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________________ "सुद्धहँ संजुम सीलु तउ सुद्धहँ दंसणु णाणु। सुद्धहँ कम्मक्खउ हवइ सुद्धउ तेण पहाणु ।।"" अर्थ:-शुद्धोपयोग से ही संयम, शील, दर्शन, ज्ञान की प्राप्ति एवं कर्मक्षय होता है; अत: शुद्धोपयोग ही प्रधान है। यह शुद्धोपयोग चूँकि आत्मध्यानरूप है, अत: यह सागार (गृहस्थ) एवं अनगार (मुनि) —दोनों को ही मुक्तिसुख का कारण बताया गया है "सागारु वि णागारुकुवि जो अप्पाणि बसेइ। सो लहु पावइ सिद्धि-सुहु जिणवरु एम भणेइ।।"15 अर्थ:-साधक व्यक्ति गृहस्थ हो अथवा मुनि हो, जो कोई भी निजात्मा में निवास (आत्मध्यान या शुद्धोपयोग) करता है; वह शीघ्र ही सिद्धिसुख को प्राप्त करता है —ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। यहाँ पर ग्रंथकर्ता आचार्य योगीन्द्रदेव ने इस कथन को 'जिनेन्द्र भगवान् का ऐसा कथन है' —ऐसी विशेष प्रामाणिकता प्रदान की है - वह सोद्देश्य है। गृहस्थों एवं मुनियों-दोनों में शुद्धोपयोग हो सकता है - इस तथ्य की पुष्टि उन्होंने यहाँ सर्वज्ञपरमात्मा के द्वारा करायी है। - आचार्य ब्रह्मदेवसूरि ने तो 'शुद्धोपयोग को ही धर्म' कहा है तथा 'धर्म' के शास्त्रोक्त सभी लक्षणों को इसी में चरितार्थ किया है:- “धर्मशब्देनात्र निश्चयेन जीवस्य शुद्धपरिणाम एव ग्राह्यः। तस्य तु मध्ये वीतरागसर्वज्ञप्रणीतनयविभागेन सर्वे धर्मा अन्तर्भूता लभ्यन्ते। यथा अहिंसालक्षणो धर्म:,सोऽपि जीवशुद्धभावं विना न संभवति । सागारानगारलक्षणो धर्म:,सोऽपि तथैव । उत्तमक्षमादिदशविधो धर्मः,सोऽपि जीवशुद्धभावमपेक्षते। ___ 'सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः' इत्युक्तं यद्धर्मलक्षणं, तदपि तथैव । रागद्वेषमोहरहित: परिणामो धर्मः,सोऽपि जीवशुद्धस्वभाव एव । वस्तुस्वभावो धर्म: सोऽपि तथैव। .....अत्राह शिष्य: । पूर्वसूत्रे भणित शुद्धोपयोगमध्ये संयमादय: सर्वे गुणा: लभ्यन्ते। अतएव तु भणितमात्मन: शुद्धपरिणाम एव धर्मः, तत्र सर्वे धर्माश्च लभ्यन्ते। को विशेष:? परिहारमाह। तत्र शुद्धोपयोगसंज्ञा मुख्या, अत्र तु धर्मसंज्ञा मुख्या एतावान् विशेष: । तात्पर्यं तदेव।" __ अर्थ:-यहाँ 'धर्म' शब्द से निश्चय से जीव के शुद्ध परिणाम ग्रहण करने चाहिए। उसमें ही नयविभागरूप से वीतरागसर्वज्ञप्रणीत सर्वधर्म अन्तर्भूत हो जाते हैं। वह ऐसे किअहिंसा-लक्षण धर्म है, सो जीव के शुद्धभाव के बिना सम्भव नहीं। सागार-अनगार प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98 0023
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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