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________________ प्रारम्भ किया, इसी कारण उनका धर्म ‘अचेलक धर्म' कहलाया।" उन्होंने अंग, बंग, मगध, काशी, कोशल आदि अनेक देशों में भ्रमण कर सम्पूर्ण भारतवर्ष में धर्म-पताका फहराई। उनका निर्वाण 527 ई० पूर्व में 'पावा नगरी में हुआ। - जैनधर्म के सिद्धान्त:-जैनधर्म में पाँच प्रकार के व्रतों को धारण करने का उपदेश दिया गया है। 1. अहिंसा, 2. सत्य, 3. अस्तेय (चोरी नहीं करना), 4. ब्रह्मचर्य और 5. अपरिग्रह (सांसारिक पदार्थों में आसक्ति न रखना)। जैन मुनि इन व्रतों का सम्पूर्ण रूप से पालन करते हैं, अत: वे 'महाव्रती' कहलाते हैं और गृहस्थ इन व्रतों का आंशिक पालन करते हैं, अत: वे 'अणुव्रती' कहलाते हैं।" जैन आचार का मूल अहिंसा है। संसार के समस्त प्राणी सुख चाहते हैं, दु:ख से दूर भागते हैं; सभी को अपना वय: प्रिय है तथा सभी जीवन से प्यार करते हैं, अत: किसी भी प्राणी का न तो वध करना चाहिए और न किसी को कष्ट पहुँचाना चाहिए। प्रत्येक वस्तु में अनन्त गुण-धर्म हैं, अत: हम वस्तु का वर्णन भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से ही कर पाते हैं, अत: हमें दूसरे के अभिप्रायों को समझकर दूसरे के दृष्टिकोण को भी पर्याप्त महत्त्व देना चाहिए, यह अनेकान्त-दृष्टि जैन धर्म की विशेषता है। ___ यद्यपि भगवान् महावीर ने मुनियों पूर्णरूप से अपरिग्रही होने का उपदेश दिया था, किन्तु आचार्य भद्रबाहु के समय मगध में जब द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष पड़ा, मुनिचर्या का ठीक तरह से निर्वाह न होते देखकर बारह हजार मुनियों का समुदाय भद्रबाहु के नेतृत्व में दक्षिण भारत की ओर विहार कर गया। जो मुनि उत्तरभारत में अवशिष्ट रहे, उनमें से कुछ ने वस्त्र को परिग्रह न मानकर वस्त्र धारण करना प्रारम्भ कर दिया। जो साधु अपरिग्रह के अन्तर्गत नग्नत्व को आदर्श मानते रहे, वे 'दिगम्बर' और जो साधु शिथिलआचार को स्वीकार कर श्वेतवस्त्र धारण करने लगे, वे 'श्वेताम्बर' कहलाए। दिगम्बर मुनियों के अनुयायी गृहस्थ भी दिगम्बर' और श्वेताम्बर साधुओं के अनुयायी गृहस्थ भी 'श्वेताम्बर' कहे जाने लगे। इसप्रकार भद्रबाहु के समय तक अविभाजित जैन-संघ 'दिगम्बर' और 'श्वेताम्बर' दो भागों में विभाजित हो गया।" जैनधर्म में ऊँच-नीच, राजा-रंक सभी को समान स्थान था। आचार्य समन्तभद्र ने महावीर के तीर्थ को सर्वोदय तीर्थ' कहा है; जिसमें सबका उदय हो, उसे 'सर्वोदय' कहते हैं। तीर्थंकरों की धर्म सभा 'समवसरण' कही जाती थी; उसमें देव, दानव, मानव, पशु सभी उपदेश सुनने के लिए उपस्थित होते थे। ये सभी अपनी-अपनी भाषा में उपदेश सुनते थे। जैनधर्म में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र—इन तीनों को 'त्रिरत्न' की संज्ञा से विभूषित किया गया है। इन तीनों की एकता ही मोक्ष का मार्ग है।" प्रत्येक जीवात्मा अपने में इन तीनों गुणों का विकास कर परमात्मा बन सकता है। __ जैन गृहस्थों को कृषि, सेवा, वाणिज्य, शिल्प आदि द्वारा जीविकोपार्जन करने का तविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98 0087
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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