से प्रश्रय दिया । आज उपलब्ध जैन - वाङ्मय इस तथ्य का प्रबल साक्षी है, कि जहाँ आगम-ग्रंथ 'प्राकृत' में निबद्ध हुये, वहीं उसका अपार व्याख्या- -साहित्य, उपजीवी साहित्य एवं स्वतंत्र लेखन 'संस्कृतभाषा' में विपुल परिमाण में निबद्ध हुआ है। प्रायः सभी जैनाचार्य एवं विद्वान् 'प्राकृत' के साथ-साथ 'संस्कृत' के भी अच्छे ज्ञाता थे। उन्होंने न केवल स्वयं 'प्राकृत' के साथ 'संस्कृत' को विधिवत् सीखा, अपितु 'समाज-व्यवस्था' में भी जनसामान्य के मध्य इस तथ्य को प्रसारित किया । इसीलिए सामान्य जैन श्रावक-श्राविकायें एवं बच्चे 'प्राकृत' एवं 'संस्कृत' को सीखते-समझते रहे 1 प्राचीन भारतीय शिक्षण-व्यवस्था में भी कोई भेदभाव मुख्यतः नहीं था, इसीलिए उन्हें अध्यापकगण ‘गुरुकुलों' में निष्पक्षभाव से भाषाओं एवं शास्त्रों का ज्ञान प्रदान करते रहे। किंतु मुगलों के शासन में भारतीय जनमानस बुरी तरह पददलित होने से कुछ कुंठाग्रस्त हो गया तथा उसके परिणामस्वरूप वैचारिक संकीर्णता उदित हुई। इसका प्रभाव शिक्षाजगत् पर भी पड़ा। जहाँ एक ओर स्त्रीशिक्षा इससे प्रभावित हुई, वहीं जातिवादी - संकीर्णमानसिकता के वर्गविशेष के अतिरिक्त शेष भारतीय समाज को शिक्षा के द्वार बंद कर दिये गये। फिर भी जैनसमाज ने शिक्षा के प्रसार को 'परमात्मा की आराधना के समान आवश्यक' मानते हुये अनेकों प्रतिबंधों के बाद भी येन-केन-प्रकारेण चालू रखा। बच्चों को बाल्यावस्था से ही णमोकार मंत्र, चत्तारिमंगलपाठ, प्रतिक्रमणसूत्र, सामायिक पाठ, द्रव्यसंग्रह आदि के माध्यम से 'प्राकृतभाषा' का अभ्यास कराते रहे, तो भक्तामर स्तोत्र, कल्याणमंदिर स्तोत्र, तत्त्वार्थसूत्र आदि के द्वारा 'संस्कृतभाषा' का बोध जीवित रखा। इसमें उन्होंने स्त्रियों को प्रतिबंधित नहीं किया, तभी तो मात्र चौके-चूल्हे तक सीमित रहने वाली प्राकृतविद्या + अक्तूबर-दिसम्बर 98 0061
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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