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________________ तीर्थंकर की दिव्यध्वनि की भाषा -नाथूलाल जैन शास्त्री दिव्यध्वनि और प्राणिमात्र में मैत्री आदि 14 अतिशय तीर्थंकर केवली के देवकृत' बताये हैं। आचार्य कुन्दकुन्ददेवकृत 'दसणपाहुड' गाथा 35 की संस्कृत टीका में केवलज्ञान के चतुर्दश अतिशयों में उक्त दिव्यध्वनि को सर्वार्द्धमागधीभाषा' कहा है। उसके अर्थ में मगधदेव के सन्निधान होने पर तीर्थंकर की वाणी अर्द्धमगधदेश-भाषात्मक एवं अर्द्ध-सर्वभाषात्मक परिणत होती है। मैत्री के विषय में वही स्पष्टीकरण किया गया है कि समवसरण में सर्व जनसमूह मागध एवं प्रीतंकरदेव-कृत अतिशय के कारण मागधी भाषा में परस्पर बोलते हैं और मित्ररूप में व्यवहार करते हैं। 'तिलोयपण्णत्ती' आदि के अनुसार तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि तालु, दंत, ओष्ठ के हलन-चलन बिना होती है। ___ हम पूजा में पढ़ते हैं—'ओंकार ध्वनि सार द्वादशांगवाणी विमल' । मूल में केवली के समस्त शरीर से 'ओम्' ध्वनि-अनक्षरात्मक शब्द-तरंगरूप सप्रेषण द्वारा बिना इच्छा के मेघगर्जना के समान श्रोताओं के कर्ण में प्रवेश करते समय उनकी योग्यतानुसार उनकी भाषारूप अक्षरात्मक होकर परिवर्तित होती है। इसमें मागधदेवों का सन्निधान रहता है, जैसा कि उक्त दंसणपाहूड' टीका में बताया गया है। साथ ही केवली का अतिशय तो है ही। भाषा के प्रसार में देव सहयोग प्रदान करते रहते हैं। दिव्यध्वनि तीर्थंकर नामकर्मोदय के कारण कण्ठ-तालु आदि को प्रकंपित किये बिना शब्द-वर्गणाओं के कंपन के साथ ध्वनि होती है, जो पौद्गलिक है। काययोग (वचन) से आकृष्ट पुद्गलस्कंध स्वयं शब्द का आकार लेते हैं, यानि भाषारूप में परिणमन करते हैं। तीर्थंकर की ध्वनि में ऐसी स्वाभाविक शक्ति होती है, जिसमें वह अठारह महाभाषा एवं सात सौ लघुभाषा रूप में परिणत होती है। साथ ही समस्त मनुष्यों, देवों एवं पशु-पक्षियों की संकेतात्मक भाषा में परिवर्तित हो जाती है। -(आदिपुराण, 23/70) ऊपर जो तीर्थंकर-वाणी को 'अर्द्धमागधी' कहा है, यद्यपि उसमें 'मागध' शब्द का संबंध. देवों से बता दिया गया है। साथ ही मगधदेश के अर्द्धप्रदेश की भाषा का भी उल्लेख किया गया है, जिसमें अठारह देशी भाषाओं का मिश्रण है। _ 'अट्ठारस देसीभासा णियम वा अद्धमागहम्' अर्थात् अठारह देशी भाषाओं का मिश्रण 'अर्द्धमागधी' है। आचार्य जिनसेन आदि ने इसे 'सर्वभाषात्मक' कहा है। हमारा यहाँ लिखने का अभिप्राय यह है कि 'अर्हत् वचन' पत्रिका के जो कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर से प्रकाशित होती है—जुलाई '98 अंक में एम०डी० वसन्तराज का दिगम्बर जैन आगम के बारे में एक चिन्तन' एक पठनीय लेख प्रकाशित हुआ जो (कन्नड़ भाषा से) हिन्दी अनुवाद है। लेखक प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98 0025
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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