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________________ इनका समय सिद्ध होता है और यदि नन्दिसंघ की प्राकृत-पट्टावली व जोणिपाहुड आदि के आधार पर चिन्तन करें, तो यह वीर-निर्वाण सं0 600 से कुछ पूर्व सिद्ध होता है। अर्थात् ईसा की प्रथम शती में वे हुए, ऐसा अनुमान किया जा सकता है। तिलोयपण्णति आदि के अनुसार उनका समय लगभग एक शती के बाद होता है। जैसा भी हो, वे ईसा की द्वितीय शती से अवश्य पूर्ववर्ती रहे हैं। पुष्पदन्त तथा भूतबलि की समय-सीमा बांधने का आधार भी प्राय: यही है। 'धवला' और 'जयधवला' षट्खण्डागम के यथार्थ महत्त्व से लोक-मानस को अवगत कराने का मुख्य श्रेय आचार्य वीरसेन को है, जिन्होंने उस पर 'धवला' संज्ञक अत्यन्त महत्वपूर्ण टीका की रचना की। धवला के विशाल कलेवर के सम्बन्ध में संकेत किया ही गया है। षट्खण्डागम जैसे महान् सैद्धान्तिक ग्रन्थ पर अकेला व्यक्ति गम्भीर विश्लेषण तथा विवेचनपूर्वक 72 सहस्र श्लोक-प्रमाण व्याख्या प्रस्तुत करे, नि:संदेह यह बहुत बड़ा आश्चर्य है। आचार्य वीरसेन का कृतित्व और उद्भासित हो जाता है तथा सहसा मन पर छा जाता है, जब साथ-ही-साथ यहाँ देखते हैं कि उन्होंने जयधवला का बीस-सहस्र-श्लोक-प्रमाण अंश भी लिखा। उतना ही कर पाये थे कि उनका भौतिक कलेवर नहीं रहा। इसप्रकार आचार्य वीरसेन ने अपने जीवन में 92 सहस्र-श्लोक-प्रमोण रचना की। ऐसा प्रतीत होता है, गम्भीर शास्त्राध्ययन के अनन्तर उन्होंने अपना समग्र जीवन साहित्य-सृजन के इस पुनीत लक्ष्य में लगा दिया। तभी तो इस इसप्रकार का विराट कार्य सध सका। विशालकाय महाकाव्य के रूप में 'महाभारत' विश्व-वाङ्मय में सर्वाधिक प्रतिष्ठापन्न है, क्योंकि उसका कलेवर एक लाख-श्लोक-परिमित माना जाता है। पर, वह अकेले व्यासदेव की रचना नहीं है। न जाने कितने कवियों और विद्वानों की लेखिनी का योगदान उसे मिला है। पर, 'धवला' जो कलेवर में महाभारत से कुछ ही कम है, एक ही महान् लेखक की कति है। यह उसकी सबसे बड़ी विशेषता है। ज्ञानोपासना के दिव्य यज्ञ में अपने आप को होम देने वाले आचार्य वीरसेन जैसे मनीषी ग्रन्थकार जगत में विरले ही हुए हैं। ___ महान् विद्वान् : प्रखर प्रतिभान्वित:—आचार्य वीरसेन का वैदुष्प विलक्षण था। उनकी स्मरण-शक्ति एवं प्रतिभा अद्भुत थी। उनका विद्याध्ययन अपरिसीम था। स्व-शास्त्र एवं पर-शास्त्र—दोनों के रहस्य उन्हें स्वायत्त थे। व्याकरण, न्याय, छन्द, ज्योतिष प्रभृति अनेक विषयों में उनकी गति अप्रतिहत थी। आ० जिनसेन के शब्दों में वे समग्र विश्व के पारदश्वा थे, मानों साक्षात् केवली हों। उनकी सर्वार्थगामिनी स्वाभाविक प्रज्ञा को देख विद्वानों को सर्वज्ञ के अस्तित्व में शंका नहीं रही।' उनकी चमकती हुई ज्ञानमयी 0038 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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