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________________ - - महिलायें भी इन पाठों का नित्य पारायण करती रहीं। और इनके माध्यम से संस्कृत-प्राकृत भाषायें उनकी साँसों में प्रतिध्वनित होती रहीं। जैन समाज की आंतरिक शिक्षण व्यवस्था भले ही कितनी ही उदार रही हो, किंतु भारतीय समाज इस युग में शिक्षण व्यवस्था के प्रति पर्याप्त संकीर्ण विचारधारा में जकड़ चुका था। शैक्षिकरूप से उच्चवर्ग कहे जाने वाले ब्राह्मण-समाज ने निम्नवर्गों के साथ-साथ जैनों एवं बौद्धों को भी शिक्षालयों के द्वार बन्द कर दिये थे। जो जैन विद्वान यदि विधिवत् शिक्षा ग्रहण कर भी सके, तो वह उनके अदम्य साहस, अपूर्व त्याग एवं अनुपम सहिष्णुता का ही निदर्शन था। जैसे बौद्धों के प्रचण्ड प्रभाव के युग में अकलंकदेव ने बौद्ध बनकर गुरुकुल में शिक्षा ली थी और कैसे जान हथेली पर रखकर वे पढ़ सके थे—यह अपने आप में एक रोमांचकारी वृत्तान्त है। उनके भाई निकलंक का बलिदान एवं अकलंक का पद्मसरोवर में छुपकर प्राणरक्षा करना 'शिक्षा व्यवस्था' के वैषम्य का स्पष्ट प्रमाण है। लगभग ऐसी ही विकट स्थितियाँ अट्ठारहवीं सदी के प्रारंभ से लेकर बीसवीं सदी के छठवें दशक तक विद्यमान रही। यद्यपि इस बारे में विधिवत् प्रमाण संकलित कर कोई व्यवस्थित लेखन किया जाये, तो हजारों पृष्ठों का शोधग्रंथ बन सकता है; फिर भी यहाँ मात्र दो दृष्टान्तों को ही संक्षेपत: प्रस्तुत किया जा रहा है महामनीषी विद्ववर्य पंडित माणिकचन्द्र जी कौन्देय ने 'धर्मफल सिद्धान्त' नामक अपनी पुस्तक में इस दुर्व्यवस्था के प्रति प्रकाश डालते हुए उस समय की स्थिति के रोमांचकारी विवरण प्रस्तुत किये हैं। तदनुसार बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशक में ज्ञाननगरी वाराणसी' में जैनों को पढ़ने-सीखने के लिए कोई विद्यालय नहीं था। संस्कृत शिक्षा के केन्द्र अनेक थे, किंतु उनमें जैनों को प्रवेश नहीं मिलता था। यहाँ तक कि उन्हें अस्पृश्य (अछूत) माना जाता है, वे उनके स्पर्श मात्र से घर, वस्त्र और शरीर को अपवित्र हुआ मानकर उसकी शुद्धि किया करते थे। पराकाष्ठा तो यह थी कि उनके साथ संभाषण मात्र से वे वैदिक विद्वान् अपना मुख अशुद्ध हुआ मानते थे। इसलिए उत्साही एवं लगनशील जैन छात्रों को अपनी धार्मिक पहिचान छिपाते हुए वैदिकों के रूप में ज्ञानार्जन कराना पड़ता था। उक्त पुस्तक के अनुसार पं० नरसिंह दास जी, पं० रणछोरदास जी, न्यायदिवाकर पं० पन्नालाल जी, पं० गौरीलाल जी, पं० रामदयालु ही एवं पं० कलाधर जी आदि उनके (लेखक के) पूर्ववर्ती विद्वानों ने ब्राह्मणवेश में संस्कृतभाषा एवं दर्शन न्याय आदि का शिक्षण प्राप्त किया; ताकि वे जैनग्रंथों का हार्द समझ सकें तथा समाज के अन्य जिज्ञासुओं को पढ़ा-लिखा सकें ग्रंथों का सम्पादन अनुवाद कर सकें। तथा उन्हीं तथ्यों को सरल शब्दों में नवीन पुस्तकों के रूप में लिख भी सकें। यदि किसी जैन अध्येता की किंचित् भी असावधानी से उसके जैन होने का रहस्य खुल जाता था, जो उसे रातोंरात भागकर अपनी जान बचानी पड़ती थी। ऐसे ही एक 0062 प्राकृतविद्या+अक्तूबर-दिसम्बर'98
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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