Book Title: Prakrit Vidya 1998 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 88
________________ जैनधर्म और अन्तिम तीर्थंकर महावीर -डॉ० रमेश चन्द जैन जैन शब्द 'जिन' से बना है। जो रागादि कर्म शत्रुओं पर विजय प्राप्त करते हैं, वे 'जिन' कहलाते हैं।'- 'जिन' के द्वारा प्रणीत धर्म जैनधर्म कहलाता है । जैनधर्म में चौबीस तीर्थंकर माने गए हैं। इनमें से प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव थे। 'भागवत पुराण' में ऋषभदेव को विष्णु का आठवाँ अवतार स्वीकार किया गया है। 'भागवत' के अनुसार उनका जीवन महान् था तथा उन्होंने बड़ा तप किया। श्रमणों को उपदेश देने के लिए उन्होंने अवतार लिया था। अन्त में ऋषभदेव कर्मों से निवृत्त होकर महामुनियों को भक्ति, ज्ञान, वैराग्यमय परमहंस धर्म की शिक्षा देने के लिए सब त्याग कर नग्न तथा बाल खुले हुए 'ब्रह्मावर्त' से चल दिए थे। राह में कोई टोकता था, तो वे मौन रहते थे। लोग उन्हें सताते थे, पर वे उससे विचलित नहीं होते थे। वे 'मैं' और मेरे' के अभिमान से दूर रहते थे। परम रूपवान् होते हुए भी वे अवधूत की तरह एकाकी विचरण करते थे। 'अग्नि पुराण' में कहा गया है कि उस 'हिमवत प्रदेश' (भारतवर्ष) में बुढ़ापा और मरण का कोई भय नहीं था, धर्म और अधर्म भी नहीं था। प्राणियों में मध्यभाव (समभाव) था। ऋषभ ने राज्य भरत को प्रदान कर संन्यास ले लिया। 'भरत' के नाम से इस देश का नाम भारतवर्ष हुआ। भरत के पुत्र का नाम सुमति' था। ___ प्रसिद्ध ऐतिहासिक प्रमाणों से ऋषभदेव की मान्यता का समर्थन होता है। ऋषभदेव के पश्चात् अन्य तेईस तीर्थंकर और हुए, इनमें अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान या महावीर थे। 'यजुर्वेद' में तीन तीर्थंकरों के नामों का उल्लेख है—ऋषभदेव, अजितनाथ एवं अरिष्टनेमि।' तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ऐतिहासिक व्यक्ति थे और उन्होंने महावीर से ढाई सौ वर्ष पहले इस देश को अपने जन्म से अलंकृत किया था। इनके पिता काशी के राजा विश्वसेन तथा माता महारानी वामादेवी थी। काशी नगरी में 874 विक्रम पूर्व = 817 ई०पूर्व० में इनका जन्म हुआ था। तीस वर्ष के पश्चात् इन्होंने प्रव्रज्या अंगीकार की तथा कैवल्य को प्राप्तकर सारे भारतवर्ष में उपदेशों द्वारा धर्म प्रचारकर अन्त में बिहार के सम्मेदशिखर नामक स्थान से मुक्ति प्राप्त की।" वर्द्धमान महावीर का जन्म 599 ई०पू० में बिहार प्रान्त के 'कुण्डपुर' नामक ग्राम में महाराजा सिद्धार्थ की पत्नी प्रियकारिणी त्रिशलादेवी की कुक्षि से हुआ था। लगभग तीस वर्ष की उम्र में उन्होंने गृहत्याग किया और 12 वर्ष, 5 मास, 15 दिन तक घोर तपस्या करने के पश्चात् उन्हें केवलज्ञान की उपलब्धि हुई। इसके पश्चात् वे सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और जिन हुए। अन्य तीर्थंकरों की भाँति प्रव्रज्या-काल से ही उन्होंने नग्न रहना 1086 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर'98

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