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इतना ही नहीं, आधुनिक विचारक भी इस तथ्य को भली भाँति स्वीकार करते हैं। माननीय लोकमान्य बालगंगाधर तिलक लिखते हैं
“वस्त्र-प्रावरण आदि ऐहिक सुखों का त्याग और अहिंसा-प्रभृति धर्मों का पालन बौद्ध भिक्षुओं की अपेक्षा जैन यति अधिक दृढ़ता से किया करते थे एवं अब भी करते रहते हैं।....... हिंदुस्तान में तत्कालीन प्रचलित धर्मों में जैन तथा उपनिषद्धर्म पूर्णतया निवृत्तिप्रधान ही थे।" – (गीताप्रवचन, पृ0 578-82) _ विद्वद्वरेण्य डॉ० मंगलदेव शास्त्री (पूर्वकुलपति, संपूर्णानंद संस्कृत वि०वि०, वाराणसी) ने भी स्पष्ट लिखा है:___ "वैदिक साहित्य की अपेक्षा यह शब्द (श्रमण) जैन-परम्परा में बहुत प्रचलित रहा है और वहाँ इसका प्रयोग जैन मुनियों के लिए रूढ़ है। इसका अर्थ प्राय: दिगंबर ही किया जाता है।" – ('नवनीत' मासिक, जून 1974, पृष्ठ 69) ___अब चूँकि किसी भी विद्वान् ने इनके (श्वेताम्बर जैनों) अस्तित्व को तक भी स्वीकार नहीं किया, तो ये अपने गीत स्वयं गाते बैठे हैं तथा तथ्यों को विकृतकर अपनी महत्ता सिद्ध करने की चेष्टा कर रहे हैं। यद्यपि हमें अपने पक्ष को कुछ भी प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि उगा हुआ सूर्य प्रमाणान्तर की अपेक्षा नहीं रखता। फिर भी कतिपय दिवाद्वेषी असूर्यम्पश्या-जनों को, जिन्होंने सूर्य से मुँह मोड़कर आँखें जोर से बन्द कर रखी हैं तथा अनर्गल प्रलाप करते फिर रहे हैं; उन्हें थोड़ा-सा दिशाबोध अपेक्षित होने से सांकेतिक कथन किया है।
डॉ० सागरमल जी यद्यपि मेधावान हैं, परन्तु उसका वे निष्पक्षभाव से यथार्थ की स्वीकृति में उपयोग नहीं करते हैं। पक्षविशेष के पूर्वाग्रहों को मिथ्या होते हुये भी येन-केन-प्रकारेण सत्य सिद्ध करने का अभियान उन्होंने छेड़ रखा है। अब सोते हुये भी जगाना तो आसान है, किंतु जागते हुये भी जो सोने का अभिनय कर रहा हो, उसे कौन जगा सकता है? ___ हमारे पास प्रत्येक बात के पूरे प्रमाण हैं। यदि डॉ० सागरमल जी चाहें, तो दिल्ली में एक संगोष्ठी रख लें। मैं उसमें प्रत्येक तथ्य को प्रस्तुत करने एवं प्रमाणित करने को तैयार हूँ, बशर्ते वे भी मूलप्रमाणों को लेकर तथ्यात्मक बात करें तथा निष्पक्ष प्रामाणिक विद्वानों के बीच चर्चा हो। ____ मात्र पुस्तक छपाने से कुछ नहीं होता, तथ्यों का प्रमाणीकरण ही महत्त्वपूर्ण है। उनके प्रति निष्ठा ही निर्णायक होगी। पुस्तकें तो पैसों से छप जाती हैं। भानुमती के पिटारे की तरह यद्वा-तद्वा बातों का पुलिंदा छपाने की जगह प्रामाणिक तथ्यों के यथावत् प्रस्तुतीकरण की ही 'पुस्तक' संज्ञा होती है। इस पुस्तक में हड़प्पा एवं मोअन-जो-दड़ो के तथा मथुरा के कंकाली टीला, सम्राट् खारवेल के शिलालेख आदि के पुरातात्त्विक एवं
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98
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