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________________ स्वाध्याय में लीन रहकर नितनूतन तथ्यों के अन्वेषण एवं उनकी प्रभावी प्रस्तुति में सतत संलग्न रहे हैं। 'कल्याणमुनि और सम्राट् सिकन्दर' जैसी कालजयी कृतियों का सृजन उसी अवस्था में आपने वर्षों तक व्यापक अध्ययन. एवं शोध के बाद किया था। आप कलकत्ता की नेशनल लाइब्रेरी में महीनों तक सम्राट् खारवेल के विषय में अध्ययन करते रहे और सन् 1964 ई० में आपने इस कृति के विद्वान् लेखक को व्यापक विचार-बिन्दु एवं शोध-निषेचित सामग्री देकर एक लघु पुस्तिका के निर्माण की प्रेरणा दी थी; जिसके फलस्वरूप इस पुस्तिका का निर्माण हुआ था। इसका सादर उल्लेख लेखक ने 'नन्न मातु' (अपनी बात या आत्मकथ्य) शीर्षक से लिखित प्रारम्भिक वक्तव्य की शुरूआत में किया __यह कृति प्राञ्जल, सरल एवं साहित्यिक कन्नड़ भाषा में सम्राट् खारवेल के जीवन एवं यशस्वी कार्यों का विशद विवेचन करती है। लघुकाय होते हुए भी इसमें निहित सामग्री जहाँ प्रस्तुत तथ्यों की दृष्टि से महनीय है, वहीं भाषाशैली की रोचकता, प्रस्तुतीकरण की मौलिकता एवं प्रभावोत्पादकता विशेषत: श्लाघनीय है। यह पुस्तक मैसूर विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में भी निर्धारित है। आज जब पूज्य आचार्यश्री की कृपा से दिग्विजयी जैन सम्राट् खारवेल के ऊपर व्यापक कार्य किये जा रहे हैं, उसी श्रृंखला में मैसूर से यह कृति 'प्राकृतविद्या' में समीक्षार्थ प्राप्त हुई है। इसकी प्राचीनता एवं गरिमा को देखते हुये कन्नड़वेत्ताओं को इसका अध्ययन एवं संकलन अवश्य करना चाहिये तथा सम्राट् खारवेल के विषय में शोधकर्ताओं को इसके तथ्यों का अवलोकन अवश्य करणीय है। इसका अन्य भाषाओं में अनुवाद भी प्रकाशित होना चाहिये, ताकि इसकी व्यापक उपयोगिता हो सके। –सम्पादक ** पुस्तक का नाम - प्रतिष्ठा-प्रदीप लेखक व सम्पादक - पं० नाथूलाल जैन शास्त्री प्रकाशक वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति, गोम्मटगिरि, इन्दौर-452001 संस्करण - द्वितीय संस्करण, जुलाई 1998 ई० मूल्य - 150/- (एक सौ पचास रुपये), पक्की जिल्द, आकर्षक मुद्रण पृष्ठ-संख्या - 24+234+36=294 पृष्ठ, छायाचित्र अतिरिक्त, शास्त्राकार ___ वर्तमान में प्रतिष्ठाचार्यों एवं प्रतिष्ठा-महोत्सवों की बहुलता होने लगी है। जहाँ प्रतिमा जी की विधिपूर्वक प्रतिष्ठा होकर भव्यजीवों को वीतरागी जिनेन्द्र परमात्मा के दर्शन का सौभाग्य सुलभ होना अत्यन्त सुखद प्रसंग है, वहीं इसके कई प्रतिष्ठाचार्यों का विधिवत् रूप से प्रशिक्षित न होना एक चिंता का विषय था। इस निमित्त सर्वाधिक वयोवृद्ध (विशेषत: प्रतिष्ठा-क्षेत्र में) विद्वद्वरेण्य पं० नाथूलाल जी शास्त्री संहितासूरि के द्वारा ऐसे । प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98 0097
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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