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अध्ययन की रुचिवाले गवेषियों को स्पष्टता हो सके। किंतु प्रतीत होता है कि जिस प्रति के मुखपृष्ठ की छायाप्रति इस संस्करण के आवरण पर मुद्रित है, उसके पाठान्तर संभवत: विद्वान् सम्पादक ने नहीं लिए हैं; क्योंकि उसमें प्रथम दोहा में 'गुरुदेव' पाठ है, जबकि इसमें 'गुरु देउ' पाठ ही रखा गया है, इसका पाठान्तर पादटिप्पण' में नहीं दिया गया है। इसीप्रकार इस संस्करण में प्रकाशित द्वितीय पद्य भी मुद्रित आवरण पृष्ठ पर मुद्रित छायाचित्रवाली प्रति में नहीं है, परन्तु विद्वान् सम्पादक ने उसका कोई उल्लेख नहीं किया है। वस्तुत: उन्होंने आवरणपृष्ठ के चित्र की प्रति का उल्लेख भी नहीं किया है कि यह प्रकाशित छायाचित्र किस प्रति का है।
मूलपाठों का शब्दार्थ, अर्थ एवं भावार्थ - इन तीन शीर्षकों से विशदीकरण इस संस्करण में विद्वान् सम्पादक ने किया है तथा भावार्थों में यथायोग्य अन्य ग्रंथों के प्रमाण देकर विषय को पुष्ट किया गया है। चूँकि इस ग्रंथ की कोई प्राचीन टीका अद्यावधि उपलब्ध नहीं है, अत: कुछ पाठों एवं उनके अर्थ की पुष्टि के लिए पूर्ण आधार नहीं मिल पाता है। फिर भी ग्रन्थान्तरों के प्रमाणों से विद्वान सम्पादक ने यथायोग्य रीति से इसमें समर्थन देकर अधिकांश स्थलों को स्पष्ट करने का नैष्ठिक प्रयत्न किया गया है।
'शब्दार्थ' के अन्तर्गत किसी-किसी शब्द का व्याकरणिक परिचय दिया गया है। यथा—दोहा क्र० 3 में 'जि' को पारपूरक अव्यय' कहा गया है। जबकि इसी में इसका पुनः प्रयोग होने पर ही' —ऐसा निश्चयार्थक अर्थ दिया गया है। उसी प्रकार द्वितीय दोहे में 'हुंतउं' पद का अर्थ से (पंचमी विभक्ति)' किया गया है। ऐसे प्रयोग विचारणीय हैं। ___ इस ग्रंथ पर श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, मानित विश्वविद्यालय, नई दिल्ली-16 से एक छात्रा ने शोधकार्य (पी-एच०डी०) भी किया है, जिसका शोधप्रबन्ध विश्वविद्यालय में प्रस्तुत होने के लिए टंकण-प्रक्रियान्तर्गत है। __इस उत्तम प्रकाशन के लिए भारतीय ज्ञानपीठ एवं डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री निश्चय ही साधुवाद एवं अभिनंदन के पात्र हैं।
–सम्पादक **
(2) पुस्तक का नाम - सम्राट् खारवेल (कन्नड़ भाषा में) लेखक
- जी० ब्रह्मप्पा - रत्नत्रय प्रकाशन, एफ० ब्लॉक, चित्रभानुरस्ते, कुवेम्पु नगर,
__ मैसूर-570023 (कर्नाटक) मूल्य
- 15/- रुपये, पिपर बैक, पॉकेट बुक साइज) संस्करण - प्रथम संस्करण 1965 ई०, पृष्ठ संख्या 160
हमारी संत-परम्परा के असीम विद्यानुरागी रत्नों में पूज्य आचार्य विद्यानन्द जी का नाम अग्रगण्य है। मुनिदीक्षा से पूर्व क्षुल्लक अवस्था (नाम-पार्श्वकीर्ति) से ही वे अहर्निश
प्रकाशक
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98