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________________ होगी कि अर्धमागधी एक तरह से जैनधर्म की भाषा है। जैसाकि कहा गया है, यद्यपि दिगम्बरों का अर्द्धमागधी के साथ विशेष सम्बन्ध नहीं रहा, पर अर्हद्-वाणी या आर्षवाणी के रूप में उनके मन में जो पारम्परिक श्रद्धा थी, वह कैसे मिट सकती थी। इसके सिवाय पूर्वतन श्रुत-स्रोत के परिप्रेक्ष्य में भी उनके मस्तिष्क पर उसकी छाप थी। अत: उन्होंने यद्यपि लिखा तो शौरसेनी में, पर स्वभावत: उस पर अर्द्धमागधी का प्रभाव बना रहा। इसप्रकार अर्द्धमागधी अर्थात् जैनधर्म की भाषा या जैन भाषा से प्रभावित रहने के कारण वह 'शौरसेनी' जैन शौरसेनी कहलाने लगी। दिगम्बर-लेखकों द्वारा प्रयुक्त प्राकृत के स्वरूप के सूक्ष्म पर्यवेक्षण तथा परिशीलन से ऐसा प्रतीत होता है कि यह नाम उस भाषा के अन्त:स्वरूप की यथार्थ परिचायकता की अपेक्षा उसके स्थूल कलेवरीय स्वरूप पर अधिक आधृत है, अन्यथा उन द्वारा प्रयुक्त भाषा में ऐसे उदाहरण भी हैं, जो ‘मागधी' आदि की सरणि से अधिक मेल खाते हैं। ___प्राकृत के विख्यात वैयाकरण डॉ० आर० पिशेल (Dr. Pischel) ने इसे जो जैन शौरसेनी' कहा है, उसके पीछे भी उसीप्रकार का अभिप्राय प्रतीत होता है। डॉ० वाल्टस सुब्रिग (Dr. Walter Schubring) के शिष्य डॉ० डेनेक (Dr. Denecke) ने डॉ० पिशेल (Dr. Pischel) द्वारा परिकल्पित जैन शौरसेनी' नाम को अनुपयुक्त बताया है। उन्होंने उसे 'दिगम्बरी भाषा' कहना अधिक उपयुक्त समझा है। डॉ०ए०एन० उपाध्ये आदि विद्वान् इसे ठीक नहीं मानते । बात ऐसी ही है, यदि दिगम्बर लेखकों द्वारा अपने ग्रन्थों का इस भाषा में लिखा जाना इसके 'दिगम्बरी भाषा' कहे जाने का पर्याप्त हेतु है, तो वह अव्याप्त है, क्योंकि दिगम्बर विद्वानों ने अपने धर्म का साहित्य कन्नड़ तथा तमिल जैसी भाषाओं में भी तो रचा है, बहुत रचा है; जो उन भाषाओं की निधि है। अत: स्थूल दृष्ट्या 'जैन शौरसेनी' नाम से इसे संज्ञित करना अनुपयुक्त नहीं लगता। दिगम्बर-लेखकों द्वारा प्रयुक्त शौरसेनी में देशी' शब्दों के प्रयोग लगभग अप्राप्त हैं। कारण स्पष्ट है, वह भाषा उस प्रदेश में पनपी, विकसित हुई, जो द्रविड़ परिवारीय-भाषा-समूह से सम्बद्ध है तथा देशी-शब्दों के प्रयोग-क्षेत्र से सर्वथा बाहर है। दिगम्बर-लेखकों द्वारा प्रयुक्त भाषा—शौरसेनी द्रविड़ परिवारीय भाषाओं से प्रभावित नहीं हुई, इसका कारण उन (द्रविड़ परिवारीय) भाषाओं का ध्वनि-विज्ञान, रूप-विज्ञान तथा वाक्य-रचना आदि की दृष्टि से आर्य-परिवारीय भाषाओं से भिन्नता है। संस्कृत का प्रभाव उस पर अवश्य अधिक है। एक तो शौरसेनी का प्रारम्भ से ही संस्कृत से विशेष लगाव रहा है, वररुचि ने तो इसकी उत्पत्ति ही संस्कृत" से बतलाई है तथा दूसरे संस्कृत को अपनी प्रभावापन्नता है, जिसकी अन्तत: परिणति हम समन्तभद्र, पूज्यपाद, अनन्तवीर्य तथा अकलंक जैसे महान् दिगम्बर संस्कृत-लेखकों में पाते हैं। दिगम्बर-लेखकों द्वारा प्रयुक्त प्राकृत का यह संक्षिप्त विवरण है। स्थान, समय, स्थिति प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98 0047
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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