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________________ आचार्यश्री के संकलन से...... ___-प्रस्तुति : डॉ० सुदीप जैन जैन आचार-व्यवस्था में सल्लेखना' या 'समाधिमरण' का अतिविशिष्ट महत्त्व माना गया है। इसे 'निष्प्रतिकार मरण' भी कहा गया है अर्थात् जब शरीर के उपचार का कोई सात्त्विक साधन/प्रक्रिया संभव न रह जाये तथा मरण सुनिश्चित प्रतीत होने लगे, तब सम्यकरूप से 'काय' (शरीर) और कषाय' को कृश (कमजोर) करने के लिए तथा आत्मिक स्वास्थ्य के संरक्षण के लिए जो प्रक्रिया अपनायी जाती है; उसे 'सल्लेखना' या 'समाधिमरण' कहा जाता है। ऐसी अवस्था प्राप्त होने पर निरन्तर उपयोग धर्मध्यान में बना रहे —इस दृष्टि से अनेकों मांगलिक स्तुतियाँ, वैराग्यप्रद गीतियाँ, आध्यात्मिक भजन एवं ध्यानपरक मंत्रों का स्वयं एवं समागत धर्मानुरागी भाई-बहिनों द्वारा शांतभाव से गान/उच्चारण किया जाता है; ताकि सल्लेखना' ग्रहण करनेवाले जीव का चित्त संसार से विरक्त होकर, शरीर की ममता छोड़कर आत्मस्थ हो सके। व्याकुलता दूरकर शांतिपूर्वक देहत्याग की यह अनुपम विधि है। - इसमें पढ़े/गाये जाने वाले भजनों, आध्यात्मिक पाठों व स्तुतियों से तो प्राय: जन परिचित हैं, किन्तु इस स्थिति में जपे/सुनाये जाने वाले मंत्रों का बोध प्राय: अधिकांश जनों को नहीं है। इसी दृष्टि से पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज के निजी संकलन के रूप में उनके हस्तलिखित नोट्स में से ऐसे मंत्रों के परिशुद्ध पाठ यहाँ दिये जा रहे हैं। ॐ ह्रीं अर्ह णमो जिणाणं ।। 1।। अर्थ:—यहाँ पर 'ॐ' सुखबीज है, 'ह्रीं' कल्याणबीज है तथा 'अहं' ब्रह्मबीज है। इन तीनों बीजों से युक्त जिनेन्द्र भगवन्तों को नमस्कार है। (विशेष:---उपर्युक्त आद्य तीनों बीजाक्षर आगे के मंत्रों में भी जुड़कर प्रयुक्त होंगे।) णमो ओहिजिणाणं ।। 2 ।। अर्थ:—अवधिज्ञान (भूतनैगमनय की अपेक्षा से) युक्त जिनेन्द्र भगवंतों के लिए नमस्कार है। णमो परमोहिजिणाणं ।। 3 ।। अर्थ:-परमावधिज्ञान-युक्त जिनेन्द्र भगवन्तों के लिए नमस्कार है। णमो सव्वोहिजिणाणं ।। 4।। अर्थ:-सर्वावधिज्ञान के धारक जिनेन्द्र भगवन्तों के लिए नमस्कार है। णमो अणंतोहिजिणाणं ।। 5।। अर्थ: अनंतावधिज्ञान के धारक जिनेन्द्र भगवन्तों के लिए नमस्कार है। (विशेष:—अवधि-परमावधि-सर्वावधि – ये तीन भेद तो अवधिज्ञान के हैं, किंतु 'अनन्तावधि' के नाम से अवधिज्ञान का कोई भेद नहीं है। अत: यह 'जिस ज्ञानस्वभाव की 0074 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98
SR No.521353
Book TitlePrakrit Vidya 1998 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1998
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size3 MB
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