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________________ भाषा उत्तर भारत के मध्यवर्ती विस्तृत भू-भाग में प्रयुक्त थी। दिगम्बर आचार्यों द्वारा अपने धार्मिक साहित्य के सृजन में जिस प्राकृत का प्रयोग हुआ है, लक्षणों से यह शौरसेनी के अधिक निकट है। इस सम्बन्ध में निम्नांकित तथ्य विशेष रूप से परिशीलनीय हैं। दिगम्बर-सम्प्रदाय का मुख्य केन्द्र दक्षिण भारत रहा है। जिसके साथ अनेक प्रकार के कथानक जुड़े हैं, वह उत्तर भारत में व्याप्त द्वादशवर्षीय दुष्काल एक ऐसा प्रसंग था, जिसके परिणामस्वरूप घटित घटनाओं के कारण जैन-संघ दो भागों में बँट गया। उत्तर में जो जैन-संघ रहा, अधिकांशतया वह आगे चलकर श्वेताम्बर' के रूप में विश्रुत हो गया। यह परम्परागत आगमों की, चाहे अंशत: ही सही, अविच्छिन्नता में विश्वास रखता रहा। उसकी ओर से विभिन्न समयों में आयोजित आगम-वाचनाओं द्वारा अपने 'अर्द्धमागधी आगम-वाङमय' को सुरक्षित बनाये रखने का प्रयत्न भी चला। फलत: वह वाङ्मय सुरक्षित रह भी सका। श्वेताम्बर-मुनियों के माध्यम से आगे वह स्रोत प्रवहणशील रहा। दिगम्बर-मुनियों की स्थिति दूसरी थी। उन्होंने महावीर-भाषित द्वादशांग-वाङ्मय को विच्छिन्न माना। इसलिए तदनुस्यूत भाषा के साथ भी उनका विशेष सम्बन्ध न रह सका। इस सम्प्रदाय के विद्वानों को, जब साहित्य-सृजन का प्रसंग आया, तो शौरसेनी का स्वीकार अधिक संगत लगा हो। क्योंकि उत्तर भारत का मुख्य भाग उससे प्रभावित था। हर कोई लेखक यह चाहता है, उसकी कृति स्थायी रहे । वह भाषा के अस्तित्व तथा महत्त्व पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है । शौरसेनी प्रभावशील भाषा थी। दिगम्बरलेखकों को उसमें कुछ ऐसी संभावनाएं प्रतीत हुई हों, वे मन में आश्वस्त रहे हों कि उन द्वारा उसमें प्रणीत साहित्य स्थायित्व लिए रहेगा। एक दूसरी सम्भावना यह भी हो सकती है कि प्राचीन काल में दिगम्बर-सम्प्रदाय का उत्तर भारत से कुछ सम्बन्ध रहा भी, तो वह विशेषरूप से मथुरा के आस-पास के प्रदेश से रहा हो। उस कारण भी उस प्रदेश की भाषा को अपने धार्मिक साहित्य में ग्रहण करने की मन:स्थिति उत्पन्न हो सकती है। दिगम्बर-लेखकों द्वारा प्रयुक्त शौरसेनी' कही जाती है। इसका एक कारण तो यह है कि उसमें पहले-पहल ग्रन्थ-रचना वाले जैन विद्वान् ही थे, जिनकी अपनी परम्परा थी, अपनी शैली थी। उनके कारण वह भाषा, जो उनकी लेखिनी से पल्लवित और विकसित हुई, उनके विशेषण के साथ (जैन शौरसेनी) विश्रुत हो गई। ___एक और कारण भी है। जैनधर्म जब अविभक्त था, तब से उससे भी पूर्व भगवान् महावीर के समय से अर्द्धमागधी से विशेष सम्बद्ध रहा। भगवान् महावीर चाहे शब्दरूप में बोले हों अथवा उनके देह से ध्वनि रूप में उद्गार निकले हों, अन्तत: उनके भाषात्मक रूप की परिणति 'अर्द्धमागधी' में होती हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जाये तो अत्युक्ति नहीं 0046 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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