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________________ 108 - दोनों कर्मों एवं उनके परिणामों (भावों) की सहचरता/संगति की निकृष्टता सूचित करने के लिए ही यहाँ 'संसग्गि' पद का विशेष प्रयोग किया जाता है। लोक में भी अर्थविशेष को सूचित करने के लिए पदविशेष का प्रयोग अनिवार्य माना जाता है। यथा- भोजन करने के लिए मध्यभारत में 'जीम लो, खा लो, ह्स लो' -ये तीन प्रयोग मिलते हैं, किंतु तीनों के अर्थ भिन्न हैं। जहाँ 'जीम लो' का प्रयोग होता है, वहाँ प्रभूत आदरभाव है। जहाँ ‘खा लो' का प्रयोग होता है, वहाँ सामान्य व्यवहार लिया जाता है। किंतु उसी कार्य के लिए 'ह्स लो' का प्रयोग अत्यन्त निकृष्ट भावना, उपेक्षा एवं तिरस्कार की सूचना देता है। ऐसा ही विशिष्ट निकृष्टतासूचक प्रयोग ‘संसग्गि' है, जिसे सभी संस्करणों में संसग्ग' बना दिया गया है; एकमात्र कुन्दकुन्द भारती द्वारा प्रकाशित 'समयसार' का संस्करण, जो कि अत्यन्त प्रामाणिक संपादन-विधि से निर्मित है, में ही 'संसग्गि' यह मूलपाठ सुविचारित दृष्टि से वास्तविक एवं आधारयुक्त होने से दिया गया है। इसकी पुष्टि के लिए इसके अनेकों संस्करणों में उपलब्ध पाठ यहाँ द्रष्टव्य हैंप्रकाशन उपलब्ध पाठ पृष्ठ संख्या गुजराती संस्करण संसग्गं 240 ज्ञानपीठ प्रकाशन संसग्गं जे०एल० जैनी (अंग्रेजी संस्करण) संसग्गं 92 'पं० पन्नालाल साहित्याचार्य (वर्णी ग्रंथमाला) संसगं कारंजा (मराठी संस्करण) संसग्गं 228 सहजानंद संस्करण संसग्गं 275 अहिंसा मंदिर, दिल्ली संसग्गं 211 निजानंद जैन ग्रंथमाला संसग्गं 78 ज्ञानसागर जी की टीका संसग्गं 133 राजचंद्र ग्रंथमाला, अगास संसग्गं पं० गजाधरलाल जी कन्नड़ संस्करण संसग्गं 249 कुन्दकुन्द कहान ट्रस्ट 247 कलकत्ता संस्करण संसग्गं 250 कन्नड़ ताड़पत्रीय प्रति संसग्गिं 182 ब्र० शीतलप्रसाद जी संसग्गं 133 _ आचार्य बालचन्द्र अध्यात्मीकृत कन्नड़ टीका वाली मूड़बद्री प्रति में भी 'संसग्गि' पाठ ही मूल गाथा व टीका में उपलब्ध है। वस्तुत: भाषातत्त्व का ज्ञान एवं संपादनकला में निष्णात न होने से मात्र संशोधक 162 211 संसग्गं 83 संसग्गं प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98 1067
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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