Book Title: Prakrit Vidya 1998 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 96
________________ ....? 'सम्पादकीय' अत्यंत सामयिक है ही, साथ ही वर्तमान युग प्रामाणिक शोधपरक, वैज्ञानिक भी है। वादे-वादे जायते तत्त्वबोधः । तीर्थंकर भगवन्तों की देशनाएँ, भाष्य, टीका एवम् हिन्दी, अंग्रेजी एवं अन्य भाषा जर्मन आदि में उपलब्ध है। क्या उनके शुद्धिकरण की आवश्यकता है? -कन्हैयालाल बॉठिया, कानपुर ** ० 'प्राकृतविद्या' जुलाई-सितम्बर अंक प्राप्त हुआ। हर अंक नई साज-सज्जा, शोधपूर्ण सामग्री एवं नूतन चिन्तन बिन्दुओं को लेकर आता है। अंक मे पूर्ण पर्याप्त पठनीय सामग्री रहती है। मुद्रण शुद्ध और प्रामाणिक होता है। विद्वत्ता का प्रतीक वृश्चिक' के बारे में आपकी दृष्टि अत्यन्त चिन्तनपूर्ण है। इस ज्ञान-ज्योति को प्रकाशित रखने के लिए आपको धन्यवाद। -लाल चन्द्र जैन प्राचार्य, गंज बासोदा, (म०प्र०) ** 0 'प्राकृतविद्या' का प्रत्येक अंक शोध-सामग्री से परिपूर्ण रहता है। हार्दिक बधाई। -डॉ० रत्नचन्द्र अग्रवाल, जयपुर ** 0 'प्राकृतविद्या' का जुलाई-सितम्बर '98 अंक मिला। इसके माध्यम से हमारी मूल भाषा प्राकृत, विशेषत: शौरसेनी प्राकृत के बारे में जो महत्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध होती है, वह सम्पूर्ण समाज एवं देश के जिज्ञासुवर्ग के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण उपादान है। उक्त अंक के आवरण पृष्ठ पर वृश्चिक (बिच्छू) को विद्वत्ता का प्रतीक रूप में अभिहित कर उसका सम्यक् समाधान प्रस्तुत कर सम्पादक महोदय ने समाज की अप्रियकर घटनाओं के संदर्भ में प्रतीकात्मक रूप से बहुत कुछ कह दिया है। बिच्छु जैसा डंक मारने की प्रवृत्ति वर्तमान में फैशन जैसी हो गयी है। आरोप-प्रत्यारोप, स्पष्टीकरण-समाधान आदि बिच्छू के डंक जैसे जहरीले हो गये हैं। सभी जन गुणदोष का विचार कर बिच्छु की एकानतस्थलीय ज्ञानसाधना से प्रेरणा लेंगे, जिसमें समाज/संस्कृति का हित निहित है। विद्याविवादाय' सम्पादकीय सामयिक, सारगर्भित एवं दिशाबोधक हैं? प्रो० डॉ० राजाराम जैन, प्रो० माधव श्रीधर रणदिवे, पं० जयकुमार उपाध्ये, राजकुमार जैन आदि के लेख विविधतापूर्ण उपयोगी सामग्री से भरपूर हैं, जो पठनीय हैं। पत्रिका का स्वरूप नित-नवीन शोध-खोजपरक होता जा रहा है, जिसके लिए प्राकृतविद्या परिवार बधाई का पात्र है। -डॉ० राजेन्द्र कुमार बंसल, अमलाई ** 0 प्राकृतविद्या' का जुलाई-सितम्बर 98 अंक मिला। बिच्छू का आवरण चित्र तथा विद्वान् से उसकी तुलना बौद्धप्रद पायी। आपके लेख 'औचित्यपूर्ण उत्सव...', पं० नाथूलाल जी शास्त्री का लेख सिद्ध क्षेत्रों में चरण चिन्हों का महत्त्व' अतिउपयुक्त है। चरणचिह्न का जो विश्लेषण उन्होंने किया, वह प्रामाणिक है। तीर्थंकरों के सिवा अन्यों की प्रतिमायें (जो सिद्ध हुए हैं) नहीं होनी चाहिये । प्रतिष्ठाचार्य वर्ग तथा आयोजक इस और अवश्य ध्यान दे। शौरसेनी प्राकृत के बारे में अतिशय उपयुक्त जानकारी इस पुस्तक में है। यह डॉ० रमेशचंद्र जैन और डॉ० उदयचंद्र जैन के लेखों से सहज प्राप्त है। सामग्री सुंदर और ज्ञानवर्धक है। -मनोहर मारवडकर, नागपूर ** 00 94 प्राकृतविद्या+ अक्तूबर-दिसम्बर'98

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