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________________ रूप 'समयसार' (शुद्धात्मा) में स्थापित करने में समर्थ होता है, वह 'गण का धारक' अर्थात् 'आचार्य' है। तथा जो इस शुद्धात्मतत्त्वरूपी 'समयसार' को नहीं जानते हैं, उन्हें आचार्य देवसेन 'अज्ञानी' एवं 'मूढ' उपाधियों से विभूषित करते हैं ___“सो अण्णाणी मूढो, जो ण याणदे समयसारं।" अर्थ:—वह अज्ञानी एवं मूढ़ है, जो समयसार' को नहीं जानता है। वस्तुत: संसार में सब कुछ सुलभ है, एकमात्र यथार्थज्ञान या शुद्धात्मानुभूति की प्राप्ति दुर्लभ है। इसी तथ्य को रेखांकित करते हुये कविवर भूधरदास जी लिखते हैं "धन-कन-कंचन-राजसुख, सबहि सुलभ कर जान। दुर्लभ है संसार में, एक यथारथ ज्ञान ।।" इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए विशेष क्षयोपशम होना भी अपेक्षित नहीं है। महाज्ञानी आचार्य वीरसेन स्वामी लिखते हैं कि- “ऑग्गहेहावाय-धारणाओ।" ___अर्थात् जो अवग्रह-ईहा-अवाय और धारणा रूप सामान्य मतिज्ञान हैं; वही अपने आपको समझने के लिए पर्याप्त है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी इस तथ्य की पुष्टि की है___“ऑग्गह-ईहावाया-धारण-गुणसंपदेहिं संजुत्ता। ... सुत्तत्थभावणाए भावियमाणेहिं वंदामि ।।"" अर्थ:—जो अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा की गुणसंपदा से संयुक्त हैं तथा सूत्र एवं अर्थ की भावना को भाते हैं, उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ। जरा विचार करें कि मात्र उक्त चार श्रेणियुक्त मतिज्ञान' से संयुक्त शुद्धात्मतत्त्व की भावना करनेवालों को जब कुन्दकुन्द जैसे आचार्य वंदन करने को तैयार हैं, तब शुद्धात्मानुभव के लिए बहुत शास्त्रज्ञान या पाण्डित्यपूर्ण क्षयोपशम की अपेक्षा ही कहाँ रह जाती है? यहाँ प्रसंगवश एक कथन और उद्धृत करना चाहता हूँ। 'पवयणसारो' की 'तात्पर्यवृत्ति' नामक टीका में आचार्य जयसेन लिखते हैं कि _ “सासादनादि-क्षीणकषायान्ता एकदेशजिना उच्यन्ते।"" अर्थ:-सासादन सम्यक्त्व' नामक द्वितीय गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय' नामक बारहें गुणस्थान-पर्यन्त सभी जीव ‘एकदेशजिन' कहे गये हैं। इनमें मात्र मिथ्यात्व' गुणस्थान ही छोड़ा गया है, शेष अरिहन्त-अवस्था के पर्ववर्ती समस्त गुणस्थानों में स्थित जीवों को एकदेशजिन' संज्ञा दी गयी है। यह तथ्य बतलाता है कि शुद्धात्मभावना से रहित 'मिथ्यात्व' ही जीव के लिए ऐसा महाघातक तत्त्व है, जिसके रहते जीव निरन्तर घोर कर्मबन्ध करता हुआ संसार में भंयकर दुःख भोगता है। तथा एक शुद्धात्मतत्त्व ही ऐसा महान् पतितपावन तत्त्व है, जिसका आश्रय लेकर पतित भी पावन हो जाता है। इसी शुद्धात्मभावना शुद्धात्मतत्त्व अनुभूति का नाम प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98 बर'98 1021
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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