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________________ किरणों का प्रसार देखकर प्राज्ञजन उन्हें 'श्रुत-केवली' तथा उत्कृष्ट 'प्रज्ञा-श्रमण" कहते थे। ___तत्त्व-दर्शन के महान् समुद्र में अवगाहन करने से उनकी बुद्धि परिशुद्ध थी, तभी मानों महान् मेधाशील प्रत्येकबुद्धों से वे स्पर्धा करने लगे हों। ___जिनसेन ने उनके शास्त्रानुशीलन के सम्बन्ध में एक बड़े महत्त्व की बात कही है। उसके अनुसार आचार्य वीरसेन ने चिरन्तन-कालीन पुस्तकों का गौरव बढ़ाया अर्थात् पुस्तकारूढ़ प्राचीन वाङ्मय का उन्होंने गम्भीर अनुशीलन किया, उसे अग्रसर किया। इससे यह गम्य है कि आचार्य वीरसेन के समय तक जो भी उच्च कोटि के ग्रन्थ प्राप्त थे, उन्होंने उन सब का सांगोपांग एवं व्यापक अध्ययन किया। तभी तो यह सम्भव हो सका कि वे अपनी धवला टीका को अनेक शास्त्रों के निष्कर्ष तथा नवनीत से आपरित कर सके। जिनसेन ने आदिपुराण की उत्थानिका' में अपने श्रद्धास्पद गुरु को परमोत्कृष्टवादी, पवित्रात्मा, लोकविज्ञ, कवित्व-शक्ति-सम्पन्न तथा वृहस्पति के तुल्य 'वाग्मी' कहा है।' उनकी 'धवला' टीका के विषय में जिनसेन ने बड़े भावपूर्ण शब्दों में उल्लेख किया है कि "उनकी 'धवला' भारती तथा उनकी पवित्र व उज्ज्वल कीर्ति ने अखण्ड भू-मण्डल को धवल-उज्ज्वल बना दिया। अर्थात् वे दोनों लोक-व्याप्त हो गई।" ___ धवला की रचना:-इन्द्रनन्दि के 'श्रुतावतार' में आचार्य वीरसेन तथा उनकी धवला टीका की चर्चा की है। टीका की रचना के सन्दर्भ में उन्होंने बताया है कि वीरसेन ने एलाचार्य के पास सैद्धान्तिक ज्ञान अर्जित किया। गुरु के आदेश से वे वाटग्राम आये। आणतेन्द्र द्वारा निर्मापित जिन-मन्दिर में रुके। वहाँ बप्पदेव-गुरु-रचित व्याख्याप्रज्ञप्ति—षट्खण्डागम की एक पुरानी टीका मिली। वहीं उन्होंने धवला की रचना समाप्त की। ___ उसी प्रसंग में इन्द्रनन्दि ने वीरसेन-रचित धवला तथा अंशत: जयधवला के श्लोक-प्रमाण की भी चर्चा की है। यह भी बताया है कि धवला प्राकृत-संस्कृत-मिश्र टीका है। इसी सन्दर्भ में जिनसेन द्वारा जयधवला की पूर्ति तथा उसके समग्र षष्टि-सहस्रश्लोक-प्रमाण की भी चर्चा की है। नाम : अन्वर्थकता:-आचार्य वीरसेन ने टीका का अभिधान 'धवला' क्यों रखा, इस सम्बन्ध में स्पष्टतया कोई विवरण प्राप्त नहीं है। धवला शब्द संस्कृत भाषा का है, जिसका अर्थ श्वेत, सुन्दर, स्वच्छ, विशुद्ध, विशद आदि है। मास के शुक्ल पक्ष' को भी 'धवल' कहा जाता है। सम्भव है, अपनी टीका की अर्थ-विश्लेषण की दृष्टि से विशदता, भाव-गाम्भीर्य की दृष्टि से स्वच्छता, पद-विन्यास की दृष्टि से सुन्दरता, प्रभावकता की दृष्टि से उज्ज्वलता, शैली की दृष्टि से प्रसन्नता–प्रसादोपन्नता आदि विशेषताओं का एक __प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98 0039
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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