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ब्रह्मदेश (बर्मा) एवं कांबोज (कम्बोडिया) आदि। पहिले ये सभी हमारे वृहत्तर राष्ट्र के अभिन्न अंग रहे हैं —ऐसा प्राचीन इतिहास के अवलोकन से स्पष्ट विदित होता है तथा भारतीय संस्कृति की प्राचीनतम मूलधाराओं में श्रमणसंस्कृति का अन्यतम योगदान रहा है। अत: इस देश की भूमि पर श्रमण-संस्कृति के प्राचीन अवशेष मिलना स्वाभाविक है। किन्तु उसको एक सुनिश्चित पहिचान (Confirm Identification) प्रदान करना समय की माँग है। इस दशा में यह पुस्तक एक प्रारंभिक सही, किन्तु प्रशंसनीय प्रयास है।
इसमें विद्वान् लेखक ने सिद्ध किया है कि अंगकोर के प्राचीन मंदिर जैन संस्कृति के 'पंचमेरु मंदिर' हैं। जो प्रतिमाओं के चित्र दिये गये हैं, उनमें स्थापत्यशैली भले ही कम्बोडिया की रही हो, परन्तु स्पष्टत: वे दिगम्बर जैन प्रतिमायें हैं - यह कोई भी कह सकता है। अन्य जो वर्णन दिया गया है, उससे भी इसके 'पंचमेरु मंदिर' होने का तथ्य पुष्ट होता है। जैनसंस्कृति की परंपरित अवधारणाओं के अधिकृतरूप से जानकर व्यक्ति द्वारा यदि इनका विश्लेषण किया जाता, तो संभवत: यह तथ्य एकदम अकाट्यरूप से प्रमाणित हो जाता। किंतु इसके लिए अपेक्षित है कि कोई विशेषज्ञ जैनविद्वान् इस विषय पर कार्य करे। फिर भी जो कार्यलेखक ने श्रमपूर्वक किया है, वह निश्चय ही प्रेरणास्पद है। ' हमारे ग्रंथों में उल्लेख है कि सौ नये मंदिर बनवाने से अधिक पुण्य का कार्य है एक प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार एवं संरक्षण-संवर्धन करना। कदाचित् हमारे समाज का नेतृत्व इस दृष्टि से इस विषय में चिंतन करे, तो अच्छा होगा। पुस्तक का मुद्रण अच्छा हुआ है। कागज भी ठीक है। यदि प्रस्तुत तथ्यों को किसी सुयोग्य सम्पादक द्वारा व्यवस्थित रूप दिया जाता, तो संभवत: इसकी प्रभावोत्पादकता और भी बढ़ जाती। फिर भी यह पठनीय, मननीय एवं संग्रहणीय कृति हैं।
–सम्पादक **
मंगलायरण 'सिद्धं सिद्धत्थाणं ठाणमणोवमसुहं उवगयाणं। कु-समय विसासणं सासणं जिणाणं भवजिणाणं ।।'
। – (आयरिय सिद्धसेण, सम्मइसुत्तं, 1/1/पृष्ठ 1) अर्थ:-(सिद्धत्थाणं ठाणं) प्रमाण प्रसिद्ध अर्थों का स्थानभूत तथा (कुसमय विसासण) कु-पृथ्वी के (समस्त) एकान्तवाद से दूषित ऐसे मिथ्यामतों का समन्वय करके विशेषरूप से शासन करनेवाले जिनेन्द्र भगवान् का जो कि (अणोवमसुहं भुवगयाणं) निखिलोपमारहित अव्याबाध सुख को भोक्ता एवं (भव जिणाणं) जिन्होंने संसार-सागर को जीत लिया, ऐसा (सासणं) अनेकान्तवादरूपी जैनशासन जो कि (सिद्धं) स्वत:सिद्ध है।
। प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98
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