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________________ के स्वरूप का सम्पूर्ण ज्ञान किसी एक नय से नहीं हो सकता, उसके लिये दोनों नय स्वीकारने होंगे। और दोनों ही सापेक्षगत हैं। एक अपेक्षा से जीव बद्ध है, नित्य है, वर्णयुक्त है, मूर्त आदि है और दूसरे की अपेक्षा से वह अबद्ध है, अनित्य है, अवर्ण है, अमर्त्त है। जब दोनों अपेक्षाओं अर्थात नयों का ध्यान रखकर जीव के स्वरूप की चर्चा करते हैं, तो जीव इन सबसे परे है अर्थात् वह न तो बद्ध है और न अबद्ध है, –यही समयसार है, यही परमात्मा है।" ___ आचार्य कुंदकुंद की दृष्टि में संसार के समस्त पदार्थों का समावेश द्रव्य, गुण, पर्याय में हो जाता है। इनमें परस्पर भेद होने पर भी वस्तुत: भेद नहीं है। जैसे ज्ञानी से ज्ञान गुण को, धनी से धन के समान अत्यन्त भिन्न नहीं माना जा सकता है। आचार्य कुंदकुंद ने इसी आधार पर द्रव्य, गुण, पर्याय का भेदाभेद स्वीकार किया है। पुद्गल-द्रव्य की व्याख्या भी 'निश्चय' और 'व्यवहार' नय से करते समय वे कहते हैं- कि निश्चयनय की अपेक्षा से परमाणु को ही पुद्गल कहा जा सकता है। अब यह व्याख्या की जाती है, तब पुद्गल के गुण जो स्वभावजन्य हैं और पर्याय जो विभावजन्य हैं, उसे ध्यान में रखा जाता है; क्योंकि शुद्ध पुद्गल के गुण स्वाभाविक होते हैं, जबकि स्कन्ध के गुण वैभाविक होते हैं। इसप्रकार परमाणु का अन्य-निरपेक्ष परिणमन 'स्वभाव पर्याय' है और परमाणु का स्कन्धरूप परिणाम अन्य-सापेक्ष होने से विभाव पर्याय' है। यहाँ अन्य-निरपेक्ष परिणमन को जो स्वभाव पर्याय' कहा गया है, उसका तात्पर्य इतना ही है कि वह परिणमन काल-भिन्न अन्य किसी निमित्तकारण की अपेक्षा नहीं रखता; क्योंकि सभी प्रकार के परिणामों में काल ‘कारण' होता ही है। आत्मा एक स्वतंत्र, शाश्वत, द्रव्य तथा तत्त्व है। उसमें अनंतशक्ति विद्यमान है। प्रत्येक आत्मा परमात्मा बनने की क्षमता रखता है। आत्मा से परमात्मा तक पहुँचने के लिये जीव को कषाय-कौतुक और मोह-मुक्ति परमावश्यक है। इन सभी विभावों से मुक्त्यर्थ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। इसे चरितार्थ करने के लिये तप और संयम की आवश्यकता है। इसप्रकार जीव जन्म-मरण के दारुण दुःखों से मुक्त होकर सिद्धात्मा बन सकता है। सिद्धात्मा ही वस्तुत: परमात्मा है। सन्दर्भ-सूची 1. समयसारो - 6,7, 10, 11, 16, 21, 152-153 । 2. पवयणसारो - 1- 59, 60, 87। 2- 14, 16 और 871 3. णियमसारों - 27, 28, 29, 95, 100, 158। 4. पंचत्थिकायसंगहो - 52। 0056 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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